मनमोहन देसाई की फिल्मों पर एक किताब ‘मनमोहन देसाईज़
फिल्म्स – एनचांटमेंट ऑफ़ द माइंड’ लिख चुकीं कॉनी हाम ने पेरिस, ऑस्टिन और टैक्सस
में अंग्रेज़ी अध्यापन का कार्य किया है. बॉलीवुड पर उनकी तीखी नज़र हमेशा रही है और
एक ज़बरदस्त शोधार्थी के रूप में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किये हैं. उनकी आने
वाली किताब का शीर्षक है – ‘शो मी योर वर्ड्स – द पावर ऑफ़ लैंग्वेज इन बॉलीवुड’.
कॉनी हाम ने फरवरी २००७ में अभिनेता कादर ख़ान का एक लंबा साक्षात्कार
किया था. उसी का अनुवाद आज से कबाड़खाने के पाठकों के लिए पेश किया जाता है.
एक्सक्लूसिव कबाड़ –
फिल्मों में कादर ख़ान के लम्बे करियर की शुरुआत १९७० के दशक
के प्रारम्भिक वर्षों में हुई थी. तब से अब तक वे ३०० से अधिक फिल्मों में काम कर
चुके हैं. अपनी मुलायम आवाज़ और कुटिल मुस्कान की खूबियों से खलनायक के कई चरित्र
निभाने के बाद वे अंततः कैरेक्टर और कॉमिक भूमिकाओं में अपने को स्थापित करने में
सफल रहे. शब्दों के साथ उनके बर्ताव ने कई लोगों की दिलचस्पी को हवा दी है. मैं भी
उनमें से एक हूँ. करीब ८० फिल्मों के डायलॉग्स लिख चुकने के बाद आज उनके नाम
हिन्दी सिनेमा की कई यादगार पंक्तियाँ हैं. जब मैं मनमोहन देसाई वाली किताब पर काम
कर रही थी, मुझे उम्मीद थी मैं कादर ख़ान से बात कर सकूंगी. मुझे पता था कि देसाई कादर
ख़ान को अपनी सफलता का बड़ा हिस्सा मानते हैं. कादर ख़ान की भाषा को उन्होंने एक नाम
भी दिया था.
“अगर मैं सड़कछाप डायलॉग्स का इस्तेमाल करता हूँ तो उसके
पीछे मकसद यह रहता है कि वह आसानी से समझ में आ जाती है. मैंने जितने भी डायलॉग लेखकों
के साथ काम किया है, कादर ख़ान उनमें सर्वश्रेष्ठ हैं. उन्हें बोलचाल के मुहाविरे
का अच्छा ज्ञान है. मैंने उनसे बहुत सीखा है.”
कई वर्षों बाद जब मुझे कादर ख़ान से मिलने का सौभाग्य मिला
तो मैंने कादर ख़ान के मुंह से ठीक ऐसी ही बातें मनमोहन देसाई के लिए सुनीं. ‘अमर,
अकबर, एन्थनी’, ‘कुली’ और ऐसी तमाम फिल्मों की सफलता का सेहरा निर्देशक और लेखक की
जुगलबंदी को जाता है – दोनों को ही दर्शकों के स्पीच पैटर्न्स और लय का पूरा
अंदेशा रहता था. हिन्दी फिल्मों को सिर्फ देखा ही नहीं जाता. उन्हें सुना भी जाता
है. यह दूसरी वाली बात ज़्यादा मार्के की है.
इस साक्षात्कार में कादर ख़ान अपनी पृष्ठभूमि, फिल्मों में
अपने प्रवेश, अपने काम के आयामों, अपनी अभिरुचियों और दीवानगियों की बाबत खुलकर
बात कर रहे हैं. हालांकि फिल्मों में काम करने के लिए उन्होंने अध्यापन का काम छोड़
दिया था पर उनके भीतर का अध्यापक अब भी गतिशील है. आज वे तमाम शैक्षिक प्रोजेक्ट्स
से जुड़े हुए हैं, ख़ास तौर पर मुस्लिम समाज के लिए. और इस साक्षात्कार के समय भी वे
मेरे लिए एक अध्यापक बन गए थे – ग़ालिब की पंक्तियाँ समझाते हुए, यह दिखलाते हुए कि
किस तरह मेटाफ़र और एनालजी की मारफ़त एक अभिनेता अपनी आवाज़ के उतार-चढ़ावों से
विचारों में जीवन्तता पैदा कर सकता है.
मैं उत्तम बनर्जी की आभारी हूँ जिन्होंने हिन्दी-उर्दू
लिप्यान्तरण में सहायता की और मैं कादर ख़ान की भी आभारी हूँ जिन्होंने मुझे अपने
शब्दों से नवाज़ा.
रंगमंच से शुरुआत –
कादर ख़ान – रंगमंच ने मुझे बहुत मदद
पहुंचाई. हाँ, मैंने ८-९ की उम्र से थियेटर में काम करना शुरू कर दिया था. देखिये,
महबूब ख़ान की फिल्म ‘रोटी’ में एक बूढ़ा एक्टर थे. उनका नाम था अशरफ़ ख़ान. बड़े नामी
कलाकार थे. वो एक नाटक तैयार कर रहे थे – वमाज़ अज़रा, ‘रोमियो जूलियट’ टाइप
का नाटक था. एक नन्हे राजकुमार की ज़रुरत थी. वही मेन कैरेक्टर था. तो आठ या नौ साल
के एक ऐसे लड़के को कहाँ खोजा जाए जो कोई चालीसेक पन्ने लिख सके और उन्हें एक लाइव ऑडीएन्स
के सामने बोल सके?
