Thursday, May 10, 2012

सन् 1950 ईसवी - हरिशंकर परसाई जी की रचनाएँ – ६


बाबू गोपाल चन्द्र बड़े नेता थे, क्योंकि उन्होंने लोगों को समझाया था और लोग समझ भी गये थे कि अगर वे स्वतन्त्रता-संग्राम में दो बार जेल-‘ए क्लास’ में न जाते, तो भारत आज़ाद होता ही नहीं. तारीख़ 3 दिसम्बर 1950 की रात को बाबू गोपाल चन्द्र अपने भवन के तीसरे मंज़िल के सातवें कमरे में तीन फ़ीट ऊँचे पलंग के एक फ़ीट मोटे गद्दे पर करवटें बदल रहे थे. नहीं, किसी के कोमल कटाक्ष से विद्ध नहीं थे वे. वे योजना से पीड़ित थे. उन्होंने हाल ही में क़रीब चार लाख रुपया चन्दा करके स्वतन्त्रता-संग्राम के शहीदों की स्मृति में एक भव्य ‘बलिस्मारक’ का निर्माण करवाया था. वे उसके प्रवेश द्वार पर देश-प्रेम और बलिदान की कोई कविता अंकित करना चाहते थे. उलझन यही थी कि वे पंक्तियाँ किस कवि की हों. स्वतंन्त्रता-संग्राम में स्वयं जेल-यात्रा करनेवाले अनेक कवि थे, जिनकी ओजमय कविताएँ थीं और वे नयी लिखकर दे भी सकते थे. पर वे बाबू गोपाल चन्द्र को पसन्द नहीं थीं. उनमें शक्ति नहीं है, आत्मा का बल नहीं है उनका मत था.

परेशान होकर उन्होंने रखा ग्रन्थ निकाला ‘अकबर बीरबल विनोद’ और पढ़ने लगे एक क़िस्सा : ‘‘...तब अकबर ने जग्गू ढीमर से कहा, ‘देख रे, शहर में जो सब से सुन्दर लड़का हो उसे कल दरबार में लाकर हाज़िर करना, नहीं तो तेरा सिर काट लिया जाएगा.’ बादशाह का हुक़्म सुनकर जग्नू ढीमर चिन्तित हुआ. आख़िर शहर का सबसे सुन्दर लड़का कैसे खोजे. वह घर की परछी में खाट पर बड़ा उदास पड़ा था कि इतने में उसकी स्त्री आयी. उसने पूछा, ‘आज बड़े उदास दीखते हो. कोई बात हो गयी है क्या ?’ जग्गू ने उसे अपनी उलझन बतायी. स्त्री ने कहा, ‘बस, इतनी-सी बात. अरे अपने कल्लू को ले जाओ. ऐसा सुन्दर लड़का शहर-भर में न मिलेगा.’ जग्गू को बात पटी. खुश होकर बोला, ‘बताओ भला ! मेरी अक्ल में इतनी-सी बात नहीं आयी. अपने कल्लू की बराबरी कौन कर सकता है.’ बस, दूसरे दिन कल्लू को दरबार में हाज़िर कर दिया गया. कल्लू खूब काला था. चेहरे पर चेचक के गहरे दाग़ थे. बड़ा-सा पेट, भिचरी-सी आँखें और चपटी नाक.’’

क़िस्सा पढ़कर बाबू गोपाल ठीक जग्गू ढीमर की तरह प्रसन्न हुए. वे एकदम उठे और पुत्र को पुकारा, ‘‘गोबरधन ! सो गया क्या ? ज़रा यहाँ तो आ.’’ गोबरधन दोस्तों के साथ शराब पीकर अभी लौटा था. लड़खड़ाता हुआ आया. गोपाल चन्द्र ने पूछा, ‘‘क्यों रे, तू कविता लिखता है न ?’’ गोबरधन अकबका गया. डरा कि अब डाँट पड़ेगी. बोला, ‘‘नहीं बाबूजी, मैंने वह बुरी लत छोड़ दी है.’’ गोपाल चन्द्र ने समझाया, ‘‘बेटा, डरो मत. सच बताओ. कविता लिखना तो अच्छी बात है.’’ गोबरधन की जान तो आधे रास्ते तक निकल गयी थी, फिर लौट आयी. कहने लगा, ‘‘बाबूजी, पहले दस-पाँच लिखी थीं, पर लोगों ने मेरी प्रतिभा की उपेक्षा की. एक बार कवि-सम्मेलन में सुनाने लगा तो लोगों ने ‘हूट’ कर दिया. तब से मैंने नहीं लिखी.’’ गोपाल चन्द्र ने समझाया, ‘‘बेटा, दुनिया हर ‘जीनियस’ के साथ ऐसा ही सलूक करती है. तेरी गूढ़ कविता को समझ नहीं पाते होंगे, इसलिए हँसते होंगे. तू मुझे कल चार पंक्तियाँ देशभक्ति और बलिदान के सम्बन्ध में लिखकर दे देना.’’ गोबरधन नीचे देखते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, मैंने इन हलके विषयों पर कभी नहीं लिखा. मैं तो प्रेम की कविता लिखता हूँ. जहूरन बाई के बारे में लिखी है, वह दे दूँ ?’’

