जून के महीने में उत्तराखंड में आई आपदा के बाद ख़ूब बावेला मचाया गया. केदारनाथ के मंदिर की वीरान श्मशान सरीखी और ऋषिकेश में गर्दन तक डूब रही महादेव की विशाल मूर्ति जैसी अनेकानेक छवियाँ जो लम्बे समय तक चैनलों अखबारों के लिए कमाई का ज़रिया बनी रहीं, अब आम भारतीय की विस्मृति में कहीं पसरी सो रही हैं. जनता की इसी पुरातन निर्विकार जड़ता का फ़ायदा अवसरवादी लोग उठाते रहे हैं, और चेता न गया तो उठाते भी रहेंगे.
चीज़ों को एक और नज़रिए से देखने की ज़रुरत है. यही बता रहे हैं कबाड़ी भाई शिवप्रसाद जोशी.
पहाड़ से ये कमाई बंद करो
-शिवप्रसाद जोशी
पुनर्वास भ्रष्टाचार की सदाबहार
एक्सरसाइज़ बन गया है. यह विपदा पहली बार नहीं टूटी है. कुदरत इसी तरह से प्रहार
करती आई है. 16-17 जून 2013 का प्रहार विध्वसंक था, जानलेवा था. सैलानी थे शोर था
वाहन थे धर्मांधता थी. और वर्चस्व और विवाद थे. और इधर जब आंसू सूख चुके हैं और
दूर गिरी ज़िंदगियां थके कदमों से लौट रही हैं तो ऐसे में नया शोर आ रहा है. विपदा
जैसे कहर बरपाकर बौद्धिक उत्पात मचाने निकल गई है. इतनी सब को पहाड़ की बेबसी याद
आ रही है और इतना क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वॉर्मिंग, पर्यावरन, प्रदूषण, तू-तू-मैं-मैं,
तू समर्थक मैं विरोधी तू कविता मैं बयान तू निष्क्रिय मैं हैरान हो रहा है कि
सत्ताएं आंखें झपकाएं सुस्ताने चली गई हैं. बोल लें तो हम अपने मन की करें. ऐसा
निर्विकार और बेशर्म माहौल है.
कुछ ऐसा मत करो कि योगदान प्रत्यक्ष
हो जाए. खुद को झोंको मत न जलाओ न त्याग करो. सब बोलो. फेसबुक में बोलो कविता में
बोलो दिल्ली में बोलो किताब में बोलो इधर ब्लॉग में बोलो. महसूस मत करो. व्यथा को
अपने भीतर इतना मत आने दो कि तुम्हीं एक विक्टिम हो जाओ एक टूटे बिखरे हुए
प्रभावित व्यक्ति. वो सबजेक्ट है उससे रचनात्मक अलगाव रखो.
ये मत देखो कि कोई कुछ वाकई कर रहा
है या नहीं. खींचो जितना खींच सकते हो अवसर की दुर्लभता को. डूब को और संघर्ष को
और थरथराहट को वैसा का वैसा मत देखो. उन षडयंत्रों को मत देखो क्योंकि हो न हो
किसी न किसी मोड़ पर तुम भी उसमें भागीदार पा लिए जाओ. और तुम वहां दिख जाओ.
उजड़ चुके पहाड़ों की इस प्रलय से
क्या तुम पलंग से नीचे गिर पड़े. वहां तक ये चली गई थी क्या. हमें बांध नहीं
चाहिए. पर हमें बिजली तो चाहिए. नदी के वेग से मुक़ाबला करने की तकनीकी सामर्थ्य
तो दो. क्या वो विक्रांत और अरिहंत और कुडनकुलम के लिए ही है. नदी का रास्ता नहीं
रोकेंगे लेकिन अच्छा हमारे बच्चों को स्कूल भिजवाने का जतन तो करो. हमारी
स्त्रियों के लिए अस्पताल करो. वहां रोशनी का इंतज़ाम करो.
हमारी जरूरत को तुम लूट का बिंदु
बनाते हो. पहाड़ फोड़ो सुरंग डालो खनन करो. रोजगार दो. माल ढुलाओ. दिहाड़ी दो.
हमें कहते हो दफ़ा हो जाओ. ये बिजली बाहर जाएगी. इस तरह हमारा विकास हो जाता है कि
तुम बांध ले आते हो कि हमें वही चाहिए एक स्कूल और एक पुल और एक मास्टर और कुछ
किताबें और एक अस्पताल और कुछ गीली दवाइयां ले आते हों.
अपनी ही कुदरत के बीच हम ही उसके
खलनायक बन गए हैं. जबकि हमारा ऐसा नाता नहीं था. पर्यटन को पूंजी से जोड़ा हमारी
गरीबी का इतना निर्माण किया कि हमें अंततः निर्माण के निवेश में ही उतरना पड़ा.
होटल बनाए नदियों को कुचला जंगल काटे बीज हटाए खेत उजाड़े और अब सब तुम्हारे हवाले
हैं. पहाड़ पर दमन भट्टियां धधक रही हैं.
बांध विरोध अब नए कब्ज़ादारों के
हवाले हो रहा है. विकास के नए मॉडलों से अभिभूत लोग समर्थन में हैं. उन्हें लगता
है पहाड़ खोदकर ही निर्णायक कल्याण संभव है. जनता को संक्षेपों और टुकड़ों और
निर्दलीयता में और राजनैतिक चेतना के शून्य में जगा रहे हैं. जगा नहीं रहे हैं उसे
हड़बड़ा रहे हैं.
हम विकास के इस मॉडल की भरपूर
भर्त्सना करते हैं. पहाड़ की लूटखसोट बंद करनी ही होगी. ये दमन बर्दाश्त नहीं है.
लेकिन हम विरोध के उत्तरआधुनिक मॉडलों का भी पुरजोर विरोध करते हैं. कल्चरल
भूमडंलीकरण और मास मीडिया की भव्यता में आयोजित भावनात्मक घिनौनेपन और उसके तत्वों
की हम मुख़ालफ़त करते हैं. हम दस्तावेजों और आंकड़ों और दौरों और अध्ययनों और
बौद्धिक चमकीलेपन की जुगाड़ में रहने वाली शक्तियों से भी परिचित हैं और उन्हें
बेपर्दा करने का निश्चय रखते हैं.
हमारे पूर्वजों के पत्थर हिल रहे
हैं, लुढ़क रहे हैं, नदी में जा रहे हैं. पहाड़ से हर किस्म की ये नाजायज़ कमाई
बंद करो.
1 comment:
उत्तराखंड बनाने के पीछे एक दूरदृष्टि थी । कितनी थी वो अब दिख रही है। इसी लिये इसे उत्तरप्रदेश से अलग किया गया ताकि कोने में बैठ के आराम से लूट सकेंगे। हम सब भी इस लूट में शामिल हैं। लूट सके तो लूट अंत काल पछतायेगा जब प्राण जायेंगे छूट। केवल आपदा को नहीं देखा जाना चाहिये। हर दुकान में चल रही है ये लूट। छोटी से लेकर बडी़। सारे लुटेरे खन्ना लोग घर में लुटेरे और सड़क पर अन्ना बने हुऎ हैं !
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