Friday, July 8, 2011

गणेश हलोई से साक्षात्कार - 3

(पिछली किस्त से जारी)


क्षितिज ...

गणेश हलोई: आधार.देखो, जब एक आदमी खड़ा होता है वह एक लम्बवत होता है, जब वह मर जाता है वह एक ऊर्ध्वाधर है ... इस बारे मैं मैंने बहुत विचार किया. कि यह प्रक्रिया असल में क्या है पर मुझे अहसास हुआ कि हम इस से आगे नहीं जा सकते. अब इस पिरामिड के आकार को देखो - यह किसी पहाड़ जैसा है. प्रकृति में ऊंचाई वाली हरेक चीज़ ऐसी ही नज़र आती है. यहां तक कि जब आप दाल या चावल जैसी चीज़ों को उड़ेलते हो - या किसी भी चीज़ को - वह गुरुत्व के कारण ऐसा ही पिरामिड का आकार ग्रहण कर लेगी. उसके बाद गोले की बारी आती है. एक बुलबुला गोल होता है, पानी की एक बूंद वृत्त के आकार में गिरती है ... प्रकृति में एक और मूलभूत फ़ॉर्म होती है और वह है एक लयबद्ध रेखा. पानी की सतह के ऊपर की लहर एक लयबद्ध रेखा जैसी होती है. जब पेड़ों से होकर हवा गुज़रती है तो एक लयबद्ध रेखा बनती है. जब रेगिस्तान में रेत के ढूहों में हरकत होती है तो एक लयबद्ध रेखा का निर्माण होता है. जब आप इस तरह की रेखा बच्चों को दिखाते हैं वे तुरन्त कह उठते हैं - 'पानी'. ड्रॉइंग करते समय बच्चे बहुत सारी मूलभूत संरचनाओं का इस्तेमाल करते हैं. जब वे चेहरा बनाते हैं तो वह सामने से दिखाई देने वाला होता है. प्रोफ़ाइल में चेहरा वे बहुत कम बनाते हैं. आप दो बिन्दु बनाइए और एक और बिन्दु उनके नीचे ठीक बीचोबीच बना दीजिए - एक चेहरा बन जाता है. चेहरे के गोले से बाहर निकलने वाली दो ऊर्ध्वाधर रेखाएं हाथ बन जाते हैं. नीचे की तर्फ़ खींची गई एक लम्बवत रेखा से शरीर बन जाता है. अपेक्षाकृत छोटे बच्चे बस इतना ही ड्रॉ करते हैं. फिर उन्हें भान होता है कि मानव देह में कमर भी होती है और टांगें भी सो वे इस रेखा को बांटना शुरू करते हैं. धीरे धीरे पूरा चित्र विकसित होने लगता है. बच्चे मूलभूत संरचनाओं को हिस्सों की तरह देखते हैं. वे इन टुकड़ों को इकठ्ठा कर के अपनी पसन्दीदा रचना बनाना चाहते हैं. तब वे बड़े होने लगते हैं और आठ-नौ की आयु तक पहुच जाते हैं. यह एक बहुत ख़राब उम्र होती है. इस आयु में आकर उन्हें यह मालूम पड़ता है और वे इस से निराश हो जाते हैं कि उनकी बनाई गाय गाय जैसी नहीं होती, न ही आदमी आदमी जैसा. बड़े होने के साथ साथ वे वास्तविकता के करीब आने लगते हैं. तो वे चाहते हैं कि चीज़ों को वैसे ही पेन्ट कर पाएं जैसी वे हैं. वे चाहते हैं कि उनका बनाया सब कुछ प्राकृतिक दिखने लगे. वे मूलभूत संरचनाओं की अपनी समझ खोने लगते हैं. मैं इन्हीं मूलभूत संरचनाओं की बात कर रहा हूं. ऊर्ध्वाधर, लम्बवत, विकर्ण, वृत्त ... वे सब हमारे चारों तरफ़ हैं, हैं न? वे मानव आकृति के भीतर होती हैं ... जो हमें आसपास नहीं दिखाई देता वह है वर्ग का आकार. या आयत का आकार. हां हमें ये आकार कभी कभी पत्थरों की संरचना में दिखाई दे सकते हैं पर वह बहुत दुर्लभ होता है. यहां हमें एक और आयाम पर बात करनी होगी. हमारी गरदन की गति - यह एक खास तरह से गति कर सकती है, एक खास धुरी के गिर्द. चूंकि धरती ऊर्ध्वाधर है. सो चूंकि हमें अपने आसपास एक खास तरह से देखने की आदत पड़ चुकी होती है, किसी स्काइस्क्रेपर को देखने में असल में बहुत दिक्कत होती है. हमें आयत और वर्ग प्रकृति में नहीं दिखाई देते पर हम उन्हें देखते हैं - एक किताब में जिसे आदमी ने बनाया है.

