(दख़ल की दुनिया से साभार)
वरवर राव
मूलतः तेलगू के कवि हैं. उनकी कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. दुनिया के क्रांतिकारी
लेखकों में वरवर राव का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. ‘जन आंदोलन और मीडिया की भूमिका
पर केन्द्रित यह साक्षात्कार सितारे हिन्द,गोपाल कुमार और आरळे श्रीकांत की बातचीत पर आधारित है. सभी हिन्दी
एवं भारत अध्ययन विभाग अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोधार्थी
हैं. इस पूरी बातचीत को क्रमवार दख़ल की दुनिया पर बया पत्रिका से साभार प्रस्तुत
किया जा रहा है.
वर्तमान समय
में खासकर तीसरी दुनिया में जो जनान्दोलन चल रहे हैं, उनके बारे में मीडिया बता रहा है. यहाँ यह जनांदोलन
के पक्ष में ही होता है. खासकर इराक के ऊपर अमेरिकी हमले के समय हो या आज तक. अल-जजीरा
जो कि जनांदोलन के पक्ष में है उसे एक तरह से वैकल्पिक और पीपुल्स मीडिया कह सकते हैं.
‘द गार्जियन’ अख़बार का प्रकाशन चाहे अमेरिका से हो, चाहे लंदन
से, वह थोड़ा-थोड़ा निष्पक्ष होता है लेकिन अगर वर्ग-संघर्ष की
बात हो तो शायद उनकी पक्षधरता शासक-वर्ग के साथ ही होती है. जैसे बी.बी.सी. को भी निष्पक्ष
माना जाता है मगर आजकल बी.बी.सी. भी वर्ग-संघर्ष की समस्या होने पर उतना निष्पक्ष नहीं
रह पाता है. इंग्लैंड का ‘रूल्स ऑफ लॉ’ केवल इंग्लिश लोगों के लिए ही चलता है,
आयरिश क्रांतिकारियों के लिए नहीं. फ्रांस कई क्रांतियों का केंद्र रहा
है. अल्जीरिया उसका उपनिवेश था जहाँ फ्रांस ने अपने विरोध में चल रहे संघर्ष का दमन
किया. 1968 में द गाल ने ज्यां पॉल सार्त्र और सीमोन द बउवार जैसे बुद्धिजीवियों के
रहते हुए भी छात्रों के आन्दोलन को कुचल दिया.
आज स्थिति
यह है कि इस्लाम को मानने वाले जितने भी देश हैं, जैसे- अफ़गानिस्तान, इराक, ईरान, सीरिया, फिलिस्तीन आदि. इन
देशों में जब भी साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष होता है तो वहाँ विश्व-मीडिया की भूमिका
निष्पक्ष नहीं होती है. विश्व-मीडिया ने एक मानसिकता भी बना रखी है कि इन देशों की
संस्कृति ही पिछड़ी है. मीडिया हमेशा से ही यह प्रचार करती रही है कि इन देशों के लोग
‘कॉन्फ्लिक्ट्स सिविलियन्स’ हैं. आज विश्व-मीडिया हो या भारत की मीडिया, यह हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है. मीडिया शुरुआत से ही एक उद्योग रही
है और समय के साथ ही यह एक ‘मोर ऑफ द मोनोपोलस इंडस्ट्री का माउथ पीस’ रह गई है.
1955 के आंध्रा चुनाव के समय के तेलुगु अख़बार का संदर्भ देना यहाँ उचित ही रहेगा क्योंकि
उसमें मीडिया के बारे में कहा गया है कि “This is the product of capitalism
and that’s why all the stories which one is published also are fictitious. It itself
is a poison’s daughter.” क्योंकि एक पूँजीपति ही अख़बार शुरू करता है तो वह आपको
या लेखकों को ‘लोकतांत्रिक क्रिया-कलापों’ के लिए कितनी जगह देगा? वह उतनी ही जगह देगा जहाँ तक उसकी स्वार्थ-सिद्धि
का अतिक्रमण न हो. एक उद्योगपति या ‘मास्टर ऑफ फैक्ट्री’ उसमें काम करने वाले मजदूरों
को कितनी आजादी देगा? जैसा कि मार्क्स ने कहा है “आज काम करने के लिए रोटी, कल के मजदूर को पैदा करने के लिए भी
रोटी, उससे
ज्यादा क्या? और
आजादी भी उतनी ही कि कल आकर वह फैक्ट्री में काम कर सके, जी सके.” उतनी ही आजादी आपको भी दे
सकता है. हम यह भी देखते हैं कि एक फैक्ट्री-मालिक दूसरों, खासकर कम्युनिस्ट लोगों द्वारा ट्रेड
यूनियन नहीं बनाए जाने पर खुद एक ट्रेड यूनियन बनाता है. तो जिस प्रकार एक पूँजीपति
अपने लाभ का अतिक्रमण न होने तक ही आजादी देता है, वैसी ही आजादी अख़बारों में भी होती
है. इस प्रकार अख़बार में एकाधिकार की प्रबलता दिखाई देती है.
हमारे भारत में देखा जाए तो अख़बार जूट मिलों के प्रचार के लिए
शुरू हुआ था. देश-भर में अनेक जूट मिलों के मालिक गोयनका ने अपने जूट मिलों के प्रचार
के लिए ‘इंडियन एक्सप्रेस’ नामक अख़बार की शुरुआत की जिसके बाद में बहुत-से संस्करण
निकले. लगभग सौ साल पहले तेलुगु में काशीनाथुनि नागेश्वर राव ने बंबई से ‘आंध्र पत्रिका’
नामक अख़बार निकाला जिसका राष्ट्रीय आंदोलन में काफ़ी योगदान रहा. हम इसे तेलुगु मीडिया
और तेलुगु साहित्य के लिए ‘देशोद्धारक’ मानते हैं. अब इसी नाम से प्रेस क्लब और प्रकाशन
भी चल रहा है. इस पत्रिका में तेलुगु के जाने-माने लेखक लगातार लिखते आए हैं. 1920
से 1960 तक का लगभग विश्व-क्लासिक इसमें अनूदित होकर आया है. हम अपने बचपन से ही इस
पत्रिका को पढ़ते आए हैं. इसके बारे में सौ साल पहले ही एक लेखक ने कहा था कि इसे
‘अमृतांजन’ के प्रचार के लिए शुरू किया गया. ‘अमृतांजन’ बनाने वाली एक कंपनी बंबई में
है. इसमें एक व्यंग भी है कि अख़बार पढ़ते हुए सिरदर्द होता है, इसीलिए ‘अमृतांजन’ पीता है. इसमें पोलिटिकल
इकोनॉमी यह है कि ‘अमृतांजन’ के प्रचार के लिए यह अख़बार शुरू किया गया.
