फ़िल्म के बाद चीख़
- रघुवीर सहाय
इस ख़ुशबू
के साथ जुड़ी हुई
है एक
घटिया फ़िल्म की दास्ताँ
रंगीन
फ़िल्म की
ऊबे अँधेरे
में
खड़े हुए
बाहर निकलने से पहले बंद होते हुए
कमरे में
एक बार
भीड़ में
जान-बूझ
कर चीख़
ना होगा
जिंदा
रहने के लिए
भौंचक
बैठी हुई रह जाएँ
पीली कन्याएँ
सीली चाचियों
के पास
टिकी रहे
क्षण-भर को पेट पर
यौवन के
एक महान क्षण की मरोड़
फ़िर साँस
छोड़ कर चले
जनता
सुथन्ना
सम्हालती
सारी जाति
एक झूठ को पीकर
एक हो
गयी फ़िल्म के बाद
एक शर्म
को पीकर युद्ध के बाद
सारी जाति
एक
इस हाथ
को देखो
जिसमे
हथियार नहीं
और अपनी
घुटन को समझो, मत
घुटन को
समझो अपनी
कि भाषा
कोरे वादों से
वायदों
से भ्रष्ट हो चुकी है सबकी
न सही
यह कविता
यह मेरे
हाथ की छटपटाहट सही
यह कि
मैं घोर उजाले में खोजता हूँ
आग
जब कि
हर अभिव्यक्ति
व्यक्ति
नहीं
अभिव्यक्ति
जली हुई
लकड़ी है न कोयला न राख
क्रोध, नक्कू क्रोध, कातर क्रोध
तुमने
किस औरत पर उतारा क्रोध
वह जो
दिखलाती है पैर पीठ और फ़िर
भी किसी
वस्तु का विज्ञापन नहीं है
मूर्ख, धर्मयुग में अस्तुरा बेचती है वह
कुछ नहीं
देती है बिस्तर में बीस बरस के मेरे
अपमान
का जवाब
हर साल
एक और नौजवान घूँसा
दिखाता
है मेज़ पर पटकता है
बूढों
की बोली में खोखले इरादे दोहराता है
हाँ हमसे
हुई जो ग़लती सो हुई
कहकर एक
बूढा उठ
एक सपाट
एक विराट एक खुर्राट समुदाय को
सिर नवाता
है
हर पांच
साल बाद निर्वाचन
जड़ से
बदल देता है साहित्य अकादमी
औरत वही
रहती है वही जाति
या तो
अश्लील पर हंसती है या तो सिद्धान्त पर
सेना का
नाम सुन देशप्रेम के मारे
मेजें
बजाते हैं
सभासद
भद भद कोई नहीं हो सकती
राष्ट्र
की
संसद एक
मंदिर है जहाँ किसी को द्रोही कहा नहीं
जा सकता
दूधपिये
मुँहपोंछे आ बैठे जीवनदानी गोंद-
दानी सदस्य
तोंद सम्मुख धर
बोले कविता
में देशप्रेम लाना हरियाली प्रेम लाना
आइसक्रीम
लाना है
भोला चेहरा
बोला
आत्मा
नें नकली जबड़ेवाला मुँह खोला
दस मंत्री
बेईमान और कोई अपराध सिद्ध नहीं
काल रोग
का फल है अकाल अनावृष्टि का
यह भारत
एक महागद्दा है प्रेम का
ओढने-बिछाने
को, धारण कर
धोती महीन
सदानंद पसरा हुआ
दौड़े
जाते हैं डरे लदेफंदे भारतीय
रेलगाड़ी
की तरफ़
थकी हुई
औरत के बड़े दाँत
बाहर गिराते
हैं उसकी बची-खुची शक्ति
उसकी बच्ची
अभी तीस साल तक
अधेड़
होने के तीसरे दर्जे में
मातृभूमि
के सम्मान का सामान ढ़ोती हुई
जगह ढूँढती
रहे
चश्मा
लगाए हुए एक सिलाई-मशीन
कंधे उठाये
हुए
वे भागे
जाते हैं जैसे बमबारी के
बाद भागे
जाते हों नगर-निगम की
सड़ांध
लिये-दिये दूसरे शहर को
अलग-अलग
वंश के वीर्य के सूखे
अंडकोष
बाँध .
भोंपू
ने कहा
पांच बजकर
ग्यारह मिनट सत्रह डाउन नौ
नंबर लेटफारम
सिर उठा
देखा विज्ञापन में फ़िल्म के लड़की
मोटाती
हुई चढ़ी प्राणनाथ के सिर उसे
कहीं नहीं
जाना है.
पाँच दल
आपस में समझौता किये हुए
बड़े-बड़े
लटके हुए स्तन हिलाते हुए
जाँघ ठोंक
एक बहुत दूर देश की विदेश नीति पर
हौंकते
डौंकते मुँह नोच लेते हैं
अपने मतदाता
का
एक बार
जान-बूझकर चीख़ना होगा
ज़िंदा
रहने के लिये
दर्शकदीर्घा
में से
रंगीन
फ़िल्म की घटिया कहानी की
सस्ती
शायरी के शेर
संसद-सदस्यों
से सुन
चुकने
के बाद.
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