सच्चा प्यार - विस्वावा शिम्बोर्स्का
सच्चा प्यार.
क्या ये सामान्य है?
क्या ये संजीदा है?
क्या ये व्यावहारिक है?
दुनिया को क्या मिलता है
उन दो लोगों से जो
रहते है सिर्फ अपनी ही
बनाई दुनियां में?
अकारण ही खड़े किये हुए
उसी पायदान पर
चुने गए लाखों में से
निरुद्देश्य ही
पर मान बैठे हैं कि
ये तो होना ही था
पर किस खुशी में?
बस यूं ही.
रोशनी कहीं से नहीं उतरती
फिर भी सिर्फ इन्हीं दो पर क्यों
और बाकी पर क्यों नहीं?
क्या ये न्याय का घोर अपमान नहीं?
हां है तो
क्या ये हमारे उन मूल्यों को नहीं तोड़ता
जिन्हें खड़ा किया गया है परिश्रम से?
और क्या ये नैतिकता को गिराता नहीं
पूरी ऊँचाई से?
दोनो पर मैं कहूंगी हां.
देखिये इस युगल की खुशी को
क्या वे इसे थोड़ा छुपा नहीं सकते
अपने दोस्तों के लिये ही सही
चेहरे पर झूठी उदासी नहीं ला सकते?
उनके ठहाकों को सुनिये
ये एक गाली ही है
भाषा जो वे इस्तेमाल करते है
दबी ज़बान में किन्तु स्पष्ट
और उनके बात बेबात के समारोह,अनुष्ठान और
एक दूसरे के लिए
रोज़ाना के क्रिया कलाप
साफ तौर पर ये
समूची मानव जाति की पीठ पीछे
रचा गया षडयंत्र है
मुश्किल है अंदाज़ लगाना कि
कहां तक जायेगा ये सब
अगर लोग चलने लग जाएँ
उनके ही नक़्शे कदम पर
धर्म और कविता
क्या भरोसा कर सकतें हैं?
क्या याद रखा जायेगा?
और क्या छोड़ा?
कौन रहना चाहेगा फिर सीमाओं में?
सच्चा प्यार.
क्या ये सच में
ज़रूरी है?
युक्ति और सहज बोध तो कहते है
दरकिनार करें इसे चुपचाप
जैसे शिखर पर बैठे
करतें हैं एक बदनाम कारनामा.
बिना इसकी मदद के भी
जन्म लेते हैं एकदम श्रेष्ठ बच्चे
ये इतना कम दिखता है कि
लाखों सालों में भी
पृथ्वी को नहीं कर सकता आबाद
कहने दीजिये उन्हें
कि कुछ नहीं होता सच्चे प्यार जैसा
जिन्हें नहीं मिला कभी सच्चा प्यार
उनका ये विश्वास ही उन्हें
आसानी से मरने और
ज़िंदा रहने देगा.
5 comments:
Meri priy kavita!
लाजवाब रचना के प्रस्तुतीकरण पर ...बधाई स्वीकारें
नीरज
बेहद गहन और सशक्त अभिव्यक्ति।
बेहद सशक्त और गंभीर अभिव्यक्ति।
लाजवाब!
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