आजकल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी आया है जिसमें कुछ गंभीर बातें
भी होती हैं. मैंने एक बार उन्हें लिखा था समझो, बहुत अच्छे टेस्ट की फिल्में दिखाने
वाले चैनल हैं. वे सत्यजीत रे की फिल्में दिखाते हैं या श्याम बेनेगल की लेकिन ये विज्ञापन
के लिए अच्छी फिल्में दिखाते हैं. इसका उद्देश्य क्या है? हमें ऐसा लगता है कि वह एक अच्छी फिल्में
बनाने वाला या दिखाने वाला चैनल है मगर ये फिल्मी चैनल अपने विज्ञापन दिखाने के लिए
है और हमारी अभिरुचि सिनेमा देखने में. डिस्कवरी ऑफ इंडिया इसका उदाहरण है. नेशनल ज्योग्राफ़िक
चैनल हो या डिस्कवरी चैनल, बहुत रोचक होते हैं. मगर ये चैनल हमे भूगोल पढ़ाने के
लिए तो शुरू नहीं हुए हैं! अब इसलिए कि मीडिया को लाने के लिए पहली सीमा यह है कि इंडस्ट्री, वह भी मोनोपोली इंडस्ट्री, अपने प्रचार के लिए कोई भी अख़बार शुरू
करती है. अब उसकी पोलिटिकल इकोनॉमी भी देखिए तो जाहिर होता है, बहुत से लोगों ने लिखा भी है कि आठ-दस
पेज के अख़बार निकालने के लिए आज की स्थिति में 16 या 20 रुपए का खर्च आता है और चार-पांच
रुपये में इसे बेचा जाता है. फिर ये दस रुपयों का जो नुकसान हो रहा है, वह कहाँ से पूरा हो रहा है? इसके लिए सरकार या प्राइवेट कंपनियाँ
विज्ञापन देती हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया या हिन्दुस्तान टाइम्स देखिए. एक समय में टाइम्स
ऑफ इंडिया के सोलह पब्लिकेशन होते थे. हम पढ़ते-लिखते थे क्योंकि अच्छी पत्रिका होती
थी और ये निष्पक्ष लिखते थे. एक तरफ़ विज्ञापन, एक तरफ़ आलेख और समाचार और ‘फुली अल्टरनेटिव’, हिन्दुस्तान टाइम्स में देखिए. अब आपको
एयरपोर्ट पर टिकट खरीदते समय टाइम्स ऑफ इंडिया या हिन्दुस्तान में पूरे विज्ञापन मिलेंगे.
ये कहाँ से लेते हैं आप?
हमारा नाइट वाचमैन मर गया था, उसके ऊपर मैंने कविता लिखी है. उसके
बारे में मैंने रुचि ली थी. वह दस दिनों में एक बार आकर देखता. “क्या है?” “ये पेपर है.” “यह सब!” दस दिन में
एक पेपर बनता है! उसके मन में आया कि अंग्रेजी पेपर लेना है. अंग्रेजी पेपर इतना मोटा
रहता है कि दस दिन में एक बनता है. अब यह देखिए कि कॉमन माइंड का कॉमन सेंस भी इतना
रहता है कि इससे तो ज्यादा पैसा बनता है, इसीलिए इतना लेता है. यह बात मैंने कविता में भी लिखी
है. जैसा कॉमन माइंड का स्टैंड ज्यूडिसियरी के लिए भी होता है. उसके बारे में कॉमन
माइंड कहते हैं कि जो हारता है, वो कोर्ट में रोता है और जो जीतता है, वो घर आकर रोता है. वैसा ही मीडिया
और अख़बार के बारे में भी एक कॉमन माइंड के लिए ठीक है. ‘अरे, ये तो कहानी लिखते हैं’, ‘और इतना मोटा पेपर क्या हो सकता है?’, यह फुली एडवरटाइजमेंट है, यह जन-सामान्य की भी समझ होती है. अब
हमारे जिन लोगों का स्टेट्स बढ़ गया है उनका कहना है कि अब पेपर लेते ही इसलिए हैं
कि कौन-से मॉल में कौन-सी चीज चीप मिलेगी? पेपर आते ही वो यही देखते हैं और खरीदने
जाते हैं. हमारी तरह गंभीर और अर्थपूर्ण राजनीतिक ख़बर पढ़ने के लिए नहीं. आज आप देखिए, खासकर अंग्रेजी में द हिन्दू छोड़कर
कोई भी अख़बार, न्यूज़
के लिए पढ़ने लायक होता है? वो भी जहाँ एकेडमिक डेवलपमेंट पॉलिसी की बात होती है.
समझिए, कुडनकुलम
हुआ है कल, कुडनकुलम
के मुद्दे में मीडिया और सुप्रीम कोर्ट से लेकर मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी तक सब इसे एक
डेवलपमेंट प्रोग्राम समझते हैं और समर्थन देते हैं. इसे पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था
का समर्थन प्राप्त है. आज की स्थिति में एक भी ऐसा अख़बार नहीं है जो इस तथाकथित विकासात्मक
नीति और भूमंडलीकरण-नीति का समर्थन नहीं करता हो. नहीं तो मनमोहन सिंह की बुनियाद ही
क्या है? मनमोहन
सिंह की बुनियाद ही एक मिडिल क्लास इंटलेक्चुअल की बुनियाद पर बनी हुई है. कश्मीर का
प्रसंग है, मैं
परसों दिल्ली जाकर आया. एक सौ पचास लोग कश्मीर रैली से दिल्ली आए थे. उसमें दस हजार
मिसिंग केसेज के लोग थे. जिनको फाँसी हुई है या जिन्हें आजीवन जेल हुआ है. मकबूल भट्ट
की माँ थीं. एक और व्यक्ति जिसे आजीवन जेल की सजा हुई है, उसकी दो-तीन साल की बच्ची थी. अफ़जल
गुरु की ‘डेड बॉडी’ की डिमांड थी. अच्छा, हमारा माइंड सेट भी देखिए आप! सरबजीत सिंह पाकिस्तान में
मर जाता है. शायद उन्होंने मारा है. उसको फाँसी देना और बात है और मारना दूसरी बात!
