जे.एन.यू. में हिंदी
- - केदारनाथ सिंह
जी,
यही मेरा घर है
और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर
रखकर सोई थी
वह पहली कुल्हाड़ी
जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया
था
इस पत्थर से आज भी
एक पसीने की गंध आती है
जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर
की
गंध है--
जिससे खुराक मिलती है
मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को
इस घर से सटे हुए
बहुत-से घर हैं
जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से
पत्थर
और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह
कि हर घर अपने में बंद
अपने में खुला
पर बगल के घर में अगर पकता है भात
तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है
मेरे किचन में
मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक
साफ़ सुनाई पड़ती है
और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ
अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर
इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी
कि यहाँ किसी का नम्बर
किसी को याद नहीं !
विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ
फूल भी एक सवाल है
और बिच्छू भी एक सवाल
मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा
आदमी
जिसके कंधे पर अंगौछा था
और हाथ में एक गठरी
‘अंगौछा’- इस शब्द से
लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ
और वह भी जे. एन. यू. में !
वह
परेशान-सा आदमी
शायद
किसी घर का नम्बर खोज रहा था
और
मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद
वह
हो गया था निराश
और
लौट रहा था धीरे-धीरे
ज्ञान
की इस नगरी में
उसका
इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा
जैसे
मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप्
कुछ
देर मैंने उसका सामना किया
और
जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर--
‘विद्वान
लोगो ! दरवाज़ा खोलो
वह
जा रहा है
कुछ
पूछना चाहता था
कुछ
जानना चाहता था वह
रोको..
उस अंगौछे वाले आदमी को रोको...
और
यह तो बाद में मैंने जाना
उसके
चले जाने के काफ़ी देर बाद
कि
जिस समय मैं चिल्ला रहा था
असल
में मैं चुप था
जैसे
सब चुप थे
और
मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी
जो मेरे
परिसर में अकेले चिल्ला रही थी
3 comments:
नाम में ही वही पुकार हो रही है।
जे एन यू की ज़मीन बवेजा प्रापर्टी डीलर को बेच कर वहाँ कलोनियाँ और मकान बनवाने चाहिएँ । कई कलोनियाँ कट सकती हैं वहाँ ।
कविता पढ़वाने के लिये आभार।
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