Saturday, May 12, 2012

बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण - १



बाबा नागार्जुन का यह फक्कड़ संस्मरण कभी सारिका के किसी अंक में मोहन राकेश ने छापा था. एक मित्र ने इसे कबाड़खाने में पोस्ट करने के वास्ते भेजा है.  


बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण - १ 


मुझे तुम पर बेहद गुस्सा आ रहा है, राकेश, तुमने मेरे सामने आईना रख दिया है ! जाने कहाँ से ले आए हो यह आईना ! इस तरह का शीशा तो आज तक कहीं देखा नहीं....!

एक तो यों ही मैं ख़ूबसूरतहूँ, मगर इस मायावी दर्पण ने तो मुझे और भी ख़ूबसूरतबना दिया है ! वो देखो, तुम्हारे इस आईने में मेरी नाक किस क़दर छोटी दिखाई दे रही है ! वो देखो, मेरा दंभी साहित्यकार अंदर-ही-अंदर कितना घबरा उठा है ! उसने आँखें मींच ली हैं, नहीं देखेगा अपने प्रतिरूपों की तरफ़.... कहीं, किसी कुतूहल का शिकार होने पर ही नीलाम का यह अनूठा माल तुम्हारी तक़दीर से चिपक गया होगा-- आईना नहीं है, काल भैरव का डंडा है यह ! पिछले ढाई-तीन हफ़्तों मेरा पीछा किया है शैतान ने. परिव्राजकाचार्य, सिद्ध-शिरोमणि, महामहिम श्री श्री 108 श्रीमान नागा बाबा ने तुम्हारे इस जादुई दूत को कई दफ़े बरगलाना चाहा, किंतु यह तो सिंहासन बत्तीसी और बैताल पचीसी के चरित-नायकों से कहीं अधिक जिद्दी, कहीं अधिक बलवान, कहीं अधिक विनम्र और कहीं अधिक टैक्टफुल निकला !

परसों शाम को मैं नरीमन प्वाइंट तक चला गया. यों ही. समुद्र खूब तरंगित नहीं था, पूस की पूर्णिमा कब पड़ती है ?... निर्णय सागरवाला छोटा पंचांग लेकर रखा तो था, किताबों-पत्रिकाओं के ढेर में जाने कहां खो गया! बंबई के अति आधुनिक कैलेंडरों पर खीज उठी, साले पूर्णिमा तक का पता नहीं चलने देते! बंबई न हुआ, लंदन-न्यूयार्क हो गया! हाय रे कलकत्ता... पूर्णिमा कब पड़ती है ?

समुद्र आज खूब तरंगित नहीं है. क्यों नहीं है आज समुद्र खूब तरंगित? आसमान की ओर निग़ाहें उठाऊँ?... अधूरा चाँद कच्ची शाम का भास्वर फीकापन, खुला, नीला अंतरिक्ष...आज एकादशी या द्वादशी होगी, तीन-चार रोज़ बाद भरा-पूरा चाँद दिखेगा। तरंगित समुद्र देखना हो, तो तीन-चार दिन बाद आओ ।

सेठ, नारियल पियेगा.

नहीं पियेगा.

आठ आना, सेठ...

नहीं.

पैंतालिस नवा पैसा, सेठ...

तेरा दिमाग़ है कि कद्दू है? सेठ, सेठ, सेठ, सेठ, सेठ, सेठ सेट्ठिस! सेट्ठुस! सेट्ठीस कहीं का !’

नारियल नईं पियेंगा तो नईं पियेंगा, हमको गाली क्यों देंगा, सेठ?’

अब उस दक्षिण भारतीय फेरीवाले पर मेरा हृदय द्रवित होने लगा. लगा कि मैंने उसे नाहक अपने आक्रोश का निशाना बना लिया, ज़हर में बुझे हुए इंगित और आक्रमण की मुद्राएं तो खुरदरे शब्दों में कई गुना अधिक पैनापन भर देते हैं! क्या कसूर था ग़रीब का? उसने तुम्हें सेठकहकर पुकारा, यही कि और कुछ? लो, अब तुम भी उसे सेठकहकर पुकारो. देखो, वह तो बिलकुल बदल गया! उजले-धुले दाँतों की दूधिया झलक उसके श्यामल मुखमंडल को दिव्य संकेतों का एलबम बना देगी. अब एक नारियल तो तुम्हें पी ही जाना होगा!

इशारे से मैंने नारियल ले लिया और खड़े-खड़े ही पीने लगा. दो घूंट लेकर गरदन ऊपर हटा ली और फिर से नारियल के अंदर झाँका... अरे, यहाँ तो अपनी समूची नाक ग़ायब है!... तो राकेशवाला आईना आसानी से पिंड नहीं छोड़ेगा मेरा ! बच्चू, जाओगे कहाँ. इस मुग़ालते में न रहना कि बाबा हो, औघड़ हो, बावन घाट का पानी पी चुके हो! यह कोई मामूली खिलवाड़ नहीं है, भिड़ंत है दो अवधूतों की. एक भी पीछे हटने का नाम नहीं लेगा, दोनों सांडों के चारों सींग ठूंठ हो जाएँगे. दुनिया तालियाँ पीटेगी और तमाशा देखती रहेगी. अभी तो ख़ैर नाक ही ग़ायब दीखती है, आगे धड़-ही-धड़ शेष नज़र आएगा. हो सकता है कि आदिकाव्य (रामायण) के मुंड-विहीन उस अभिशप्त राक्षस (कबंध) की तरह आगे चलकर तुम भी किसी अवतारी महामानव की प्रतीक्षा में सदियों तक यों ही डोलते फिरो!

एक ही सांस में बाक़ी पानी पीकर मैंने नारियल का खोखा समुद्र में फेंक दिया, तो फेरीवाला बोला, अंदर का मलाई नई खाया, सेठ ?

फिर सेठ-सेठ ! अरे भाई, सभी को सेठ मत कहा करो...

क्या कहेंगा?

भाई कहो, कोई बुरा नहीं मानेगा.

नईं साब, भाई कहने से बी नईं चलता. अबी उस रोज़ भाई कहके बुलाया तो दो सेठों ने हमको अँग्रेज़ी में गाली दिया...

कारवाला रहा होगा!

हां, सा, बहुत बड़ी कार था-- गुलाबी रंग की ।

पाँच नए पैसे उसने तो लौटा ही दिए थे अठन्नी में से, मैंने नहीं लिए, तो भरी-पूरी मुसकान उसके चेहरे पर खेलने लगी.



(जारी)