तो इसपर गुस्सा आता है हमारे लोगों को. इसी तरह की राय हम बनाकर रखते हैं देश-भक्ति
के बारे में. आज की स्थिति में दूसरे देश पर आक्रमण करना ही देश-भक्ति है. राजकपूर
ने एक फिल्म बनाई थी, ‘परदेशी’. फिल्म का नायक रूस जाकर आता है. फिल्म में एक
देशी लड़की होती है, नरगिस. नायक उसको समझाता रहता है कि रूस में बहुत बर्फ़
गिरती है. आज हम हैदराबाद में रहकर मई महीने में कैसा महसूस करते हैं? नायिका पूछती है, ‘क्या होता है बरफ़?’ नायक के समझाने पर उसे समझ में आता
है तो वह हँसती है. “अच्छा, ऐसा होता है बरफ़!” बोलने के बाद वह पूछती है, “तुम इतनी क्यों तारीफ़ कर रहे हो रूस
की?” रूस की जनता बहुत प्रेम से देखती
है रूस को, हम
जैसे भारत को देखते हैं. देश-भक्ति ऐसी होती है. अपने देश के लिए जितना गुमान हमको
होता है, उनके
देश के लिए उतना गुमान उन लोगों को होता है. इसको हमें मानना है, यह देश-भक्ति है. हमें यह मानना चाहिए
कि पाकिस्तान की जनता को पाकिस्तान के प्रति प्रेम है. परस्पर द्वेष नहीं होना चाहिए.
तो खैर, उन्होंने
मार डाला. एक तो फाँसी होने के कारण, दूसरा मार डालने के कारण बहुत गुस्सा आया. इतने गुस्से
के बावजूद पाकिस्तान सरकार ने, जिसे हम लोकतंत्र नहीं मानते, उसने हमें डेड बॉडी दी, उनके परिवार वालों को दी. आपने क्या
किया है अफ़जल गुरु के बारे में? आप लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं, (डेड बॉडी दे देते तो) क्या होता? आसमान तो नहीं गिरता उधर? सरबजीत की डेड बॉडी दे दी तो क्या हुआ? कश्मीर में क्या होता? हमें यह कहना है कि सरकार जो स्टैंड
लेती है, मीडिया
भी वही स्टैंड लेता है. पाकिस्तान की जेल में क्या हो रहा है, इतनी जाँच करने वाले मीडिया-बुद्धिजीवी
क्या यह बताते हैं कि भारत की जेलें कैसी हैं? क्या किसी ने कभी जाँच की है? हम कमेटी फॉर द रिलीज ऑफ पोलिटिकल प्रिजनर्स
की तरफ़ से देखें. कश्मीर से आए लोग अफजल गुरु की ‘डेड बॉडी’ माँग रहे हैं. यासीन मलिक
तो फ्लाइट से आया था, उसे इन्क्वायरी करके फ्लाइट से वापस श्रीनगर भेज दिया
और जो लोग बस से आए उन्हें एक टेंट हाउस में सी.आर.पी.एफ. ने रखा, उनको आने नहीं दिया और उन्हें जन्तर-मन्तर
जाते समय गिरफ्तार किया. उनके समर्थन में हम प्रेस क्लब में कॉन्फ्रेंस करना चाहते
थे तो प्रेस-कॉन्फ्रेंस रद्द करके वहाँ संघ परिवार के लोग आ गए. अब मीडिया जो आपसे
पूछ रहा है, उसे
लेकर आप समझ सकते हैं. यह हमारा अनुभव है. अब लोगों को गिरफ्तार करने के विरोध में
असहमति प्रकट करने के लिए दस हजार रुपये बाँधकर, जो कि प्रेस क्लब का नियम है, हम प्रेस-कॉन्फ्रेंस करने गए. हमारे
जाते ही दरवाजा बन्द कर दिया गया. अन्दर मीडिया वाले थे और बाहर दिल्ली पुलिस. एक तरफ़
बजरंग दल वाले, अलग-अलग
संघ-परिवार के लोग और टोपी लगाए ‘आम आदमी’ के लोग नारे लगा रहे थे और हर एक हाथ में
यासीन मलिक का फोटो लिए, ‘बलात्कारी यासीन मलिक’ बोलकर नारे लगा रहे थे. इसीलिए
मैंने उनको ‘वन्दे मातरम पार्टी’, ‘भारत माता की जय पार्टी’ और ‘आम आदमी पार्टी’ कहा. तो
वे नारे लगा रहे थे और हम अंदर गए. अंदर कहा गया कि प्रेस-कॉन्फ्रेंस तो रद्द कर दिया
गया है. आप कैसे रद्द कर सकते हैं? आपके नियम के मुताबिक हमने रुपए दे दिए हैं. ये कैसा लोकतंत्र
है?’ यही लोकतंत्र है? अरे, Media is supposed to be fourth
pillar of the democracy. ओ! यही लोकतंत्र है. यह सच भी है क्योंकि लोकतंत्र के
एक-एक स्तंभ का क्या हो रहा है, यह दिखाई दे रहा है. विधि- व्यवस्था की क्या हालत हो रही
है?
इसे कैसे अमल में लाया जा रहा है? न्याय-तंत्र की क्या हालत हो रही है? सबमें कितने घोटाले चल रहे हैं, दिखाई दे रहे हैं. आंध्रा में पाँच
जज जेल में हैं.
ऐसा भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में ठीक लोग हैं. यह
बात आज से नहीं, जब
भोपाल गैस ‘ट्रेजेडी’ हुई थी तो संबंधित कम्पनी में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के शेयर्स
थे. वह कम्पनी एवरेडी बैटरी बनाने वाली एक मल्टीनेशनल कम्पनी है. ऐसा कौन-सा कॉरपोरेट
सेक्टर है जहाँ जजों के शेयर्स न हों, राजनीतिज्ञों के शेयर्स न हों या ब्यूरोक्रेट्स के शेयर्स
न हों? तभी
तो मल्टीनेशनल कम्पनियाँ चैम्पियन बन गई हैं. 1984 का समय था. कहा गया कि ‘जिन लोगों
के कम्पनी में शेयर्स नहीं हैं, वे जाँच में शामिल हो सकते हैं.’ तीन लोग यह कहकर पीछे
हट गए कि ‘हमारे शेयर्स हैं.’ न्याय-तंत्र के साथ-साथ मीडिया की भी यही हालत हो गई
है. यदि मीडिया के बारे में देखें तो खासकर वे लोग जो बड़े-बड़े एंकर्स हैं, कैसे पॉलिटीसियन्स और ब्यूरोक्रेट्स
से संबंध रख कर, पैसे
बना रहे हैं, सारी
बातें बाहर आ रही है. मीडिया में खास बात यह है कि इसमें निहित स्वार्थ बहुत ज्यादा
हो गया है. जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के अख़बार बेनेट कोलमेन कम्पनी के इंटरेस्ट
के लिए चलते हैं.
