(पिछली क़िस्त से आगे )
कमाठीपुरा
मेरा परिवार मूलतः काबुल का रहनेवाला था. वहीं मैं एक कट्टर मुस्लिम परिवार में जन्मा. मेरे
वालदैन बेहद ग़रीब थे. खाने के लाले थे. मुझसे पहले मेरे तीन भाई और थे जो आठ साल
साल के होते होते मर गए. जब मैं पैदा हुआ, मेरी माँ ने कहा “नहीं, ये जगह मेरे
बेटे के लिये नहीं”. मेरी माँ को भय था कि काबुल की ज़मीन और वहाँ की आबोहवा उसके
बच्चों के लिए मुफ़ीद नहीं थी. वह बोली, “मुझे यहाँ से कहीं और जाना होगा.” उन्हें
पता ही नहीं था वे कहाँ जाते थे. बहरहाल वहाँ से निकल पड़े और पता नहीं
कैसे अल्लाह जाने वे बम्बई पहुँच गए. अनजान जगह. अनजान मुल्क. अनजान शहर. जाने-मिलने को कोई
जगह-लोग नहीं. पास में धेला नहीं. वे बंबई की सबसे बुरी झोपड़पट्टी कमाठीपुरा आ गये. इमारतें
बनाने वाले सारे मजदूर वहाँ रहा करते थे. लेकिन यह बहुत खराब झोपड़पट्टी थी. सारे
के सारे रंडीखाने वहाँ. आप किसी भी बुरी चीज़ के बारे में सोचिये, वो वहाँ थी. इसे
एशिया की सबसे बुरी झोपड़पट्टी कहा जाता है. धारावी एक झोपड़पट्टी है पर कमाठीपुरा
तो उससे भी ख़राब था. धारावी में सिर्फ झोपड़ों की कतारें हैं, पर यहाँ झोपड़े ही
नहीं थे – वेश्याएं, अफ़ीम, गांजा, चरस सब कुछ था. अगर किसी ने अपनी ज़िन्दगी तबाह
करनी हो तो उसे यहाँ जाना चाहिए. पहले दर्जे से सिविल इंजीनियरिंग के डिप्लोमा तक
मैं वहीं रहा.
पढ़!
मैंने और लडकों को देखा जो काम पर जाया करते थे और अपने घर
के खाने के लिए पैसा कम कर लाते थे. कभी कभी जब घर में खाने को कुछ नहीं होता था
तो मैं सोचा करता था कि मुझे भी जाकर किसी वर्कशॉप, गैरेज या होटल में काम करना
चाहिए. एक दिन मैं हारने ही वाला था जब मुझे अपने कंधे पर एक हाथ महसूस हुआ. मेरी
माँ खड़ी थीं. वे बोलीं’ “मुझे पता है तू कहाँ जा रहा है. मैं जान सकती हूँ. तू कुछ
लड़कों से बातें कर रहा था. तू दिन में दो या तीन रुपये कमाने वाला है. लेकिन तेरे कमाए
दो-तीन रुपयों से इस घर की गरीबी नहीं मिटने वाली. सारी ज़िन्दगी तीन रुपया चार
रुपया तू कमाता रहेगा. अगर तुझे इस घर की गरीबी उठानी है तो तुझे पढ़ना होगा.”
जिस तरीके से उसने मुझसे “पढ़!” कहा, उसने पारे की बूँद जैसा
काम किया. वह मेरे सिर पर गिरी और मेरी नसों में जा मिली. मैं उसे अब भी महसूस कर
सकता हूँ. मेरा सारा बदन कांपने लगा. और तब मैंने फैसला किया कि मैं अपनी माँ को कभी
धोख़ा नहीं दूंगा. मैंने पढ़ना शुरू कर दिया. हमारे पास दो कमरे नहीं थे. गणित में
बहुत सारे जोड़-भाग करने होते थे. इसके लिए मैं चॉक का डिब्बा खरीद लाता था. मेरे
पास कागज़ नहीं होता था सो मैं कमरे के पूरे फर्श पर लिखाई करता था और फिर उसे मिटा
देता. मेरी माँ रात भर एक कोने में बैठी रहती और मुझे पढ़ाई करता हुआ देखती. वह
मुझे आधी रात को जगा देती “उठ, पढ़ाई शुरू कर!”
(जारी)
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स्टानिस्लाव्स्की, मैक्सिम गोर्की, चेखव और दोस्तोवस्की मेरे दूसरे अध्यापक थे
(जारी)
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2 comments:
बहुत खूब !
आमीन
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