ध्रुव-पद या ध्रुपद हिन्दुस्तानी
संगीत की बेहद पुरानी शैली रही आयी है. यह धीमे-धीमे विकसित होने वाली गायकी है,
लगभग एक फूल की तरह खिलती हुई. आप झटके से देखेंगें, तो आप फूल को विकसता हुआ नहीं
देख पायेंगें. धीरे-धीरे ध्रुपद बढ़ता है, जैसे पुरानी किसी शानदार शराब का नशा
चढ़ता है. आज के वक्त में ध्रुपद सुनना उस दुनिया को याद करना भी है, जब जिन्दगी
में इतनी आपा-धापी न थी. वही जिसके बिना आज आपको-हमें खाली सा लगा करे.
माना जाता
है कि ध्रुपद लोक संगीत से विकसित हुआ गायन है. रूद्रवीणा और पखावज/मृदंग ही इस
गायकी के वाद्य हैं. मुग़ल राजाओं के वक्त में विकसित ख़याल गायकी से ध्रुपद मुख्यधारा
में उस तरह नहीं रह गया. माना जाता है कि संगीत सम्राट तानसेन निष्णात ध्रुपदिये
थे. उनके संगीत की गमक आपको इस दोहे में मिल जायेगी- भलो भयो विधि ना दियो शेषनाग
को कान/ धरा मेरु सब गूंजते तानसेन की तान. हमारे समय में इस शैली के गायन के कुछेक घराने/उस्ताद
हमारी इस विरासत को बखूबी सम्भाले हुए हैं, जिनमें डागर परिवार प्रमुख है. उनके
अलावा पंडित उदय भवालकर, पंडित ऋत्विक सान्याल, गुंदेचा बंधु आदि गायकों ने भी इस
परम्परा में बेहतरीन नगीने जोड़े हैं.
इस ध्रुपद परम्परा के अद्भुत वारिस पंडित उदय
भवालकर के स्वर में ये बंदिशें-
झुकत-झूमत अलबेली नार चलि आवत
दोनों करतार तुम राज साज के
जगत जननी ज्वालामुखी
1 comment:
शानदार मृत्युंजय! जानदार ध्रुपद! तुम ने कबाड़खाने को और सुरीला बना दिया है भाई!
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