इसीलिए अरिंदम गोस्वामी इतनी बाउंसिंग बातें करता है. एक तरफ़ कोबाद
गाँधी को दिखाया जाता है, भगत सिंह जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए.
भगत सिंह के नारे लगाने वालों, इन्कलाब के नारे लगाने वालों को मीडिया आतंकवादी और राष्ट्र-विरोधी
कहता है. हाँ, परसों
उन्होंने मुझे भी कहा, ‘हम (प्रेस क्लब को) एंटी-नेशनलिस्ट को नहीं देते हैं.’
अरे,
एंटी-नेशनलिस्ट तो एक जिद है, जिसे आप क्वालिफाई करते हो. लेकिन न्यूज
पेपर, जिसे
सरकार इनसर्जेंसी कहती है, वो इनसर्जेंट्स का भी इंटरव्यू लेता है. जा-जाकर प्रभाकरण
का इंटरव्यू लिया है, जंगल में जा-जाकर गणपति का इंटरव्यू लिया है. आप खुद जा-जाकर
सरकार जिन्हें इनसर्जेंट कहती है, उनका इंटरव्यू लेते हैं, हम आकर प्रेस-क्लब में कॉन्फ्रेंस करना
चाहें तो हमको एंटी-नेशनल कहते हैं. मीडिया को राष्ट्रवादी या राष्ट्र-विरोधी नहीं
होना चाहिए. Ever who are anti-national? You are supposed to unwed the press-conference.
How they anti-nationals think? ऐसी स्थिति मीडिया की है. इसका कारण मीडिया की एक सीमा
है और वह सीमा यह है कि मोनोपोलिस्ट्स का, कॉरपोरेट सेक्टर के निहित स्वार्थ को
सर्व करने के लिए मीडिया आज है.
यूरोपियन मीडिया, लैटिन-अमेरिकी देशों की मीडिया या अन्य देशों की मीडिया
जिसकी किसी भूमिका से आप बहुत प्रभावित हुए हों?
वैसे तो मैं मीडिया की भूमिका से प्रभावित नहीं हूँ मगर मीडिया
में लिखने वाले कुछ लेखकों से जरूर प्रभावित हूँ. खासकर एदुआर्दो गालेआनो एक जर्नलिस्ट
है,
लैटिन अमेरिका में. ज्यादातर उसने
‘गडमेला के स्टेबल’ को लेकर बहुत कुछ लिखा है पर समग्रता से पूरे लैटिन अमेरिका में, जितने भी देशों में अमेरिकन साम्राज्य
के विरोध में संघर्ष चल रहा है, उसके बारे में रिपोर्टिंग करने और किताबें लिखने के लिए
एदुआर्दो गालेआनो से बेहतर और कोई नहीं है. आजकल जेम्स पेत्रास है जो खासकर भूमंडलीकरण
के विरोध में लिख रहा है. वैसे देखें तो ज्यादातर लोग फ्रीलांस करने वाले इंडिपेंडेंट
जर्नलिस्ट हैं, इन्हें
हम मीडिया नहीं कह सकते. मगर वो अपने लेखन से ऐसी जगह पहुँच गए हैं कि वे जो भी लिखें
तो मीडिया लेता है, रॉयल्टी देता है क्योंकि लोग पढ़ते हैं. उनका लेखन बिकता
है. जेम्स पेत्रास लिखे तो बिकता है, एदुआर्दो गालेआनो लिखे तो बिकता है, चॉम्स्की लिखे तो बिकता है.
एक समय था जब बाजार सहमति का निर्माण कर रहा था, Manufacturing the consent, कन्सेंट को मेन्यूफेक्चर कर रहा था.
पहले इतना प्रचार करते हैं कि आप एक खास ‘ब्रांड’ का टूथ-पेस्ट उपयोग करें मगर आपके
दाँत वैसे सफेद नहीं हो सकते. पहले टूथ-पेस्ट खरीदने के लिए मानसिकता को बनाता है
(माइंड सेट करता है), बाद में टूथ-पेस्ट को प्रोड्यूस करता है. यानी सहमति की
उत्पत्ति होती है. यह स्थिति थी. आज यहाँ तक कि मेन्यूफेक्चरिंग डिसेंट भी मार्केट
करता है. अब देखिए, तेलंगाना में एक समय हमारी न्यूज छापना अख़बार बेचने के
लिए एक अच्छी चीज थी. खासकर टास्क के समय में (2004 में), फर्स्ट पेज पर हेडलाइन होती थी हमारी
न्यूज. अब रामकृष्णा का इतना प्रचार हुआ टास्क के समय में, खासकर बंदूक रखे हुए जो फोटो हैं, हजारों फोटो छापे हैं हजारों न्यूज
पेपर में, क्योंकि
वह बिकता है. मीडिया के बारे में बात करना, एक तरह का रोजॉर्न ऑन द कन्ट्राडिक्शन्स.
उसका मालिक होता है, उसका प्रॉपराइटर होता है, उसके लिए निहित स्वार्थ होता है, उसमें काम करने वाले होते हैं, खासकर जो ग्रास-रूट लेवल में स्ट्रिंगर्स
से लेकर. मीडिया से जनता जो आशा करती है, वे उससे जानकार लोग होते हैं, होना चाहिए, नहीं होते हैं यह दूसरी बात है, होना चाहिए. उससे बहुत माने हुए लेखक
आए हैं. राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी बहुत बड़ी भूमिका है, वाल्टेयर मूवमेंट में पत्रकारों की
जो भूमिका है. जब समझते हैं कि ‘हमारे लिए इंडस्ट्री, खासकर न्यूज पेपर में काम नहीं मिल
सकता है’, तो
बाहर जाकर लिखते हैं. इमरजेंसी में बहुत से पत्रकारों को भी अरेस्ट किया था. कुलदीप
नैयर तो जेल में था क्योंकि इमरजेंसी का विरोध कर रहा था, बाद में उसने अपने अनुभवों को लिखा.
वैसे तो बहुत से माने हुए यूरोपियन जर्नलिस्ट भी हैं, मगर मेरे ऊपर जो प्रभाव है, एदुआर्दो गालेआनो का है. ऐसे भी लैटिन
अमेरिका के जितने भी लेखक हैं, वे पत्रकार भी हैं, जैसे मैं हूँ. (गाब्रिएल गार्सिया)
मार्केस, एक
तो उपन्यासकार थे और वो रिपोर्टिंग भी कर रहे थे. यूरोप में हेमिंग्वे, जो लेखक था, वह युद्ध की रिपोर्टिंग करता था. द्वितीय
विश्व युद्ध में, he was the reporter. ऐसे लोगों का प्रभाव है, हेमिंग्वे का तो बहुत प्रभाव है.
