कल आपने गुलज़ार की बनाई डॉक्यूमेंट्री 'एक आकार' देखी थी. इसी सिलसिले में एस. सुखदेव के बारे में थोड़ी और जानकारियाँ पेश करता हूँ -
एक अक्टूबर १९३३ को देहरादून में जन्मे सुखदेव सिंह संधू उर्फ़ एस. सुखदेव ने
कुल ४५ वर्ष का छोटा सा जीवन जिया. १ मार्च १९७९ को दिल्ली में हुई अपनी मृत्यु से
पहले वे डॉक्यूमेंट्री निर्माण की विधा में अपने लिए एक अलग जगह बना चुके थे.
१९६० और १९७० के दशक में सुखदेव ने कुल तैंतीस डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाईं.
उनकी पहली डॉक्यूमेंट्री थी ‘वज़ीर द कागज़ी’ (१९५८). ‘सेंट एंड द पेजेन्ट’ (१९६०), ‘इण्डिया
१९६७’ (१९६७), ‘खिलौनेवाला’ (१९७१), ‘नाइन मंथ्स टू फ्रीडम’ (१९७२) और ‘न्यू
वर्ल्ड ऑफ़ पावर’ (१९७७) उनके अन्य उल्लेखनीय कार्य रहे. उन्होंने शशि कपूर और
शर्मीला टैगोर को लेकर ‘माई लव’ नाम की हिन्दी फ़िल्म भी बनाई.
उन दिनों सिनेमा हॉलों में फिल्मों से पहले डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में दिखाई जाती
थीं क्योंकि देश के नीति-निर्माताओं को इन फिल्मों की मास-अपील पर खासा भरोसा था.
इस लिहाज़ से सुखदेव सिंह संधू का काम बेहद महत्वपूर्ण बन जाता है. फ़िल्म समीक्षक
बिक्रम सिंह के अनुसार सुखदेव सिंह संधू के काम का स्तर १९६० के पहले देखने को
नहीं मिला था.
पॉल ज़िल्स
के साथ अप्रेन्टिसशिप करने के बाद वे बाद में उन्हीं के सहायक बन गए. लगातार अपने
माध्यम पर काम करते रहे और देश के सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र निर्देशकों में शुमार हुए. एक घंटे की ‘इण्डिया १९६७’उनकी सबसे
लम्बी फ़िल्म थी. बांग्लादेश की आजादी पर बनी ‘नाइन मंथ्स टू फ्रीडम’ उनके करियर का
सबसे अहम मरहला लेकर आई. ‘आफ्टर एक्लिप्स’ में उन्होंने एक क़ैदी की भूमिका भी
निभाई. उनकी ‘इण्डिया १९६७’ के प्रशंसकों में सत्यजित राय भी शामिल थे. उन्होंने
लिखा है – “मुझे कई छवियों की वजह से इंडिया १९६७ अच्छी लगती है – जैसे
गर्म रेत पर रेंगते काले गुबरैले, पार्क की गयी साइकिल पर कुत्ते की पेशाब और मैले-कुचैले
संगीतकार की नाक के कोने पर बना पसीने का एक मोती.”
अफ़सोस की बात है कि इस बड़े कलाकार के बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं होती. तमाम स्रोतों में खोजने के बाद भी मुझे उनकी एक तस्वीर तक नहीं मिल सकी. अब कुछ मित्रों से अनुरोध किया है कि किन्हीं आर्काइव्ज़ में खोजबीन करें. देखिये.
(चित्र - 'नाइन मंथ्स टू फ्रीडम' का एक दृश्य)
1 comment:
'सुखदेव: अ फ़िल्ममेकर' नाम की किताब मुझे पिछले हफ़्ते नेशनल फ़िल्म आर्काइव्स की बुकस्टॉल से मिली है. इस किताब के कवर पर सुखदेव का बहुत खूबसूरत फ़ोटो है और उनकी ज़िंदगी से जुड़े कई अनजाने पहलू. मैंने अमिता मलिक, गुलज़ार और गौतम घोष से उनके बारे में बहुत सुना था जिस तरफ़ कुछ और खिड़कियां खोलती है ये किताब. सुखदेव बहुत इंपॉर्टेंट फ़िल्ममेकर थे.
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