(पिछली क़िस्त से आगे)
ज़ाहिर है यह सारा लोगों पर
निर्भर करता है पर कभी कभी मुझे किसी जगह डाइनिंग टेबल को रोशन करने के लिए
आमंत्रित किया जाता है जैसे रात के खाने के बाद पियानो बजाने वाला एक संगीतकार
आमंत्रित होता है, और मैं जानती हूँ मुझे मेरे लिए नहीं बुलाया गया. आप सिर्फ एक
गहना भर होते हैं.
जब मैं पांच साल की थी, मैंने
एक अभिनेत्री बनने का सपना देखना शुरू कर दिया था. मुझे नाटक करने में मज़ा आता था.
मुझे अपने आसपास का संसार उसकी बेहिसी की वजह से पसंद नहीं था लेकिन मैं घर-घर
खेला करती थी. यह अपने लिए अपनी सरहदें बना लेने जैसा था. वह घर से बाहर निकल जाया
करती, आप अपने लिए सिचुएशंस बनाते और दिखावा कर सकते थे, और अगर कोई दूसरा बच्चा
कल्पना करने में उतना तेज़ नहीं भी होता तो आप उस से कह सकते थे “अरे देखो अगर तुम
फलां होते और मैं फलां तो कितना मज़ा आता न!” और तब वे कहते “हाँ हाँ” और मेरा जवाब
होता “तो ये होगा घोड़ा और ये ...” वह खेल होता था, खिलंदरी. जब मैंने सुना कि इसे
अभिनय करना कहते हैं तो मैंने सोच लिया मुझे यही करना है. आप खेल सकते हैं. लेकिन
तब आप बड़े होते हैं और खेलने के बारे में जानना शुरू करते हैं, लोग खेलने को आपके
वास्ते बहुत मुश्किल बना देते हैं. मुझे गोद लेने वाले कुछ परिवार मुझे घर से बाहर
भेजने की नीयत से फ़िल्में देखने भेजा करते थे और दिन-रात मैं वहीं बैठी रहती. वहां
सामने, उस विशाल परदे के आगे एक नन्हा बच्चा बेहद अकेला होता है. और यह मुझे बहुत
पसंद था. वहां गतिमान हरेक चीज़ और हरेक घटना को देखना मुझे अच्छा लगता था और हाँ
खाने को पॉपकॉर्न भी नहीं होते थे.
जब मैं ग्यारह की थी, सारा
संसार जैसे मुझ पर घिर आया. मुझे बस ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं संसार के बाहर खडी थी.
अचानक हरेक चीज़ खुल सी गयी. यहाँ तक कि लड़कियों ने भी यह सोचते हुए मुझ पर थोड़ा
ध्यान देना चालू किया “हूँ, इसे भी बर्दाश्त करना ही पडेगा!” और स्कूल तक का कोई
ढाई मील लंबा रास्ता था और उतना ही लंबा वहां से वापस लौटना. वह बेहद आनंददायक
होता था. हरेक आदमी – काम पर निकल रहे मजदूर - अपना हॉर्न बजाया करता, हाथों से
इशारे करता – और मैं भी हाथ हिलाया करती. संसार दोस्ताना बन गया. अखबार बांटने
वाले लड़के अपना काम करते हुए यह देखने आते कि मैं कहाँ रहती हूँ, और मैं एक पेड़ की टहनी से टंगी रहना पसंद करती
थी और मैं एक तरह की स्वेट – शर्ट पहना करती थी. उन दिनों मुझे स्वेट – शर्ट की
कीमत पता नहीं थी, मैं उन्हें पसंद करना शुरू कर रही थी हालांकि मुझे उनकी आदत
नहीं पडी थी और उन दिनों मेरी स्थिति यह नहीं थी कि मैं स्वेटरें खरीद सकूं.
फिलहाल वे लड़के अपनी साइकिलें लेकर आया करते थे और मुझे मुफ्त में अखबार मिला करते
थे और यह बात परिवार वालों को अच्छी लगती थी, और वे अपनी साइकिलें पेड़ के गिर्द
टिका दिया करते और मैं किसी बन्दर जिसे टंगी रहती थी. मेरे ख़याल से मुझे नीचे
उतरने में शर्म आया करती थी. खैर मैं उतर कर उन बाधाओं तक पहुँचती, एक तरह से
उन्हें और पत्तियों को लतियाती हुई और बडबडाती हुई, लेकिन ज़्यादातर मैं उनकी बातें
सुना करती थी. और कभी कभी परिवार को चिंता होने लगती थी क्योंकि मैं इतनी जोर जोर
से खुश होकर हंसा करती थी; मुझे लगता है वे मुझे हिस्टीरिकल समझते थे. यह अभी अभी
पाई हुई स्वतंत्रता थी कि मैं लड़कों से पूछ लिया करती “क्या अब मैं तुम्हारी
साइकिल की सवारी कर सकती हूँ?” और वे कहते “हाँ.” और तब मैं हवा की तरह निकल जाया
करती, हवा में हंसती हुई, साइकिल की सवारी करती और वे सारे मेरे आने तक वीं खड़े
रहते. लेकिन मुझे हवा से प्यार था. वह मुझे दुलारा करती. लेकिन वह एक तरह की
दोधारी चीज़ थी. जब संसार मेरे सामने खुला तो मैंने भी पाया कि लोग आपको कुछ नहीं
समझते, जैसे कि वे दोस्ताना हो सकते थे और अचानक ही ज़रुरत से ज़्यादा दोस्ताना और
बहुत कम के एवज में आपसे बहुत कुछ चाहते थे. जब मैं थोडा और बड़ी हुई मैं ग्राउमैंस
चाइनीज़ थियेटर जाया करती थी और वहां सीमेंट पर बने प्रिंट्स में अपने पैर फ़िट करने
की कोशिश करती थी. और मैं कहा करती “अरे शायद मेरे पैर ज़्यादा ही बड़े हैं. बाहर
निकल आए शायद!” बाद में जब मैंने अपना पैर उस गीले सीमेंट में रख ही दिया तो एक
अजीब सा अहसास हुआ. मुझे यकीनन पता था इस बात का मेरे लिए क्या मतलब था. कुछ भी
संभव था, करीब करीब कुछ भी.
(जारी)
1 comment:
चंद पोस्टों तक जाती एक गली , जिसमें हमने आपका एक ठिकाना भी सहेज़ लिया है , और उसके साथ एक मुस्कुराहट के लिए चंद शब्द जोड दिए हैं , आइए मिलिए उनसे और दोस्तों के अन्य पोस्टों से , आज की ब्लॉग बुलेटिन पर
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