नेपाल में जनता क्रांति कर रही थी और पड़ोसी देश भारत का मीडिया
क्रांति को आतंकवाद कह रहा था. आपने तब भारत की मीडिया के बारे में क्या राय बनाई थी?
नेपाल की क्रांति जब तक क्रांति रही है, वहाँ और यहाँ भी क्रांति को आतंकवाद
ही कहा गया है. मगर नेपाल में जब क्रांति संसदीय लोकतंत्र में शामिल हुई तब वहाँ और
यहाँ की मीडिया उसकी बहुत प्रशंसा कर रही है. आपने बहुत अच्छा सवाल पूछा है. शायद एक
सप्ताह पहले दिल्ली में प्रचंड आया था और द हिन्दू में दो दिनों तक सिलसिलेवार उसका
साक्षात्कार आया और वह कहता है कि भारत-नेपाल का सम्बन्ध बहुत अच्छा होना चाहिए. भारत
हमारी बहुत सहायता करता है. हम क्रांति छोड़कर 'प्लूरल डेमोक्रेसी' में आये हैं. हम में से जो लोग गए हैं
उनसे क्रांति नहीं आ सकती, वे कुछ निश्चय कर सकते हैं मगर क्रांतिकारी नहीं हो सकते.
हमें कहना है कि आज के प्रचंड और बाबूराम भट्टराई को लेकर सीताराम येचुरी हों या मनमोहन
सिंह हों, बहुत
प्रशंसा करते हैं क्योंकि इन लोगों ने क्रांति छोड़ दी है. ऐसा नहीं है कि नेपाल में
क्रांति हो रही है तो यहाँ की क्रांति को आतंकवाद कहते हैं. क्रांति कहीं भी होती है
तो इसे आतंकवाद ही कहते हैं. क्रांति नहीं हो रही है, क्रांति के नाम पर क्रांति का विरोध
हो रहा हो तो बहुत प्रशंसा होती है. जो आज चल रहा है वो एक ‘continuation of corolism’ है. एक समय था जब ईस्ट इंडिया कंपनी
की सरकार थी, आज
मल्टीनेशनल कंपनी की सरकार है. ईस्ट इंडिया कंपनी के इंटरेस्ट में 1857 में संघर्ष
हुआ था जब ईस्ट इंडिया कंपनी से कुछ नहीं हो सका तो उससे ब्रिटिश सरकार बनी जो कंपनी
की हिफाजत करती थी. क्लाइव के बारे में, वारेन हेस्टिंग्स के बारे में उसके बयान को देखें तो कंपनी
को कितना फायदा मिला है? कितना नुकसान किया है? इंग्लिश पार्लियामेंट में बहुत चर्चा
चली है, उसके
बारे में. आज की स्थिति में देखा जाए तो यह बहुत छोटी बात है.
आज बुश क्या काम कर रहा है? या दूसरे अमेरिकन प्रेसिडेंट जो रिटायर्ड
हुए हैं, क्या
कर रहे हैं? ये
लोग बड़ी-बड़ी कंपनियों में लग गए हैं, कम्पनियाँ इनके इंटरेस्ट में चल रही है, जिसमें क्लिंटन भी शामिल है. क्लिंटन
दवा-उद्योग में है तो कोई शस्त्र-उद्योग में. तो वो इंटरेस्ट में ही राजनीति में आते
हैं. अब 1930-40 के जर्मनी की स्थिति देखिए. हिटलर चुनाव में जाने से पहले 'नेशनल सोशलिज्म' का स्लोगन लेकर चुनाव लड़ा था. उसने
कहा था कि ‘मैं सरकार में आऊंगा तो 'नेशनल सोस्लिज्म' लाऊंगा.’ एक तो 'नेशनल' बोलकर सेंटीमेंट को अपील कर रहा था
और
'सोशलिज्म' बोलकर रिवर्सिटी को अपील कर रहा था.
हिटलर का मानना था कि जर्मन ही शासन कर सकते हैं. उसको यहूदियों से समस्या थी और ‘यहूदी
को ख़त्म करो’ कहते हुए उसने लगभग 90 प्रतिशत यहूदियों को ख़त्म किया. दूसरी तरफ 'नेशनलिटी' के विषय में उसका कहना था कि जर्मन, आर्यन हैं और आर्यन ही पूरी दुनिया
पर शासन कर सकते हैं. एक समय था, सिकंदर का मानना था कि ग्रीक राजा ही पूरी दुनिया को जीत
सकता है. इसीलिए सिकंदर दुनिया को जीतने निकला था. वह सिविल सोसाइटी का समय था. यूरोप
में तो एक कहावत भी है कि जो भी नेशनल स्टेट हैं इनमें से एक-एक को अपने बारे में एक
अलग भावना होती है.
फ्रांस की जनता समझती है कि वो बहुत सभ्य हैं और जर्मनी के लोग
असभ्य. किसी को गाली देनी है तो उसे 'जर्मन' बोलते हैं. जर्मन समझते हैं कि हम आर्यन हैं और हम सबसे
ज्यादा सभ्य हैं. इसी प्रकार अंग्रेज लोगों का मानना है कि जो हैं सो हम ही हैं और
पूरी दुनिया पर हमने ही शासन किया है. सबका यही रवैया है. अब संस्कृत में देखिए आप, ‘म्लेच्छ’ कहते हैं, ‘अनटचेबल’ जो यहाँ के दलित लोग होते
हैं. ‘अनटचेबल’ यूरोप में भी होते हैं. ये जो माइंड सेट होता है, इसी माइंड सेट को अपील करके वो सरकार
में आया. अपनी कंपनी का यह रूल लागू करने के लिए पार्लियामेंट में उसके लिए बहुत मुश्किल
हो गई और काम नहीं बना तो तो पार्लियामेंट को जला कर कम्युनिस्टों के ऊपर इसका इल्जाम
लगाया और दो कम्पनियों की हिफ़ाजत के लिए वहाँ फासिज्म लाया, इसी तरह द्वितीय विश्वयुद्ध आया. आज
हम देखें तो पूरी दुनिया की स्थिति एक-जैसी हो गई है. एक तरफ़ तो क्राइसिस है उनके
इम्पीरियलिज्म का, दूसरी तरफ़ उस क्राइसिस से बाहर आने के लिए फ़ासिज्म.
पार्लियामेंट की स्थिति देखिए आप. पार्लियामेंट चलता ही नहीं और संविधान के तहत जितने
भी कानून बनाए गए हैं, उसके दायरे में काम नहीं चल रहा है. सी.बी.आई. है, यह एक स्टेच्यूटरी बॉडी है. उसे जो
जाँच करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्त किया है, वह अपनी रिपोर्ट कानून मंत्री को बताता
है.