गोपाल चन्द गरम होते-होते बच गये. बड़े संयम से मीठे स्वर में बोले, ‘‘आज कल बलिदान त्याग और देश-प्रेम का फ़ैशन है. इन्हीं पर लिखना चाहिए ! ग़रीबों की दुर्दशा पर भी लिखने का फ़ैशन चल पड़ा है. तू चाहे तो हर विषय पर लिख सकता है. तू कल शाम तक बलिदान और देश-प्रेम के भावों वाली चार पंक्तियाँ मुझे जोड़कर दे दे. मैं उन्हें राष्ट्र के काम में लानेवाला हूँ.’’ ‘‘कहीं छपेंगी ?’’ गोबरधन ने उत्सुकता से पूछा. ‘‘छपेंगी नहीं खुदेंगी, बलि-स्मारक के प्रवेश द्वार पर.’’ गोपाल चन्द ने कहा. गोबरधन दास को प्रेरणा मिल गयी. उसने दूसरे दिन शाम तक चार पंक्तियाँ जोड़ दीं. गोपाल चन्द ने उन्हें पढ़ा तो हर्ष से उछल पड़े, ‘‘वाह बेटा, तूने तो एक महाकाव्य का सार तत्त्व भर दिया है इन चार पक्तियों में. वाह...गागर में सागर !’’ वे चार पंक्तियाँ तारीख़ 6 सितम्बर को ‘बलि-स्मारक’ के प्रवेश-द्वार पर खुद गयीं. नीचे कवि का नाम अंकित किया गया-गोबरधन दास. सन् 2950 ईसवी-

विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के शोध कक्ष में डॉ. वीनसनन्दन अपने प्रिय छात्र रॉबर्ट मोहन के साथ चर्चा कर रहे थे. इस काल के अन्तरराष्ट्रीय नाम होने लगे. रॉबर्ट मोहन डॉ. वीनसनन्दन के निर्देश में बीसवीं शताब्दी की कविता पर शोध कर रहा था. मोहन बड़ी उत्तेजना में कह रहा था, ‘‘सर, पुरातत्त्व विभाग में ऐसा ‘क्लू’ मिला है कि उस युग के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय कवि का मुझे पता लग गया है. हम लोग बड़े अन्धकार में चल रहे थे. परम्परा ने हमें सब ग़लत जानकारी दी हैं. निराला, पन्त, प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर आदि कवियों के नाम हम तक आ गये हैं परन्तु उस कृतघ्न युग ने अपने सब से महान् राष्ट्रीय कवि को विस्मृत कर दिया. मैं विगत युग को प्रकाशित करनेवाला हूँ.’’

‘‘तुम दम्भी हो.’’ डॉक्टर ने कहा. ‘तो आप मूर्ख हैं.’’ शिष्य ने उत्तर दिया. गुरु-शिष्य सम्बन्ध उस समय इस सीमा तक पहुँच गये थे. गुरु ने बात हँस कर सह ली. फिर बोले, ‘‘रॉबर्ट, मुझे तू पूरी बात तो बता.’’ राबर्ट ने कहा, ‘‘सर, हाल ही में सन् 1950 में निर्मित एक भव्य बलि-स्मारक ज़मीन के अन्दर से खोदा गया है. शिलालेख से मालूम होता है कि वह भारत के स्वतन्त्रता-संग्राम में प्राणोत्सर्ग करनेवाले देश-भक्तों की स्मृति में निर्मित किया गया था. उसके प्रवेश-द्वार पर एक कवि की चार पंक्तियाँ अंकित मिली हैं. वह स्मारक देश में सबसे विशाल था. ऐसा मालूम होता है कि समूचे राष्ट्र ने इनके द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी. उस पर जिस कवि की कविता अंकित की गयी है, वह सबसे महान् कवि रहा होगा. ‘‘क्या नाम है उस कवि का ?’’ डॉक्टर साहब ने पूछा. ‘‘गोबरधनदास’’, मोहन बोला. उसने काग़ज पर उतारी हुई वे पंक्तियाँ डॉक्टर साहब के सामने रख दीं.

डॉक्टर साहब ने प्रसन्न मुद्रा में कहा, ‘‘वाह, तुमने बड़ा काम किया है.’’ रॉर्बट बोला, ‘‘पर अब आगे आपकी मदद चाहिए. इस कवि की केवल चार पंक्तियाँ ही मिली हैं, शेर साहित्य के बारे में क्या लिखा जाये ?’’ डॉक्टर साहब ने कहा, ‘‘यह तो बहुत ही सहज है. लिखो, कि उन का शेष साहित्य कला के प्रवाह में बह गया. उस युग में कवियों में गुट-बन्दियाँ थीं. गोबरधनदास अत्यन्त सरल प्रकृति के, ग़रीब आदमी थे. वे एकान्त साधना किया करते थे. वे किसी गुट में सम्मिलिति नहीं थे. इस लिए उस युग के साहित्यकारों ने उनके साथ बड़ा अन्याय किया. उनकी अवहेलना की गयी, उन्हें कोई प्रकाशक नहीं मिला. उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं. पर अन्य कवियों ने प्रकाशकों से वे पुस्तकें ख़रीद कर जला दीं.’’

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