Wednesday, February 22, 2012

इतिहास मोटी मोटी संख्याओं में गिनता है नरकंकालों को


यास्लो का यातना शिविर

विस्वावा शिम्बोर्स्का

लिखो इसे. लिखो. साधारण स्याही से
साधारण कागज़ पर - उन्हें भोजन नहीं दिया गया
भूख से मरे वे सारे. "सारे! कितने?
यह तो बहुत बड़ा चारागाह है. कितनी घास चाहिए
हरेक के वास्ते?" लिखो -
मैं
नहीं जानती.
इतिहास मोटी मोटी संख्याओं में गिनता है नरकंकालों को.
एक हजार एक रह जाते हैं एक हज़ार
जैसे एक का कोई अस्तित्व ही नहीँ था -
एक काल्पनिक भ्रूण, एक खाली पालना, एक वर्णमाला
जिसे कभी पढ़ा नहीं गया
हँसती, रोटी, बड़ी होती हवा
ख़ालीपन, जो सीढ़ियों से दौड़ता बगीचे में पहुँच जाता है.
कोई नहीं खड़ा कतार में.

हम उस चारागाह में खड़े हैं जहां वह शरीर में तब्दील हुआ था
और झूठे गवाह की तरह चुप खड़ा है चारागाह -
धूपदार, हरा. नजदीक में एक जंगल
जहां चबाने को लकड़ी है और छाल के नीचे पानी -
हर रोज देखे जाने के लिए एक दृश्य
जब तक कि तुम अंधे न हो जाओ. ऊपर एक चिड़िया -
उसके जीवनदाई पंखों की छाया ने छुआ था उनके होंठों को. उनके जबड़े खुले हुए थे
दांत से टकराते थे दांत
रात, हंसिये जैसा चाँद चमकता था आसमान में
और उनकी रोटी केलिए गेहूं काटता था.
काले पड़ चुके देवताओं की दिशा से हाथ आया करते थे -
उनकी उँगलियों में खाली प्याले.
कांटेदार बाड़ के नज़दीक
पलटता है एक आदमी

उनके मुंह मिट्टी से भरे हुए थे और वे गा रहे थे
"एक प्यारा गीत कि कैसे सीधे दिल पर
वार करता है युद्ध." लिखो - कितनी खामोशी से.
"हाँ."

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