आदिवासियों के बारे में देखिए. फिफ्थ शिड्यूल है, सिक्स्थ शेड्यूल है, अपने जल-जंगल-जमीन के लिए तो...उसके
ऊपर उनका हक है. दूसरी तरफ़ जैसे नॉर्थ-ईस्ट स्टेट्स बने हैं. यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन
में जल-जंगल-जमीन के ऊपर ही नहीं, इलाके की बात भी आई है. एक तरफ़ इंटरनेशनल लॉ और यहाँ
के संविधान के तहत इतने हक हैं, दूसरी तरफ़ पूरे भारत में पूर्वी भारत से लेकर दक्षिण
भारत तक सेंट्रल इंडिया में लाखों एकड़ जमीन आदिवासियों से छीन ली जा रही है, विस्थापन हो रहा है. बात क्रांति की
नहीं है. संविधान कहाँ लागू हो रहा है? मौलिक अधिकार कहाँ लागू हो रहे हैं? संविधान की प्रस्तावना कहाँ लागू हो
रही है? डायरेक्टिव
पॉलिसीज को तो छोड़ दीजिए क्योंकि डायरेक्टिव पॉलिसीज में तो...अस्पृश्यता मिट जाना, हरेक को शिक्षा मिलना, समानता की बातें हैं. डायरेक्टिव बिल
तो सरकार की तरफ से कोई बंधन नहीं है. ‘it is not binding on the part of Sarkar’, मगर एक आदर्श है. जो ‘bindingly’ सरकार के ऊपर जो धारा-56 है, वह भी नहीं लागू हो रही है. यानी जैसा
संकट बढ़ता है, खासकर
जो साम्राज्यवाद का संकट बढ़ता है, साम्राज्यवाद के प्रभाव में हैं सरकारें. जितने भी कानून
बनाते हैं, जितने
भी पार्लियामेंट-असेम्बली चलाते हैं, वे भी नहीं चल सकते. यानी उनका कानून ही उनके लिए शृंखला
(बेड़ी) बन जाता है. उनका शासन ही उनके लिए शृंखला (बेड़ी) बन जाता है और उसको छोड़कर
अपने असली रूप, जो
फासिज्म का रूप होता है, वह दिखता है. इसमें और एक समझने वाली बात है कि यूरोप, जो पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी की जन्म-भूमि
है,
खासकर इंग्लैंड और फ्रांस, वे देश भी द्वितीय विश्व युद्ध के समय
संकट में आ गए. जर्मनी, इटली और जापान में पार्लियामेंट खत्म होकर फासिज्म-नाजिज्म
लागू हुआ. तो तीसरी दुनिया के बारे में क्या समझ सकते हैं जहाँ संसदीय लोकतंत्र के
लिए कोई जगह ही नहीं है. इसलिए कहते हैं कि संसदीय लोकतंत्र के लिए यहाँ जगह नहीं है, इसीलिए यहाँ जो लोकतंत्र आना है, वो नया लोकतंत्र ही हो सकता है जो क्रांति
से होता है, शस्त्र-संघर्ष
से होता है. आज वही चल रहा है भारत में.
अहिन्दी क्षेत्र की ख़बरें, राष्ट्रीय समाचार पत्र हिंदी क्षेत्र
में नहीं पहुँचाते हैं. ऐसे में क्या राष्ट्रीय अखंडता प्रभावित होती है?
अब आज की स्थिति ऐसी आ गई है कि जिला संस्करण होते हैं. एक जिले
की खबर दूसरे जिले में नहीं जाती है. अब हैदराबाद को ही लीजिए. एक दिलसुखनगर का संस्करण
होता है, एक
चिकटपल्ली का और एक उस्मानिया कैम्पस का संस्करण. दिलसुखनगर की ख़बरें आपके इफ्लू
(इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी) में ही रह जाती है. यानी न्यूज़ को कम्पार्टमेंटलाइज्ड
कर दिया है और दमन को नेशनलाइज्ड कर दिया है. जनता क्या सोच रही है इसको कम्पार्टमेंटलाइज्ड
कर दिया है और इस सोच को लेकर सरकार जो दमन चला रही है वह सेंट्रलाइज्ड रहे, कॉरपोरेटाइज्ड बना रहे. ख़ास कर आन्ध्र
प्रदेश में 1974 से ईनाडु दैनिक शुरू हुआ है तभी से जिला संस्करण शुरू हुआ और न्यूज़
कम्पार्टमेंटलाइज्ड हुआ है.
हम वारंगल में रहते थे, बड़ा रेडिकल मूवमेंट था. उस रेडिकल
मूवमेंट को लेकर जिला प्रशासन जो दमन चलाती थी वह खबर जिले के ही अखबार में आती थी.
लेकिन अगर उसके ऊपर किसी कांग्रेसी नेता या एम.एल.ए. की प्रतिक्रिया आती तो पूरे आन्ध्र
प्रदेश में खबर आती. तो बाहर वाले पूछते कि आपने यह क्या किया है? समझिये इफ्लू (इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज
यूनिवर्सिटी) में एक संघर्ष चल रहा है और कुलपति का पुतला फूँका गया. कुलपति सेन्ट्रल
के ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट का है और उसका पुतला फूँका गया तो पूरी दिल्ली में खबर
पहुँचती है. क्योंकि दिल्ली में उसी समय उसकी किताब का राष्ट्रपति उद्घाटन भी कर रहा
होता है. लेकिन दिल्ली के इफ्लू में रहने वाले छात्रों पर पुलिस ने दमन किया तो यह
जिला संस्करण में आता है. यह तो हो ही रहा है. देखिये न, अभी कितनी आत्महत्याएँ हुई हैं इफ्लू
में. अब देखिए स्थितियाँ कितनी बदल गई हैं? बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में राधाकृष्णन
कुलपति बनाए गए थे. राष्ट्रीय आन्दोलन का समय था. विश्वविद्यालय के अन्दर और बाहर बहुत
संघर्ष चल रहे थे. विश्वविद्यालय के अन्दर आर्मी भेजनी पड़ी थी. जब राधाकृष्णन को ले
जाया गया तो उन्होंने कहा कि ‘जब तक सेना कैम्पस से बाहर नहीं आती, तब तक मैं अपना कुलपति पद नहीं संभालूँगा.’
