Wednesday, July 24, 2013

मनोहारी सिंह का साक्षात्कार – ४


(पिछली क़िस्त से आगे)

बाद में आपने बासुदा से साथ टीम बनाई और ‘सबसे बड़ा रुपैय्या’ और ‘चटपटी’ जैसी फिल्मों का संगीत किया. एक कम्पोज़र, अरेंजर और असिस्टेंट म्यूजिक डायरेक्टर के बीच क्या अंतर है?

कम्पोजर गाने का पूरा स्केच तैयार करता है; यानी उसका पूरा कैनवास. असिस्टेंट्स अपने अपने हिस्से की मदद मुहैय्या करते हैं. संगीत निर्माण के वक़्त जो सिटिंग टीम होती है, उसका वे हिस्सा होते हैं. अरेंजर का काम होता है नोटेशन लिखना और गाने को एक संरचना देने के लिए ज़रूरी तत्व जोड़ना. आप कह सकते हैं कि वह गीत का सज्जाकार होता है. प्रभावी रूप से सारे के सारे किसी रचनात्मक काम में लगे रहते हैं और सभी को कम्पोज़र कहा जा सकता है.

आर.डी. बर्मन के साथ आपका लम्बा जुड़ाव क्या उनकी पहली फ़िल्म ‘छोटे नवाब’ से शुरू हुआ था?

नहीं, ‘छोटे नवाब’ में मैंने बांसुरी और सैक्सोफोन बजाये थे. लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल उसके अरेंजर थे. पंचम की दूसरी फ़िल्म ‘भूत बंगला’ से मैंने अरेंजर के तौर पर अपनी पारी शुरू की. हालांकि लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल फ़िल्म के आधिकारिक अरेंजर थे, मैंने टाइटिल सांग के लिए संगीत अरेंज किया था.

पंचम के साथ आपकी ट्यूनिंग इतनी ख़ास किस वजह से बन सकी?

पंचम मुझे एक प्रतिभावान और जानकार संगीतकार मानते थे. मुझे पा लेने की उन्हें ख़ुशी थी. और हमने क्या बेहतरीन टीम तैयार की – मारुती राव, बासु, मैं, केसरी लार्ड, भूपिंदर सिंह, देवीचंद चौहान, भानु गुप्ता, टोनी वाज़, होमी मुल्लन, सुनील कौशिक, रमेश अय्यर, रंजीत गाजमेर और बाकी. अधिकतर सिटिंग्स में हम सब साथ होते थे.  

पंचम गाने कैसे बनाते थे?

गानों की सिचुएशन्स के लिए हम सिटिंग्स किया करते थे. निर्देशक सिचुएशन समझा दिया करते थे – रोमांस, डांस, कैबरे वगैरह; हम ज़रुरत के हिसाब से संगीत तैयार करते थे. यह मेरे एच.एम.वी.. सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा और नाईट-क्लबों में हासिल किया गया अनुभव था कि मैं अलग अलग सिचुएशन के गाने के लिए कुछ न कुछ अर्थपूर्ण तत्व जोड़ पाता था. जाने-माने संगीतकार और अरेंजर केसरी लार्ड आज भी याद करते हैं कि नाईट-क्लबों का मेरा लम्बा अनुभव किस तरह अरेंजिंग के मेरे कौशल को, खासतौर पर ब्रास सैक्शन में, पैना बनाता था.    

पंचम की कम्पोजीशन की शैली के बारे में आप क्या सोचते हैं? एक कम्पोज़र के तौर पर उनकी क्या ताकतें थीं?

पंचम एक अच्छे प्रतिभावान कम्पोज़र थे. उन्होंने कितनी महान धुनें बनाईं. उनके भीतर एक ख़ास कम्पोजिंग प्रतिभा थी. वे अपनी गानों में हमेशा कुछ नया करना चाहते थे. वे सुनिश्चित करते थे कि उनके गानों में उनका ट्रेडमार्क पंचम “पंच” होना चाहिए. मिसाल के लिए मादल के एक नोट का इस्तेमाल या गाने में सीटी का एक टुकड़ा या या अलग अलग धुनों के पैटर्नों को आपस में गूंथ देना एक गाने के लिए तीन या चार तबले ... ये सब उनके आइडिया होते थे!  साथ ही उनकी धुनें भी शानदार होती थी. मुझे कहना नहीं चाहिए पर कुछ कम्पोजर पंचम पर ‘वेस्टर्न’ होने का ग़लत ठप्पा लगाते थे जो ठीक नहीं था. पूरी तरह से भारतीय गीत रचने में भी उन्हें वैसी ही महारत हासिल थी. आप ‘अमर प्रेम’, ‘आंधी’ या ‘महबूबा’ (“मेरे नैना सावन भादों”) जैसी फिल्मों के गीत देखिये. यह कहने का किसी को हक़ नहीं कि वे ‘वेस्टर्न’ कम्पोज़र थे. आज सारी इंडस्ट्री उनसे प्रेरणा लेती है. यह दिखाता है कि वे अपने समय से बीस साल आगे के आदमी थे. और सबसे बड़ी बात यह है कि उनके गाने आज भी वैसे ही ताज़गीभरे हैं.    

 (जारी)     


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