‘पहल- १५’ (अक्टूबर १९८०) से साभार
[हसरत मोहानी की जन्मशती अक्टूबर में पड़ रही है. वे असाधारण व्यक्ति थे. साम्यवादी आन्दोलन से भी उनका सम्बन्ध रहा. १९३५ में प्रगतिशील लेखक संघ के वे स्वागताध्यक्ष थे. पाकिस्तान के साहित्यकार इंतज़ार हुसैन ने हसरत मोहानी पर प्रस्तुत नोट लिखा है. ‘पहल’ की तरफ से श्रद्धांजलि.]
हसरत मोहानी की मसरूफ़ियतें दो
थीं, जेल जाना और ग़ज़ल लिखना. वैसे इस बुज़ुर्ग के यहाँ सियासत और शायरी शऊर (चेतना)
के दो अलग-अलग तर्क थे. ग़ज़ल का अपना रंग था, सियासी सरगर्मी का अपना रंग था. हां
इन दो रंगों के दरम्यान एक चीज़ मुश्तरक थी. वह थी उस शख्स़ की हिंसात्मक ईमानदारी.
इस प्रवृत्ति का पूरा इज़हार आज उनकी सियासी ज़िन्दगी में भी देख लीजिये. इस
प्रवृत्ति के वास्ते से दोनों के दरम्यान आपस में एक रब्त है.
सियासतदां हसरत मोहानी को मत पूछो.
जब गांधी जी सिर्फ नौ-उपनिवेश का दरज़ा पाने की बात कर रहे थे, इस शख्स ने मुकम्मल
आज़ादी का नारा बुलंद किया. तहरीक-ए-आज़ादी में हसरत मोहानी पहले आदमी हैं जिन्होंने
यह नारा बुलंद किया. रहनुमा कांग्रेस के अहमदाबाद इजलास में सब ही नामी-गिरामी जमा
थे. मगर उनका सियासी शऊर अभी दर्ज़ा-ए-नौ-आबादियात में अटका हुआ था. इस इजलास में हसरत
मोहानी ने मुकम्मल आज़ादी का तसव्वुर पेश किया.
इस रवैये का नतीजा यही निकलना था
कि उम्र कैदोबंद में बसर हुई. सो हसरत मोहानी घर में कम रहते जेल में ज्यादा, मगर
उस बन्दे ने जीने का अजब तौर निकाला था कि किसी तौर कोई फर्क ही नहीं पड़ता था. घर
में रहे तो क्या जेल में रहे तो क्या. जब ज़िन्दगी का सारा साज़ोसामान मुख्तसर होते
होते एक लोटे और जानमाज़ तक रह जाए तो फिर जेलखाना आदमी का क्या बिगाड़ सकता है.
लिबास के नाम मोटे-छोटे कपड़े जिनमें एक वह टोपी थी जिस पर मैल इस कदर चढ़ा था कि
उसका अपना कोई रंग ही नहीं रहा था. हाथ में छड़ी मगर यह छड़ी भी अजब थी. छतरी ने जब
अपनी कमानियों और कपड़े से पिंड छुडा लिया तो हसरत मोहानी की छड़ी बन गयी. एक हाथ में
छड़ी, दूसरे में टाट का एक थैला जिसमें एक जोड़ी कपड़े और एक जानमाज़ रहती थी. साथ में
एक टूटा-फूटा लोटा.
मौलाना हसरत मोहानी शायर भी थे और
आशिक़ भी. पाकबाज़ी अपनी जगह इश्क़बाज़ी अपनी जगह. सो इस मर्द बुजुर्ग ने अर्शाएजहाज़
पर इश्क़ किया और इस कलंदर ने सारी उम्र अपने अहद के अन्याय और पाप के खिलाफ जेहाद
किया. मगर फिर पाप से भरी शायरी की. मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी शायरी को फासिक़ाना
(पापपूर्ण) शायरी का नाम दिया और इश्क़िया शायरी का क्या वह तो जिगर मुरादाबादी तक
ने की है. मगर फासिक़ाना शायरी जिस रवैये की पैदावार थी, उसे तो हसरत मोहानी अपने
साथ ले गए. अब तो यार लोग ज़िन्दगी फासिक़ाना करते हैं और शायरी में शहीद बनते हैं.
जिसने ज़िन्दगी में शहादत पेश की उसने अपनी शहादत को कभी बांस पर नहीं चढ़ाया –
पैदा कहाँ हैं ऐसे परागन्दः तबा
लोग
अफ़सोस तुमको 'मीर' से सोहबत नहीं
रही.
1 comment:
बहुत सी हस्तियाँ है यहाँ सुंदर :)
Post a Comment