तो प्रशासन को मानना पड़ा. पुलिस बाहर आई तो वे अन्दर गए और पद संभाला. अब उस वैल्यू
सिस्टम की आज के वैल्यू सिस्टम से तुलना कीजिए. अब के कुलपति आते ही पुलिस को बुलाकर
लाते हैं. हॉस्टल में स्टूडेंट की समस्या हुई है, एक मरा, दूसरा मरा! यह कौन हल करेगा? शिक्षक का क्या कर्तव्य है? मैं क्लास में पढ़ा रहा हूँ. 120 छात्र
हैं,
इन 120 छात्रों को पचास मिनट के लिए
कंट्रोल करने का जो मेरा मोरल अथॉरिटी, मोरल रिस्पांसिबिलिटी होती है, क्या मैं ये पुलिस की सहायता से कर
सकता हूँ? कैम्पस
में कितने भी...यानी you lost your moral responsibility and the authority, and
that’s …..लाठी बुला रहा है. यही हर जगह हो रहा है. 1982 से 1984 तक हमारे वारंगल के 12 कॉलेजों
में रेडिकल मूवमेंट के कारण धारा-144 लगाई गई थी. मैं क्लास में पढ़ाता था तो खिड़की
से बाहर बन्दूक दिखती था. मैंने एक जगह लिखा भी है. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय में
जर्मनी में यह बात फैल रही थी कि अब जर्मनी, पेरिस नगर पर कब्ज़ा करेगा. इस पर एक
अच्छी फिल्म भी 'लास्ट
लेसन' आई
है. फ्रेंच शिक्षक रोजाना सबक पढ़ाता कि कल से फ्रेंच भाषा नहीं पढ़ाई जाएगी क्योंकि
जर्मन लोग आ जाएंगे. The last date for teaching वाली स्थिति हमारे यहाँ भी दो सालों
तक रही थी. तो यह स्थिति आजकल हर जगह हो गई है. चाहे केंद्रीय विश्वविद्यालय हो, इफ्लू हो या उस्मानिया कैम्पस हो. हैदराबाद
केंद्रीय विश्वविद्यालय के बाहर पुलिस ने मुझको रोका कि कहाँ जा रहे हो और क्यों जा
रहे हो? तब
प्रो. वी. कृष्णा ने उनको मुझे अन्दर आने देने को कहा, तब जाकर मुझे अन्दर जाने दिया गया.
यह कैसी स्थिति आ गई है? अब मीडिया को भी देखिए आप, ईनाडु के ऑफिस में प्रवेश नहीं कर सकते
है! हर जगह दिखने वाला स्टेट कंट्रोल है और स्टेट के ऊपर कॉरपोरेट कंट्रोल है.
अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल को मीडिया ने भ्रष्टाचार विरोधी
आन्दोलन का नायक घोषित किया. मीडिया की इस भूमिका को आप किस तरह देखते हैं?
अब देखिए, तो 11 अप्रैल, 2011 को जब पहली बार अन्ना ने आन्दोलन
शुरू किया था तो उस दिन मैं एम.एल. पार्टी के क्रन्तिकारी नेतृत्वकर्ता वासुदेव राव
का पहला मेमोरी लेक्चर दे रहा था. मैंने कहा था कि ये तो अन्नलू के विरोध में अन्ना
को लाया है. अन्नलू नक्सल को कहते हैं जिसका मतलब होता है भाई. जंगलमहल से लेकर बारह
राज्यों में जो माओवादी आन्दोलन आया है, उसे मनमोहन सिंह देश के लिए बहुत बड़ा खतरा समझता है. तो अन्नलू के प्रभाव का क्या करे, तो अन्ना हजारे को लाया. अन्ना हजारे
सरकार और मीडिया दोनों के द्वारा मिलकर खड़ा किया गया है. इसके पीछे की कहानी यह है
कि एक तरफ बी.जे.पी. बाबा रामदेव को प्रमोट कर रही थी. अब आप यह भी देखिए कि देश में
बाबा रामदेव के बहुत उद्योग हैं, बहुत-सी दुकानें हैं. अब उन दुकानों के विज्ञापन के लिए
उसको एक आश्रम चाहिए, एक पॉलिटिक्स चाहिए. अब ये सब तो एक घेरे के तहत होता
है न. राजा दुष्यंत का राज चलना है तो राज चलने के लिए एक आश्रम होता है, वहाँ ऋषि होते हैं और उन ऋषियों के
लिए सैकड़ों एकड़ जमीन देते हैं, गायें देते हैं. तो वे उसके धर्म को पालते हैं. ये ब्राह्मण
हैं,
वे क्षत्रिय हैं. वैसे ही रामदेव का
आश्रम है, हर
तरीके की बहुत-सी दुकानें हैं. अब उसको चलाना है तो उसके लिए एक धर्मनीति और एक राजनीति
जरूरी हो जाती है और बी.जे.पी. उसको एक वाइस प्रेसीडेंट कैंडीडेट के रूप में देखती
है. एक रामदेव है, योग वगैरह भी सिखा रहा है, उसका प्रभाव हो रहा है जिसका मीडिया
भी खूब प्रचार कर रहा है. सरकार ने सोचा हम किसको लाएँ? तो अन्ना को लाया गया. सेबेस्टियन जो
कि हमारे CPDR (Committee for Protection of Democratic Rights) का प्रेसीडेंट है. वह हैदराबाद के एक
डेमोक्रेटिक राइट्स मूवमेंट में कह रहा था कि (अन्ना हजारे) गाँव में लोगों को पीटता
है,
प्रतिरोध पर लिखित रूप से प्रतिबंध
लगाता है. ये कैसे प्रतिबंध लगते हैं? कैसे लागू करते हैं? ये अस्पृश्यता को बनाए रखना चाहता है.
ये वैसा ही धर्म चाहता है, जैसा गाँधी ने चलाया था. खैर, जो भी हो, वैसे दो-तीन गाँवों में सुधार करने
वाला आदमी जब दिल्ली में बैठता है और मीडिया का इतना बड़ा रिस्पॉन्स मिलता है तो वह
अपने आपको बहुत बड़ा समझता है. यह बंबई आया था, सैकड़ों-हजारों गाड़ियाँ आई थीं. तो
यह समझा कि ‘ये सब मेरे लिए आए हैं.’ अरे, ये सब तुम्हारे लिए नहीं, अपने इंटरेस्ट के लिए आए हैं. बासागुडा
मुठभेड़ के बाद हम दिल्ली में धरना पर थे. कोई भी मीडिया वाला हमारे पास नहीं आया.
