हबीब अहमद पूर्वी पंजाब के होशियारपुर जिले में २४ मार्च १९२८ को जन्मे थे. उनकी पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में हुई. कविता में उनकी गहरी दिलचस्पी में उन्होने प्राचीन परम्परा के शायर जालिब देहलवी के नाम को इख्तियार किया. उनकी शुरुआती कविता रूमानी और प्रकृतिवादी थी. विभाजन के बाद वे पाकिस्तान चले आये जहां कराची के डेली इमरोज़ में उन्हें प्रूफरीडर की नौकरी मिल गयी. वे अक्सर मुशायरों में फैज़ अहमद फैज़ जैसे कवियों की रचनाओं का पाठ किया करने लगे. जल्द ही जालिब ने पाकिस्तानी वाम का रुख किया और कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ पकिस्तान और प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट के सदस्य बन गए. यह दौर था जब जनरल अयूब एक दूसरा ही रास्ता अख्तियार करने की तरफ बढ़ चुके थे.
अमेरिका से नज़दीकी और CENTO के साथ फ़ौजी संधि ने पाकिस्तानी सेना को आधुनिकतम
हथियारों से लैस बना इया था. अमेरिकी सहायता प्राप्त करने के एवज में पकिस्तान
अमेरिकी सेना को अपने सैन्य प्रयोगों के लिए आवश्यक इलाके खुशी खुशी उपलब्ध करवा
रहा था. पेशावर का एयर स्टेशन अमेरिकियों को दे दिया गया जहां से वे रूस पर निगाह
रख सकते थे. यह सुविधा पाकिस्तानी फौज तक को उपलब्ध नहीं थी. १९५९ में पकिस्तान के
ऊर्जा एवं व्यापार मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी ऐसी ही सुविधा की इजाज़त
माँगी जो उन्हें नहीं दी गयी. इससे विवाद पैदा हुआ और अंततः भुट्टो पहले अमेरिका और
फिर अयूब के विरोधियों में शुमार होने लगे. अयूब खान का पूंजीवादी रुझान पाकिस्तान
की ग्रामीण जनता के लिए महंगा पड़ने लगा था. समूचे देश की दौलत कुल बाईस परिवारों
में सिमट कर रह गई. ये परिवार ही आपस में मिल जुलकर उद्योगों को चलाते थे और
पाकिस्तान की आधी ज़मीन पर राज करते थे. इनमें पुराने रईस और सैन्य अफसरान के
परिवार शामिल थे. अयूब खान की सत्ता का पहला उद्देश्य इन परिवारों के हितों की
रक्षा करना था.
जालिब साहब ने एक जगह लिखा –
बीस खराने हैं आबाद!
और करोड़ों हैं नाशाद!
सद्र-ए-अयूब ज़िन्दाबाद!
तब तक जालिब को जेल जाने की आदत पद चुकी थी. १९६२ में अयूब खान एक
नया संविधान ले कर आये जिसमें पाकिस्तान में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की सिफारिश
की गयी थी. सत्ता के समर्थकों जैसे पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी मुहम्मद अली ने नए
संविधान की तारीफ़ करते हुए उसकी तुलना फैसलाबाद की क्लॉक टावर से की. जालिब मानते
थे यह खेल के नियमों को अपने पक्ष में रखने का खुला नाटक है.
जनभावनाओं को कुंठित करते हुए १९६२ में यह संविधान लागू कर दिया गया.
संविधान के अनुसार पाकिस्तानी अवाम प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के लिए अभी अविकसित था सो
उस पर परोक्ष रूप से एक कार्यवाहक राष्ट्रपति चुनने के का ‘विकल्प’ थोप दिया गया.
जालिब ने इसे तानाशाही को वैध ठहराने वाला फैसला पाया और इसकी खिलाफत में अपनी
मशहूर रचना ‘दस्तूर’ लिखी. इस कविता ने राष्ट्रगीत की सी सूरत अख्तियार कर ली थी
और जालिब को अनेक जगहों पर इस कविता को पढ़ कर सुनाने के न्यौते मिलने लगे. ऐसे ही
एक मौके पर जब किसी जलसे में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एस. ए. रहमान
मुख्य अतिथि थे, जालिब से अनुरोध किया गया कि वे ‘दस्तूर’ न सुनाएं. जालिब पलटकर
बोले “आप मेरे और मेरी ऑडीएंस के बीच खड़े नहीं हो सकते.” तत्कालीन पाकिस्तान में
सेना और जनता के बीच लुकाछिपी का सा खेल चलता रहता था. इस कविता ने पाकिस्तानी
जनता को कुछ मोर्चों पर जीतने के मौके उपलब्ध कराये.
सुनिए हबीब जालिब की आवाज़ में ‘दस्तूर’. रचना का पाठ नीचे दिया गया
है. –
दस्तूर
दीप
जिसका महल्लात ही में जले
चंद
लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो
जो साए में हर हर मसलहत के पले
ऐसे
दस्तूर को सुब्हे बेनूर को
मैं
नहीं मानता, मैं नहीं मानता
मैं
भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार से
मैं
भी मंसूर हूँ कह दो अग़ियार से
क्यूँ
डराते हो जिन्दाँ की दीवार से
ज़ुल्म
की बात को, जेहल की रात को
मैं
नहीं मानता, मैं नहीं मानता
फूल
शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम
रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक
सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
इस
खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं
नहीं मानता, मैं नहीं मानता
तूमने
लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब
न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूँ
चारागर
मैं तुम्हें किस तरह से कहूँ
तुम
नहीं चारागर, कोई माने मगर
मैं
नहीं मानता, मैं नहीं मानता
(दस्तूर
– संविधान, महल्लात – महल, तख़्त-ए-दार – फांसी का तख्ता, ज़िन्दां – जेल)
... जारी
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