Friday, July 8, 2011

हेम होता तो सवाल उठाता -2

(पिछली किस्त से जारी)

यह सार्वजनिक रूप से दर्ज़ की जाने वाली बात है कि जिन अख़बारों वगैरह के लिए हेम लिखा करते थे, उनके सम्पादकों ने हेम से मिल चुकने या उसका लिखा छाप चुकने की किसी भी बात से झटपट अस्वीकार कर दिया. स्पष्टतः ये सम्पादकगण, जिनके नाम इस समय बताये जाने की कोई ज़रूरत नहीं, हेम से अपनी दूरी बनाने के लिए काफ़ी चिन्तित थे. उनके प्रति निष्पक्ष हो कर कहा जाए तो वे लोग सम्भवतः हेम द्वारा उनके अखबारों में लिखे गए लेखों से अपरिचित थे. लेकिन जिस तेज़ी से उन्होंने सार्वजनिक रूप से हेम से अपना कोई सम्बन्ध होने या उस से मिल चुके होने से इन्कार किया, वह बताती है कि तथ्यों की खोज करने के पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धान्त को लेकर वे कितने बेपरवाह थे.

बाद में हेम के मित्रों ने प्रयास कर उन्हीं अख़बारों में छपे हेम के कई लेख खोज निकाले, जो हताशा के स्तर तक हेम से अपने किसी भी सम्बन्ध को नकार रहे थे. उत्तराखंड के अपने गृहराज्य में विश्वविद्यालय के छात्र के तौर पर हेम रेडिकल कैम्पस राजनीति से जुड़े थे. वे जिस संगठन के साथ जुड़े थे, वह कई भारतीय विश्वविद्यालय परिसरों की राजनीति में सक्रिय है और भारतीय संसद में सीटें जीत चुकी एक पार्टी के साथ उसका सम्बन्ध पारदर्शी रहा है. पांडे हिन्दी भाषा के अग्रणी दैनिकों जैसे नई दुनिया, राष्ट्रीय सहारा और दैनिक जागरण के लिए लिखा करते थे. उनके मारे जाने के कुछ ही दिनों बाद उनके दोस्तों द्वारा किए गए उनके लेखों का संग्रह दिखाता है कि वे बड़े सामाजिक सरोकारों जैसे मुद्रास्फीति, खाद्यान्न-असुरक्षा और जलवायु-परिवर्तन को लेकर सचेत थे. वे कहीं भी हिंसा की पैरवी नहीं करते.

एक पत्रकार के मारे जाने पर मीडिया के ऐसे कमज़ोर रवैये का क्या कारण हो सकता है? साधारण शब्दों में कहा जाए तो जहां भी राष्ट्रीय सुरक्षा की आधिकारिक संरचना जुड़ी होती है, मीडिया दोषहीनता की सम्भावना तक को ज़रूरत से ज़्यादा उत्साह के साथ त्याग देने को तैयार दिखता है. सच तो यह है कि "माओवादी" शब्द का ज़िक्र भर एक पढ़ी-लिखी बहस पर ठण्डा पानी डालने को पर्याप्त होता है और आधिकारिक आदेशों के प्रति एक मौन सहमति सी बन जाती है.

माओवादी विद्रोह ने उस सन्दर्भ को प्रमाणित किया जिसके तहत जनाधिकारों से सरोकार रखने वाले पत्रकारों से सम्बन्धित आधिकारिक निर्णय लिए गए. २ जनवरी २०११ को पत्रकार सुधीर धावले को महाराष्ट्र के वर्धा ज़िले में गिरफ़्तार किया गया जब वे मुम्बई से एक साहित्यिक सम्मेलन में भागीदारी कर के लौट रहे थे. धावले को राजद्रोह और राज्य के खिलाफ़ युद्ध भड़काने सम्बन्धी कानूनों के दायरे में गिरफ़्तार किया गया. पुलिस के विवरणों के अनुसार धावले को गिरफ़्तार करने के पीछे प्रतिबन्धित माओवादॊ पार्टी के एक तथाकथित नेता से की गई पूछताछ थी.

मुम्बई के जनाधिकार-समूहों और पत्रकारों द्वारा धावले की गिरफ़्तारी को लेकर तीखी प्रतिक्रियाएं की गईं - उन्होंने इस घटना को माओवादी प्रभाव वाले इलाके में जनाधिकार समर्थकों के उत्पीड़न के तौर पर देखा. धावले असहमति के विचारों वाली एक पत्रिका "विद्रोही" के सम्पादक होने के साथ साथ विभिन्न प्रकाशनों में स्वतन्त्र लेखन करते हैं, वे अपने राज्य और अन्य क्षेत्रों में जनाधिकार आन्दोलनों में सक्रिय थे.

उड़ीसा राज्य में भी तेज़ी से बढ़ते शासकीय दमन के परिणामस्वरूप पत्रकारों को बड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़ा. यह दमन पश्चिमी इलाकों में बढ़ते माओवादी प्रभाव पर केन्द्रित होने के साथ साथ सामान्य नागरिकों का उत्पीड़न भी कर रहा था. मीडिया द्वारा की गई आलोचना, विशेषतः जब वह इन ज़िलों के प्रशासन पर केंद्रित हो, आमतौर पर सीधे-सीधे माओवादी राजनैतिक एजेन्डे का समर्थन मान ली जाती है. परिणामस्वरूप कई पत्रकारों को धमकियों, गिरफ़्ताइयों और अपमान का सामना करना पड़ा है.

पत्रकारों की एक सक्रिय संस्था मीडिया यूनिटी फ़ॉर द फ़्रीडम ऑफ़ प्रेस (एमयू एफ़पी) द्वारा हाल ही में इकठ्ठा किए गए विषद दस्तावेज़ एक और कारक की पहचान करते हैं - राज्य में खदान में रुचि रखने वालों का बढ़ता प्रभाव. हाल के दिनों में प्रमुखतः राज्य सरकार द्वारा पश्चिमी ज़िलों में लौह अयस्क और बॉक्साइट के खदान और निर्यात को लेकर बड़ी बड़ी योजनाएं बनाई और पारित की गई हैं. इसके सीधे परिणामस्वरूप ज़मीन और उसके संसाधनों मुख्यतः वनों पर लम्बे समय से निर्भर स्थानीय लोगों का बड़ी संख्या में पलायन हुआ है. जैसा कि उड़ीसा में प्रेस की स्वतन्त्रता की स्थिति पर एमयूएफ़पी मार्च २०११ के अपने विषद "श्वेत पत्र" में ज़िक्र किया है : "मीडियाकर्मियों पर बढ़ते आक्रमण के पीछे राज्य सरकार की किसी भी ऐसे विचार के प्रति बढ़ती असहिष्णुता है जो कॉरपोरेट और खदान के स्वार्थों को लेकर राज्य की नीतियों का पक्ष नहीं लेते." एमयूएफ़पी का दस्तावेज़ पत्रकारों पर हुए ऐसे तमाम हमलों का दस्तावेज़ है जिन्हें अक्सर राजनीति से सम्बद्ध व्यक्तियों द्वारा अंजाम दिया गया.

(जारी)

(विचारधारा वाला पत्रकार - हेम चन्द्र पांडे से. पुस्तक प्राप्त करने हेतु इस पते पर मेल करें - bhupens@gmail.com अथवा भूपेन से इस नम्बर पर बात करें -.+91-9999169886 पुस्तक की कीमत है १५० रुपए)

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