गुफाओं में रह रहे आदिम मनुष्य ने रेखाएं खींचना शुरू किया. जाहिर है उसने शिकार के दृश्य बनाए. लेकिन उन्होंने उनके चारों तर्फ़ कोई फ़्रेम नहीं लगाया. फ़्रेम बनाने का विचार उन्हें घर बनाते समय आया. क्या आपने कभी किसी आदिम पेन्टिंग को देखा है जिसमें फ़्रेम हो? एक बार आदिम कला के विषय पर एक सेमिनार था. उसमें यहां तक कि इतिहासकारों ने भी इस बात की तरफ़ इशारा किया कि फ़्रेम का विचार तो आदमी के सभ्य होने के बाद अस्तित्व में आया था. उसने मेज़ें बनाईं, किताबें बनाईं ...

सिन्धु घाटी सभ्यता की मोहरें वर्गाकार हैं.

गणेश हलोई: हां, तब तक मकान बनाए जा चुके थे. नियोजन का सिद्धान्त उस समय तक समाज में आ चुका था. तब तक आदमी ने वर्ग का इस्तेमाल इस हिसाब से करना शुरू कर दिया था जैसे वह कोई मूलभूत संरचना हो. लेकिन वह मूलभूत संरचना नहीं है. हम उसका प्रयोग कुछ बनाने के लिए कर रहे हैं और जबरन अपने आप को ऐसी चीज़ का इस्तेमाल करने को विवश कर रहे है जो प्रकृति में मूलभूत नहीं है. वह थोपा हुआ है, नैसर्गिक नहीं.

थोपे हुए और नैसर्गिक के बीच क्या अन्तर है?

थोपे हुए का मतलब उस स्थिति से है जब लोग अपने आप से कहते हैं कि उन्हें किसी काम को सिर्फ़ किए जाने के वास्ते करना है. वे कहते हैं कि बस ऐसा करना ही है. अगर उसने आंख को एक खास तरह से बनाया है तो मैं भी उसे वैसे ही बनाऊंगा - उस से फ़र्क, उस से बेहतर. वह रेडिकल किस्म के बदलावों के बारे में नहीं सोचता. सो वह अलग तरीके से एक आंख बनाता है जो आंख की जगह पर हॊ होती है. सो एक तरफ़ तो वह अलग होने की कोशिश करता है वहीं दूसरी तरफ़ वास्तविकता का अनुसरण करता है. आप उन आकृतियों को दिखिए जिन्हें आजकल जोगेन चौधरी बनाते हैं. वे उन्हें एक खास उद्देश्य से बनाते हैं. लेकिन ऐसे भी चित्रकार हैं जो एक खास परम्परा का अनुसरण करने की नीयत से उनकी नकल करते हैं. वे सोचते हैं कि ऐसा करना रचनात्मक होता है.

