Thursday, November 8, 2012

इतनी भयानक यह मरणशीलता – शुभा का गद्य – नौ


अधूरी बातें – छः

-शुभा

हालाँकि पहले की तरह आजकल एक-दूसरे की भावनाओं का ख़्याल नहीं रखा जाता है लेकिन भावनाओं का उपभोग बड़ी अबाघ गति से चल रहा है. क्योंकि भावनाएं एक कमर्शियल क्रॉपमें बदल चुकी हैं. अगर मीडिया पर नज़र डालें फ़िल्में, सीरियल, गीत और ग़ज़ल यहाँ तक कि विज्ञापन भी भावनाओं का उपभोक्ता सामग्री के रूप में बड़े पैमाने पर मैन्यूफ़़ैक्चर कर रहे हैं. दोस्ती, प्यार, वफ़़ादारी, ममता, आदर आदि भावनाएँ एक पारिवारिकऔर सामाजिकड्रामे में पिरोकर पेश की जा रही हैं. यहाँ तक कि सामाजिक असुरक्षा और हिंसा को भी भावनाओं की चाशनी में डुबोकर शोरूमों में सजा दिया गया है. स्त्री-पुरुष संबंघों की अंतरंगता और भावनाओं को बड़े नंगे रूप में उपभोक्ता सामग्री में बदला जा चुका है. तैयार खाने की तरह, तैयार पोशाक की तरह ख़रीदने और उपभोग करने के लिए भावनाओं के रंग-बिरंगे पैकेज बाज़ार में मौजूद हैं.

भावनाओं के स्रोत भावनाओं से कट चुके हैं और मनुष्य को अपने मनुष्यत्व से अजनबी बनाने की प्रक्रियाएँ चल रही हैं. उपभोग सामग्री के रूप में भावनाएं ख़ुद अपने स्रोतों को विकृत कर रही हैं. भावनाओं के स्रोत क्या हैं? मनुष्य की भावनाएं उसके सामाजिक रिश्तों से, दूसरे मनुष्यों से उसके सम्बन्घों से निकलती हैं. यह बुनियादी सम्बन्घ अगर विकृत हो रहा है तो जीवन मूल्य भी विकृत ही पैदा होते हैं. मसलन आजकल फिल्मों में जिस दोस्ती या प्रेम की धूम है वह एक तरह की सिद्धान्तहीनता और जो मेरा है वह ठीक है’ पर टिकी है. दोस्तीके लिए किसी का हत्यारा या ब्लैकमेलर बन जाना उचित माना जाता है. जबकि अपने आपमें इस दोस्तीका आघार किसी भी जांच परख से परे है. प्रेम और इन्तज़ार और आँसू और दिल टूटने की शिकायतें किसी जीवन मूल्य पर आघारित नहीं है. इनका रोना रोने वाले गीत और ग़ज़ल किसी सामाजिक रिश्ते को, उसके किसी संकट को, किसी पेचीदगी को, उसमें निहित किसी त्रासदी को, यहाँ तक कि किसी मनुष्य की उपस्थिति को प्रतिबिम्बित नहीं करते. ये इस काम से बरी हो चुके हैं क्योंकि यह विशुद्ध उपभोग सामग्री है जो उपभोग के बाद तुरन्त ख़त्म हो जाते हैं - एक आइसक्रीम के कप, एक साबुन या एक लोशन की तरह. यह मरणशीलता इतनी भयानक तरीक़े से चीज़ों का स्वभाव बन गई है कि मानो समय की कोई श्रृंखला नहीं रही है. वह क्षणों में टूट चुका है और हर क्षण एक दूसरे से पूरी तरह विरक्त है, यही वजह है कि जिस भावना का जिस समय उपभोग किया जा रहा है वह भावना उसी समय समाप्त भी होती जाती है. उपभोग सामग्री ख़त्म होती है और उसका उपभोक्ता भी. न नायक और नायिकाएं अब जन्म लेती हैं और न उन्हें खोजने वाली कोई आत्मा अधीर होती है.

(‘जलसा’ पत्रिका से साभार)

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