Sunday, August 18, 2013

वे एक दूसरे से इतना लिपट जाते हैं जैसे कभी के बिछुड़े

संगीत के आसपास कुछ कविताएं – ६


अभोगी

-शिवप्रसाद जोशी

आवाज़ का एक घेरा
होता है
आसपास मंडराता हुआ
पहले एक अकार होता है फिर उससे
बनते अक्षर फिर शब्द
इससे पहले कि उन्हें समझूं
वे एक दूसरे से इतना लिपट जाते हैं
जैसे कभी के बिछुड़े
आती है फिर एक ही आवाज़ अंत में बस एक विचार
इतना सब कुछ समाहित हो जाता है वहां

इतनी तीव्र हो उठती है वह
खीझ तो नहीं ही कहेंगे उसे या पता नहीं
उस घेरे में दाख़िल होने का मन करता है
क्या वो नृत्य है या आवाज़ें ही हैं क्या कौन से शब्द हैं किस रागकारी में सने
ऐसी भी कौनसी वो भव्यता है
इतना प्रकाश और इतना अंधेरा एक साथ
इतना विराग इतनी विह्वलता

गुस्ताख़ी माफ़
पर कैसा तो ये अजाब
ओ मेरे उस्ताद.


3 comments:

विभूति" said...

खुबसूरत अभिवयक्ति......

Pratibha Katiyar said...

waah!

प्रवीण पाण्डेय said...

शब्दों की वह भागा दौड़ी,
भावों की वह आँख मिचौनी।