उदाहरण के लिए आप गुलाब की एक झाड़ी और चमेली के पौधे को लीजिए. दोनों एक ही मिट्टी से उगते हैं. लेकिन वे एक दूसरे से इतने फ़र्क होते हैं - क्योंकि वे अलग अलग प्रक्रियाओं से गुज़रते हैं. ये अलग अलग प्रक्रियाएं हैं जिनके कारण उनकी अलग-अलग संरचनाएं बनी हैं. यह प्रकृति है. सब कुछ ऐसे ही होना होता है - नैसर्गिक. उसे अपने आप से होना होता है. संरचनाओं ने अपना आकार ग्रहण करना होता है और संरचना के भीतर एक आधारभूत विकास विद्यमान होता है.

ठीक है, अब ज़रा इस वर्ग को देखो. अब मैं इसके भीतर यह लम्बवत रेखा खींचता हूं और ऊपर दो विकर्ण और नीचे यह ऊर्ध्वाधर रेखा. फिर मैं ऊपर के दाएं कोने पर यह वृत्त बनाता हूं और नीचे एक लहरदार लयबद्ध रेखा. और यहां यह पिरामिड ... यह बस स्पेस का विभाजन भर है. अगर मैं किसी से पूछूं कि यह क्या है तो जवाब मिलेगा कि यह स्पष्टतः एक लैन्डस्केप है. यह पेड़, यह पानी, यह पहाड़ और यह सूरज ... कोई भी सामान्य व्यक्ति ऐसी ही प्रतिक्रिया देगा. और यह सही भी है. क्योंकि यह सब आया कहां से है? स्वयं प्रकृति से. यह सब प्रकृति के भीतर था और वहीं से आया है. और हमारे मस्तिष्क में कुछ विशेष सिद्धान्त होते हैं जो हमें मूलभूत संरचनाओं को एक विशेष तरीके से दिखाते हैं. हम कभी भी इस लम्बवत रेखा को इस तरह हवा में तैरता हुआ नहीं बनाएंगे; हम इसे जमीन को छूता हुआ बनाएंगे. क्योंकि हमें हर समय गुरुत्व का भान रहता है. हम इसे किसी सतह पर धंसा हुआ दिखाएंगे. वह एक आधार का निर्माण करेगा. अगर हम इसे तैरता हुआ दिखाएंगे तो सामान्य व्यक्ति को वह किसी तिलिस्म जैसा दिखाई देगा. मानॊ किसी ने इसे ऊपर से नीचे गिरने दिया और वह गिरी ही नहीं - बस टंगी रही. लोग हैरत में पड़ जाते हैं. लेकिन अगर मैं इसे इस तरह बनाऊं - सतह को छूते हुए तो यह अच्छा दिखने लगेगा, अच्छा महसूस होगा. आपके विचार से ऐसा क्यों होता होगा?

