१९६५ के राष्ट्रपति चुनाव पाकिस्तान के लिए बेहद महत्वपूर्ण थे. अयूब खान को अपनी जीत का पक्का यक़ीन था. लोकतांत्रिक विपक्ष सिद्धांत और धर्म के आधार पर विभाजित था. मोहम्मद अली ज़िन्ना की बहन फ़ातिमा ज़िन्ना के राजनीति में प्रवेश करते ही सारी समीकरण बदल गयी. उन्हें मादर-ए-मिल्लत यानी राष्ट्रमाता के नाम से जाना जाता था. जल्द ही वे एक ऐसा केंद्र बन गईं जिनके चारों तरफ़ तमाम लोकतांत्रिक शक्तियां इकठ्ठा हो गईं. हबीब जालिब ने भी उत्साह के साथ उनके साथ जाना स्वीकार किया. कहा जाता है कि उन दिनों चुनावी सभाओं में लोग फ़ातिमा ज़िन्ना के भाषण और जालिब साहब की कविता सुनने जाया करते थे. बेहद संवेदनशील होते थे ये जलसे जिनमें अयूब खान का खुला विरोध किया जाता था. अपनी विशिष्ट शैली में जालिब ने लिखा – “माँ के पाँव तले जन्नत है; इधर आ जाओ.”
चुनाव जीतने के लिए अयूब खान ने एड़ी चोटी का जोर लगा रखा था. धर्मगुरुओं
से पूछा जाता था कि क्या एक इस्लामी राष्ट्र का नेतृत्व कोई औरत कर सकती है? प्रेस
और छात्रों को बड़े इनामात के वायदे किये जा रहे थे. अप्रत्यक्ष चुनावों का मतलब था
कि उनमें आसानी से धांधली की जा सकती थी. जैसी कि उम्मीद थी अयूब खान चुनाव जीत
गए. वोट उन्हें अलबत्ता ६४% ही मिले. चीज़ों की बढती कीमतों और भारत से १९६५ युद्ध
में मिली पराजय के बाद अयूब खान को सत्ता छोडनी पड़ी और उनकी जगह एक और तानाशाह
जनरल याह्या खान सत्तासीन हुए. याह्या खान अयूब खान से किसी भी तरह अलहदा न थे और
उन्होंने देश पर मार्शल लॉ लगा दिया. वे जो समझते थे कि हबीब जालिब की अयूब खान से
कोई जाती दुश्मनी थी, उन्हें बहुत निराश होना पड़ा क्योंकि यह शायर किसी भी तरह की
तानाशाही के खिलाफ था. दस साल की पाबंदी के बाद हबीब जालिब को मुर्री में एक मुशायरे
में कवितापाठ का न्यौता मिला. इस बात का ख़ास ख़याल रखा गया कि जालिब महफ़िल न लूटने
पाएं. उन्हें दिलावर फ़िगार के तुरंत बाद कवितापाठ करना था. दिलावर को अपनी हास्य
कविता के कारण शहंशाह-ए-ज़राफ़त का खिताब मिला हुआ था. सोचा ये गया था कि दिलावर की अपार
लोकप्रियता के बाद जालिब की कविता श्रोताओं पर ख़ास असर नहीं डाल सकेगी. नियत समय
पर जालिब उठे और उन्होंने याह्या खान का चित्र खेंचना शुरू किया –
“तुमसे पहले वो जो एक यहाँ तख़्त नशीं था
उसको भी अपना खुदा होने का इतना ही यकीं था
कोई ठहरा हो जो लोगो कि तो बताओ
वो कहाँ है, के जिन्हें नाज़ अपने तईं था.”
मार्शल लॉ हटाया गया और १९७० में आम चुनाव हुए. एक आदमी-एक वोट के
आधार पर हुए इन चुनावों ने पाकिस्तान को और गहरे संकट में धकेल दिया. अवामी लीग ने
मुजीब-उर-रहमान के नेतृत्व में १६७ सीटें जीतीं जबकि जुल्फिकार अली भुट्टो की
पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने ८१. भुट्टो ने मुजीब को प्रधानमंत्री मानने से इनकार
कर दिया. मुजीब की भरी जीत की वजह उनका चुनावी घोषणापत्र था जिसमें पूर्वी
पाकिस्तान को अधिक स्वायत्तता देने की बात कही गई थी. इसमें अलग करेंसी, अलग सेना
और अलग पुलिस की बात की गयी थी. याह्या खान ने दुबारा से मार्शल लॉ लगा दिया और
अवामी लीग को देशद्रोह के आरोप में प्रतिबंधित कर दिया. इसके बाद जनरल टिक्का खान
को पूर्वी पाकिस्तान का सैन्य प्रशासक बना दिया गया. सेना ने ऑपरेशन सर्चलाईट चला
कर विरोधियों को चिन्हित करने और ख़त्म करने का काम शुरू कर दिया. मानवाधिकारों के
भीषण हनन के इस दौर में करीब तीन लाख पूर्वी पाकिस्तानी नागरिक मारे गए. पश्चिमी
पाकिस्तान में हबीब जालिब उन बहुत कम लोगों में थे जिन्होंने इस सैन्य कार्रवाई का
विरोध किया. उन्होंने लिखा –
“मोहब्बत गोलियों से बो रहे हो
ज़मीन का चेहरा खून से धो रहे हो
गुमां तुमको कि रस्ता कट रहा है
यकीं मुझको कि मंजिल खो रहे हो.”
(जारी)
1 comment:
सुंदर !
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