Tuesday, August 20, 2013

जिनके पास कुछ नहीं था उनसे कहा गया कि आगे भी रहें ख़बरदार

संगीत के आसपास कुछ कविताएं

ख़बरदार

-शिवप्रसाद जोशी

अब्दुल क़रीम ख़ान गा रहे थे तुम काहे को नेहा लगाए
यही भीमसेन जोशी गा रहे थे कलकत्ता में
एक ही जगह की आवाज़ें थीं अलग अलग समयों की
कि तभी आ गया अयोध्या का फ़ैसला टीवी पर

हाशिम अंसारी का एहतराम दिखाया गया
भास्करदास का स्वागतम्
वगैरह वगैरह तमाम
आसमान साफ़ था उत्तराखंड में मॉनसून तबाही मचाकर
विदा हो गया था
मेलमिलाप एक दूसरे के कँधे पर चढ़ा था लगभग कुचलते हुए
खड़ाऊँ मालाएँ गलियाँ गाने आते रहे
किश्तियाँ गलबहियाँ फ़ैसला फ़ैसला पत्रकार पक्षकार
बीच वो आवाज़ न जाने कहां से गूंजती आई
थकान से रुँधे हुए गले से कि मैं कमाल ख़ान सच बोल रहा हूँ
तीन हिस्सों में बँटा है फ़ैसला और न जाने कितनी सारी दुश्वारियों में

अयोध्या पर चैनलों की धूल के किनारों से फिर उठे कुछ लोग
अनचीन्हें साक्ष्यों और भटके विवेक की तलाश में
अपनी घरानेदार समझदारी के सिवाय
जिनके पास कुछ नहीं था
उनसे कहा गया कि आगे भी रहें ख़बरदार.


1 comment:

शिरीष कुमार मौर्य said...

पिछले बहुत समय से पढ़ने के अनुभवों में इससे बेहतर कुछ नहीं पढ़ा। शिवप्रसाद जोशी का घराना अब स्‍पष्‍ट होने लगा है, खुलने लगा है और भी। पूर्णकंठ कविताओं के ज़माने में ये सधी हुई घरानेदारी, मेरा सलाम शिवभाई।