Thursday, July 25, 2013

मनोहारी सिंह का साक्षात्कार – ५

(पिछली क़िस्त से आगे)


आप एस.डी. बर्मन के भी बहुत नज़दीकी थे. बर्मनदा की कम्पोजिंग की शैली कैसी थी? पंचम की शैली पर उनका कितना प्रभाव था?

दोनों की शैलियाँ बहुत अलग थीं. बर्मनदा पर लोकसंगीत और प्रकृति का गहरा असर था; हालांकि उन्होंने प्रकृति से प्रेरित अपने संगीत को नए रंग देने की कोशिश की. एक दफ़ा प्राकृतिक सूत बनाने में निकलने वाली आवाज़ से वे इतने प्रभावित हुए कि वे उन्हीं आवाज़ों को अपनी गीतों में इस्तेमाल करना चाहते थे.

पंचम की साउंड रेकॉर्डिंग की शानदार क्वालिटी का राज़ क्या था?

पंचम की साउंड रेकॉर्डिंग का गहरा ज्ञान था. वे सारे सेशंस में बैठा करते थे और बैलेंसिंग का काम भी किया करते थे. वांछित साउंड क्वालिटी पाने के लिए वे बहुत ज़्यादा मशक्कत करते थे.

सलिलदा और उनकी कम्पोज़ीशन्स के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

सलिलदा भी एक महान आदमी थे. उन्हें संगीत का इतना ज्ञान था और इतनी ज़्यादा सूचनाएं. वे बहुत पढ़े-लिखे थे – दरअसल वे डबल ग्रेजुएट थे. वे बहुत उम्दा कहानीकार भी थी और मैं समझता हूँ उन्हें अपनी प्रतिभा के लिए कहीं ज़्यादा पहचान  मिलनी चाहिए थी ...

ओ.पी. नैयर के साथ भी आप लम्बे समय तक रहे. इस की शुरुआत कब और कैसे हुई?

अरेंजर सेबेस्टियन ने मुझे शंकर-जयकिशन की ‘जंगली’ के टाइटिल म्यूजिक और ‘प्रोफ़ेसर’ के लोकप्रिय गीत “आवाज़ देके हमें तुम बुलाओ” के लिए बजाने का प्रस्ताव दिया. हमारी गहरी छनती थी और मेरी वादन शैली के वे बड़े फैन थे. १९६० के दशक के शुरू में उन्होंने ही मुझे नैयर साहब से मिलवाया था.

एक कम्पोज़र के तौर पर आप नैयर साहब को कैसे देखते हैं?

नैयर साहब का संगीत सबसे ऊंचे रूमानी मेयार का था. हालांकि उनके संगीत में पंजाबी रंग खासा था पर मूलतः वह भारतीय संगीत था. उनका संगीत युवाओं के लिए तैयार किया गया था और वह हमेशा जवान बना रहेगा.
नैयर साहब अपने संगीतकारों से कितना प्यार करते थे, इस बारे में कई किस्से प्रचलित हैं. क्या सचमुच ऐसा था?

हाँ. वे सबके सामने अपने संगीतकारों की तारीफ़ करते हुए कहते थे “ये मेरे गहने हैं”. यही कोई तीन साल पहले उन्होंने मंच पर मुझे और केसरी लार्ड को याद करते हुए कहा “ये वो लोग हैं जिन्होंने मेरे संगीत को सजाया.” उनके मन में संगीतकारों के लिए गहरी संवेदना थी और वे हमेशा मानते थे कि उनकी सफलता के लिए वे बेहद अहम हैं.

रोशन और मदनमोहन जैसे कम्पोज़रों के साथ काम करने की आपकी क्या यादें हैं?

रोशन और मदनमोहन के साथ मैंने कई गानों में बजाया. दोनों की संगीत-शैलियाँ अलहदा थीं. दोनों ने उच्च कोटि का विशुद्ध भारतीय संगीत दिया. दोनों अपनी रचनाओं में ख़ास लेकिन छोटी छोटी चीज़ों को जगह देते थे जो उनके संगीत को परिभाषित करती थीं.

आपने रवि और चित्रगुप्त के साथ भी काम किया ...

इनके साथ भी मैंने ख़ूब काम किया. ‘वक़्त’ का गाना “आगे भी जाने न तू” उन दिनों खासा लोकप्रिय हुआ था. मैंने एन. दत्ता के लिए भी संगीत अरेंज किया था हालांकि मुझे किसी फ़िल्म का नाम याद नहीं आ रहा.


(जारी, अगली क़िस्त में समाप्य)     

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