उन दिनों मेरा परिवार बहुत गरीब था और हम झोपडपट्टी में रहा
करते थे. माँ मुझे प्रार्थना करने के लिए मस्जिद भेजा करती थी. मैं वहाँ से भाग कर अकेला
कब्रिस्तान चला आता और दो कब्रों के दरम्यान ज़ोर ज़ोर से चिल्ला कर बोला करता. शायद मैंने
किसी को देखा होता था, मैं देखता था कि फलां आदमी ने काम अच्छा किया या इस में इस
शख्स ने लफ्ज़ अच्छा बोला. तो मैं उसकी नकल किया करता ...और फिर वो एक डेढ़ घंटे
बाद जब नमाज़ ख़तम होती थी, मैं अपने घर चला जाता. और माँ अक्सर मेरी चोरी पकड़
लेतीं. मैं चप्पल तो कभी नहीं पहनता था न! नंगे पैर रहता था. वो मुझे पकड़ लेती थीं
क्योंकि आप मस्जिद में जा के वुजू करते हैं जबकि मेरे पैर देखकर वे कहतीं – “तुम्हारे
पैर गंदे हैं. मतलब तुम मस्जिद गए ही नहीं.”
कॉनी हाम – तो आप खूब आंखमिचौली किया करते
थे?
कादर ख़ान – क्या करें? रिवोल्यूशन बाई बर्थ
होता है इन्सान के अन्दर. आदमी तो पैदा ही विद्रोही होता है. तो कुछ लोगों ने जाकर
अशरफ़ ख़ान साहब से कहा कि एक लड़का है; वो रात को दो कब्रों के बीच अकेला बैठा रहता
हैं और चीखता चिल्लाता रहता है. तो वे कई रातों तक मुझे देखते रहे और एक रात
उन्होंने अपनी टॉर्च की रोशनी मुझ पर फेंक कर कहा -
“इधर आओ. तुम ये क्या बोलते रहते हो वहाँ बैठ के?”
“इधर आओ. तुम ये क्या बोलते रहते हो वहाँ बैठ के?”
“कुछ नहीं. ऐसे ही, जो अच्छा लगता है, बोलता हूँ मैं.”
उन्होंने मुझे घूर कर देखा. “ड्रामे में काम करोगे?”
मैंने पूछा -“ड्रामा क्या है?”
“जो तुम कर रहे हो, इसी को जोर जोर से बोला जाए, तो वो
ड्रामा कहलाता है.”
“नहीं मैंने कभी किया नहीं ये.” मैं उनसे कह रहा था.
उन्होंने अपने आदमी से कहा कि मुझे अगले दिन शहर में उनके
छोटे बंगले पर ले कर आये. मैं वहां गया. उन्होंने मेरी ट्रेनिंग शुरू की. और उनके
मार्गनिर्देशन, प्यार और पितृवत स्नेह की बदौलत मैं महीने भर में रोल के लिए तैयार
हो गया. डेढ़ महीने बाद नाटक का शो हुआ. दर्शकों ने खड़े होकर मुझे शाबासी दी. और तब
एक बूढ़े सज्जन आदमी स्टेज पर आये और उन्होंने मुझे सौ रूपये का नोट दिया. वे बोले “इस
उम्र में तुम्हारे लिए यह काफ़ी बड़ी रकम है. यह तुम्हारे लिए एक सर्टिफिकेट है.
हमेशा याद रखना कि ये सर्टिफिकेट तुम्हें बहुत छोटी उम्र में दे दिया गया था. मेरी
दुआएं तुम्हारे साथ हैं.” उन्होंने बस मेरे सिर पर हाथ रखा और फिर कहीं गायब हो गए.
मुझे नहीं पता वो कौन थे. सौ रूपये का वो नोट कई सालों तक मेरे साथ रहा. लेकिन
गरीबी में लोग सम्मान और ट्राफियां तक बेच देते हैं. मेरी भी ऐसी कुछ परिस्थिति
बनी कि घर के लिए खाना लाने के लिए मुझे उस नोट को खर्च करना पड़ा.
फिर मैंने लिखना और निर्देशन करना शुरू किया. मैंने एक
तकनीकी स्कूल से शिक्षा प्राप्त की. मेरे प्रिंसिपल बहुत अच्छे आदमी थे. मुझे
थियेटर करते हुए देखना उन्हें बहुत अच्छा लगता था. फिर मैं दूसरे कॉलेज में चला
गया. वहां मैंने बहुत सारे नाटक किये. दो-तीन सालों में मैं कॉलेज के छात्रों के
बीच इतना लोकप्रिय हो गया था कि बम्बई के लोग कहने लगे थे कि अगर किसी ने कादर ख़ान
के नाटकों में काम नहीं किया तो वह बम्बई के किसी कॉलेज में नहीं गया. दूसरे
कॉलेजों के छात्र आकर मेरे ऑटोग्राफ़ ले जाया करते थे. सो पॉपुलर तो मैं जीवन की
काफ़ी शुरूआत में हो गया था.
फिर मैंने पढ़ाना शुरू किया. मूलतः मैं एक सिविल इंजीनियर
था. मैं स्ट्रक्चर, हाईड्रौलिक्स, आरसीसी स्टील वगैरह के बारे में पढ़ाया करता था.
लेकिन मेरी दिलचस्पी थियेटर में थी. स्टानिस्लाव्स्की, मैक्सिम गोर्की, चेखव और
दोस्तोवस्की मेरे दूसरे अध्यापक थे. तो इस तरह दो हिस्सों में बंटी हुई ज़िन्दगी
थी मेरी.
(जारी)
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