गहरा सूराख़
-शिवप्रसाद जोशी
पाशविक हमले की शिकार लड़की ने आख़िर देश के बाहर दम तोड़ दिया.
कौन जानता है कि वो जब सिंगापुर ले जाई गई किस हाल में थी. संस्कृति और धर्म और
समाज और संस्कृति और शोर की विविधता वाले देश की अतिनाटकीयता वाले दौर में उस
लड़की ने कई दिनों की अदम्य लड़ाई के बाद अपने आसपास मंडरा रही मृत्यु को अपने पास
आख़िरकार आने दिया. वो आखिर टूटीफूटी आंतों और दिमाग से लेकर न जाने कहां कहां जमा
खून के थक्कों के साथ आखिर कितना ज़िंदा रहती. वो आख़िर चली गई. हमारा समाज इस तरह
सबको बेदख़ल करता रहता है. स्त्री जाति को उसने आख़िर कब नहीं ठिकाने लगाना चाहा.
वे आख़िर कहां से इतनी सारी फिर से आ जाती हैं, घृणाएं
और बर्बरताएं इतिहास और भूगोल में भेस बदलकर आती हैं और पूछती रहती हैं कहां हैं
स्त्रियां, कहां हैं दबे कुचले ग़रीब शोषित, वे जो जन कहलाते.
भारत की सत्ता राजनीति में ये भी शायद दौर है कि अकर्मण्यता और
नाइंसाफ़ियां सरेआम छाई हुई हैं और उन्हें हटाने का कोई जज़्बा दिखता है न कोई
हरकत. बस धूल ही धूल है और शोर ही शोर. और बुज़दिली और नज़रिए की तंगी,
कैसे घिनौने ढंग से आ जाती है. बार बार मारा गया उसे. ख़ून के आदी
हो गए हैं. पाशविक हरकतों का भूमंडलीकरण हुआ है. और आंदोलनों का भी. कैंडलवाद की
झपझपी इसे उकसाती है. संवेदनाएं सहसा बौछार की तरह आती है और ग़ायब हो जाती हैं.
गीले कपड़ों की वीरता सौंपकर. वरना ऐसा होना था.
आज़ाद भारत में आखिर ये कौनसेवें नंबर की स्त्री थी जिसे नरपिशाचों
ने अपनी हवस का शिकार बनाया. कौनसींवी स्त्री थी वह. किसकी बेटी किसकी दोस्त. क्या
हमारा समाज और हमारे समाज की बर्बर क़ौमों को पता है कि आखिर कितनी स्त्रियों को
उन्होंने अपना शिकार बना डाला है. आज़ाद भारत के तिरंगे की फड़फड़ाहट में कितना
गुमान है और कितनी बेचैनियां और चीत्कार. क्या कोई जानता है‘जनगणमन में भला कौन वो भारत भाग्य विधाता है.’
आज़ादी हासिल होने का जश्न मनाया तो कितने घरों में मातम के साथ.
अब हम नए साल में जाएंगें. मातम मनाने की रस्में निभाना हम नहीं भूले हैं. मृत्यु
और शोक को हम जुलूस बना देंगे. विभाजन में हमने किनको मारा. किन्हें लूटा बरबाद
किया और कितनी अस्मतें उजाड़ीं. हमने इस देश के किस हिस्से में कहां कहां और कब कब
शिकार नहीं किए. कितना रौंदा हमने स्त्रियों को, उनके स्वप्नों, इच्छाओं, संघर्षों
और वासनाओं को.
आप इतने शोकातुर क्यों होने लगे. कब से. क्यों जैसे चिंहुक कर बैठ
गए जैसे आपकी आत्मा में ही किसी ने खौलता पानी डाल दिया हो. आप क्यों बौखला गए से
दिख रहे हैं इतना हिंदुस्तान के इतने सारे विवेकी, विनम्र और समझदार लोग. क्या आपके भीतर का पशु दुबक कर और अंदर कहीं जा
छिपा है या किला तोड़कर निकल भागा है. आप क्यों डरे हुए हैं.
आप कश्मीर नहीं गए, गुजरात
नहीं गए, बिहार, उत्तर प्रदेश या
मध्यप्रदेश या कर्नाटक नहीं गए, 28 राज्यों और पांच केंद्र
शासित प्रदेशों में नहीं गए. आप अपनी जान बचाते हुए कब भागे थे, कब आपके साथ घिसटती हुई आपकी पत्नी आपकी बेटी आपकी मां चली जा रही थी. क्या
आप उस ट्रेन में बैठे थे जिसमें केरल की वो नर्स सफ़र कर रही थी जो छुट्टियां
बिताने घर जा रही थी और उसे एक पिशाच ने उसके कंपार्टमेंट में धर दबोचा था और फिर
ट्रेन से फेंक दिया था. क्या वो मंज़र आपके पास ही हुआ था जब बर्बरों ने तलवार से
एक स्त्री का पेट काटा था. औरतों को कुचला जा रहा था. दिव्य कहे जाने वाले गुजरात
के उन अंधेरों में कभी आप निकले हैं. आप आख़िर किस बात पर इतना थर्रा रहे हैं.
आप नए साल की तैयारी कीजिए. गला फाड़फाड़कर नारे लगाकर कैंडल उठाकर
आप थके होंगे. ट्वीट और फ़ेसबुक पर आपकी आंखें पथरा गई होंगी. एसएमएस कीजिए और
चलिए नए साल में दाखिल हुआ जाए. बलात्कार एक राष्ट्रीय विषय बना है ये आपके जुलूस
और हंगामे और सरकार की महान चिंता का फल है. अपनी फ़ोटो और अपना दर्द देखिए और ये
फल अपने विवेक की टोकरी में रख दीजिए. वो अब तक कितनी खाली थी. उसमें जाले लग गए
थे.
1947, 1984, 1992, 2002, 2010, 2012. उफ़ कैसी
शर्म है कैसी अग्नि. तपता हुआ शरीर और ज्वालाएं. चींटियां रेंगती हुई शरीर में. एक
बड़े झपट्टे में सुन्न दिमाग़. एक बहुत गहरा सूराख़. कैसे भरें क्या करें. उसी में
गिर जाएं. 2013 में ऐसे ही जाना होगा. बचीखुची आत्मा और बचाखुचा साहस और शर्मिंदगी
और गहरी ले जाएं.
2 comments:
बेहद दुख और बेचैनी में लिखी गईं पंक्तियां कड़वी सच्चाइयां बयान करती हैं। `न समझे हैं, न समझेंगे वो...`
साल का अन्त तो अनन्त तक डुबो गया।
Post a Comment