दूसरी तरफ अन्ना हजारे का आन्दोलन चल रहा था, पूरा मीडिया वहाँ जमा हुआ थी. लगभग
पचास चैनल्स स्थापित किए थे उन्होंने! अब देखिये, मीडिया के लिए अन्ना हजारे में कोई
आकर्षण नहीं है. तो अब केजरीवाल को लाए हैं, अब केजरीवाल को प्रमोट किया जा रहा
है. हमारा जैसा अनुभव है कि आम आदमी के टोपी वाले ने अज्ञान की रक्षा की है. आने वाले
समय में कैसे डेमोक्रेसी हो सकती है? यानी "one can do or undo" आज स्थिति यह है कि कॉरपोरेट कम्पनियाँ
किसी को ऊपर उठा भी सकती हैं और किसी को गिरा भी सकती हैं. अब अन्ना हजारे हो या जो
भी हो. समझना यह है कि संकट क्या है? राजनीतिक अर्थशास्त्र का संकट क्या है? संसदीय लोकतंत्र का संकट क्या है? इसको ख़त्म करने के लिए अलग-अलग प्रयोग
कर रहे हैं. एक तरफ दमन का दौर चल रहा है तो दूसरी तरफ ये नीति कभी शासक के लिए स्टिकेन
कैरेक्टर का होता है. स्टिकी होता है और उसके साथ कैरेक्टर भी होता है. दमन तो चलता
रहता है, शासन
का दबाव भी बढ़ता रहता है. कभी-कभी इतिहास का भी इस्तेमाल होता है, वह चाहे अन्ना हजारे का हो या अरविन्द
केजरीवाल का या फिर आम आदमी का हो. ‘आम आदमी’ भी आज कोई आम आदमी नहीं है. आम आदमी ग्रास
रूट लेवल के सेंस में है.
बुद्धिजीवियों का एक वर्ग मानता है कि मीडिया भारत में माओवादियों
को बहुत कवरेज देता है?
कहाँ दे रहा है सही कवरेज? जब चाहा तब बहुत कवरेज दिया. मेरा अनुभव
कहता है कि एक साल पहले मुझे अंग्रेजी इलेक्ट्रोनिक मीडिया वाले NEWS6 हो, NDTV हो, HEAD LINES
हो या TIMES NOW हो, महीने में चार-पाँच बार बुलाते थे.
TIMES
NOW हम नहीं जाते थे,
इन्कार करते थे. एक तरफ से सभी बुलाते थे, बहस होती थी. अब तो मीडिया में कवरेज
ही नहीं है. उन्होंने जब चाहा तब किया. ये भी इसलिए कि सरकार इसका प्रचार करके उसके
ऊपर दमन लाने के लिए या बुद्धिजीवियों के ऊपर जो इसका प्रभाव है उसको ख़त्म करने के
लिए. इनको भी बुलाएँगे उनकी राय जानने के लिए और दूसरे लोगों से उसका खंडन भी करवाएँगे.
मुद्दे के अंग-अंग का खंडन करते हैं और हमें यह बताना चाहते हैं कि कोई इसका जवाब नहीं
दे सका है. मगर इसमें ये असफल हुए हैं. जब असफल हो गए तो साइलेंस किलिंग शुरू किया
है. मीडिया आज कोई भी बड़ा विस्फोट हो या एनकाउण्टर हो, बाहर आने नहीं देती है.
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१.
दुःखी कोयल
इस साल ख़ूब बरसा पानी
भर गए नदी नाले
पिछले दस सालों में
कोई भी ऋतु समय पर कहाँ आई थी ?
जेल में क़दम रखते ही
कोयल का स्वागत-गान सुनकर चकित हुआ
सोचा
क्या अभी से बसंत की ऋतु आ गई ?
निज़ाम-युग की दीवारें
कँटीले तार बिजली की मार
सेंट्री की मीनार
दीवारों के अंदर दीवारें
द्वार के अंदर द्वार
ताला लगाना ताला खोलना
पहरे के गश्तों के बीच कैद पड़ी हरियाली
न उड़ सकने वाले कबूतर
अहाते के अंदर बंदी-जैसा आसमान
नीरव दोपहर में 'अल्लाह-ओ-अक़बर' की गूँज
भीगी धरती को छूकर काँपने वाली हवा
सारी ऋतुएँ यहीं बंदी बनी हुई थीं अब तक
आम की कोंपलों और नीम के फूलों का
एक जैसा स्वाद
बेल्लि ललिता की तरह
जकड़ती ज़ंजीरों का गीत
गाता रहता है जेल का कोयल हमेशा
मैं आ गया हूँ शायद इसलिए
या दोस्त कनकाचारी नहीं रहा इसलिए.
२.
मैं हूँ एक अथक राहगीर
मैं एक अथक राहगीर हूँ
घुमक्कड़ हूँ
अँधेरी रातों में दामन फैला कर
आसमान से तारे माँगता रहता हूँ
चाँदनी रातों में
जंगल के पेड़ों से फूल माँगता रहता हूँ
आसमान और ज़मीन ने मुझसे कहा -
तारे टूटकर गिरते हैं तो मनुष्य बनते हैं
मनुष्य बड़े होकर लड़कर अमर होकर
आकाश के तारे बनते हैं
फूल धरती पर गिरकर बीज बनते हैं
बीज ही पेड़ बनकर हवा को पँखा झलते हैं
अपने लिए राह के लिए या दीन दुखियों के लिए
किसके लिए दौड़ रहे हो तुम
यह मालूम हो जाए
तो तुम माँग रहे हो या भीख चाहते हो
यह भी स्पष्ट हो जाएगा
मैं लंबी साँस खींच कर
छाती में प्राणवायु भरकर
निर्जीव उसाँस छोड़ता हूँ
फिर भी हवा चलती रहती है
बाँसों के झुरमुट में बाँसुरी बनकर
मैं अँजुरी में पानी भरकर पीता हूँ
लूट को छिपाकर रखता हूँ
सूखा और बाढ़ की सृष्टि करता हूँ
फिर भी
नदिया सुर बनकर
दरिया गीत बनकर
झरना साज बनकर
प्रवाह संगीत बनकर
बहता ही रहता है
धूप खिलकर
प्रकृति का सत्य प्रकट करती रहती है
समय में क्षण की तरह
अणु में परमाणु की तरह
सागर में बूँद की तरह
आग के गोले में चिंगारी की तरह
आगे पीछे
क़दम से क़दम मिलाते हुए
लड़खड़ाते हुए
बिना रुके चलोगे ...छलाँग लगाओगे ...
तभी इस राह में तुम एक चल बनोगे ...
यह कहकर हँसे धरती और ग़गन !
(तेलुगु कवि वरवर राव की मूल तेलुगु में लिखी इन कविताओं
का अनुवाद आर. शांता सुंदरी ने किया है)
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