क्योंकि हम इसे धरती पर अपने चारों तरफ़ देखते हैं. क्योंकि यह प्रकृति में पाया जाता है. चूंकि यह उस वास्तविकता से मेल खाता है जिसे हम जानते हैं, हम इसे स्वीकार कर लेते हैं. और यह वास्तविकता होती है जिसे हम छोड़ना नहीं चाहते. ठीक है, अब इसे देखो. यह रहा आदाह. अब बजाए ऐसे ही ऊपर को जा रही किसी रेखा को बनाने के बजाय मैं इसे तोड़ देता हूं. मान लिया मैं इसे यहां से तोड़ दूं और फिर यह आगे चलती रहे, तो कुछ फ़र्क पड़ेगा? पड़ेगा, है न? अब आप मुझे बताइए ये पहली, दूसरी, तीसरी में से कौन सी ड्रॉइंग आपको अच्छी लगी? किसी ऐसे व्यक्ति से पूछिए जो साधारण काम करता हो. वे इस वाली को छांटेंगे क्योंकि यह वास्तविकता के सबसे करीब है. यह प्रकृति के साथ एक सामंजस्य बनाए है. ये वाली जिसके बीच में एक आकृति है हमें इस लिए अपील नहीं करती क्योंकि हमें प्रकृति में किसी भी चीज़ को केन्द्र में देखने की आदत नहीं है. तो हम केन्द्र में किस चीज़ को रखेंगे? देवी-देवताओं को. अब अगर मैं इस रेखा को यहां बना दूं तो यह बेहतर दिखती है न? अगर मैं इस हिस्से को खाली छोड़ दूं तो यह अच्छा नहीं लगेगा. अगर मैं इसे खींच कर और नीचे ले आऊं तो यह और भी बेहतर लगने लगेगी. क्यों? क्योंकि धरती के साथ एक सम्पर्क बनाया जा रहा है. यह धंसा हुआ लगता है सो हम इसे स्वीकार कर लेते हैं. क्या इन्टीरियर डिज़ाइनिंग करते वक्त आप इस बात का खयाल नहीं रखते?हमारे सारे चित्रों में स्पेस का यह मूलभूत विद्यमान रहता है. कुछ मामलों में यह अपने आप आया है, विशुद्ध अन्तर्बोध के कारण. अगर हामरे द्वारा इस्तेमाल की गई आकृतियों के बीच कोई लय नहीं होगी तो देखने वाला अटपटा महसूस करेगा. इसलिए वर्गों का प्रयोग करने में जोख़िम होता है. उनसे काम नहीं चलता. वे गतिहीन दिखने लगते हैं. वृत्त तब भी ठीकठाक होते हैं. और हां जैसे ही आप वृत्त के नीचे एक वर्ग को रखते हैं, वह भी स्वीकार्य हो जाता है. क्योंकि हम उसे किसी वाहन के पहिये और गतिमानता से जोड़कर देखते हैं. अन्ततः सब कुछ प्रकृति से आता है. प्रकृति में क्या नहीं होता? छोटा, बड़ा, सूक्ष्म, विशाल, पतला, मोटा, बाहर निकला हुआ, भीतर धंसा हुआ; और मुलायम और खुरदरा .... पेन्टिंग के भीतर यह टैक्सचर बहुत महवपूर्ण भूमिका निभाता है. दबाव भी बेहद ज़रूरू कारक होता है. जहां भी संवेदना होगी वहां दबाव होगा. मैं आपको एक साधारण सी मिसाल देता हूं. हमारे द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली हर वस्तु के साथ दबाव जुड़ा होता है. अब इस पेन्सिल को देखिए. जब तक मैं दबाव नहीं डालूंगा, सीसे की कोई भी छाप नहीं पड़ेगी. जब तक मैं दबाव डालकर इसे कागज़ पर घिसूंगा नहीं, कागज़ पर कोई छवि नहीं बनेगी. अब जो दाग बनेगा उसके भीतर ही वह टैक्सचर होता है जिसकी हम अभी बात कर रहे थे. आजकल कृत्रिम माध्यमों की मदद से टैक्सचर बनाए जा रहे हैं - बाह्य माध्यमों की मदद से चीज़ें चिपका कर. अगर हम अपने कार्य के सामंजस्य की मदद से ध्यानपूर्वक देखें तो पाएंगे कि टैक्सचर वहां पहले से मौजूद रहता है. वह अपने आप आ जाता है. आपको अपने काम में टैक्सचर पैदा करने के लिए कोई गुप्त तकनीक का इस्तेमाल करने की आवश्यकता नहीं है. आप मुझे बताइए, जब आप तैलरंगों के साथ काम करते हैं तो क्या उनमें टैक्सचर नहीं होता?

उम्मीद एक महत्वपूर्ण तत्व है. उम्मीद और इच्छा. जब तक तीव्र इच्छा नहीं होगी, कुछ पा सकने का संघर्ष अस्तित्व में आ ही नहीं सकता. तब एक शक्ति होगी, आपकी ज़िन्दगी के भीतर एक गतिशीलता. लेकिन उसके लिए एक विशेष तरह की इच्छा चाहिए- सकारात्मक इच्छा.

(जारी, अगली किस्त में समाप्य.)

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