मुंशी
प्रेमचंद से सम्पादन में निकलनेवाले ‘हंस’ के आत्मकथा अंक का प्रकाशन आज से कोई
अस्सी बरस पहले हुआ था. इस अंक से से एक शानदार आलेख जनाब राजकुमार केसवानी के
ब्लॉग बाजे वाली गली से साभार लेकर यहाँ आपके लिए प्रस्तुत किया जा रहा है.
क्या
ज़माना रहा होगा! कैसे कैसे लोग थे! ...
शिवपूजन सहाय अपनी पत्नी के साथ |
‘मतवाला’ कैसे निकला
शिवपूजन
सहाय
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‘हंस’ का यह ‘आत्मकथांक’
है. इसमे आत्मकथा ही लिखनी चाहिये. किंतु मेरी आत्मकथा. आरम्भ से आज
तक, इतनी भयावनी है कि सचमुच यदि मैं ठीक-ठीक लिख दूं,
तो बहुत से लोग विष खाकर सो रहें, या नहीं तो
मेरे ऊपर इतने अधिक मान-हानि के दावे दायर हो जायें, कि मुझे
देश छोड़कर भाग जाना पड़े. इसलिये मैं सब बातों को छिपाकर आत्मकथा नहीं लिखूंगा,
और फिर मेरी आत्मकथा में कोई सीखने लायक सबक भी तो नहीं है. खैर,
जाने दीजिये, ‘मतवाला’ की
जन्म कथा, संक्षेप में, सुन लीजिये ;
क्योंकि विस्तार करने पर फिर वही बात होगी.
सन
1920-21 में महात्मा गांधी के अहिंसात्मक असहयोग की आंधी उठी. मैं जंगल के सूखे
पत्ते की तरह उड़ चला. पहले ‘आरा’ नगर (बिहार) के टाउन स्कूल में हिन्दी शिक्षक था, अब
वहीं के नये राष्ट्रीय विद्यालय में हिन्दी शिक्षक हुआ. कुछ महीनों तक छोटी-मोटी
लीडरी ही रही. बाद में आरा के दो मारवाड़ी युवकों – नवरंगलाल
तुल्स्यान और हरद्वार प्रसाद जालान – के उत्साह से ‘मारवाड़ी सुधार’ नामक सचित्र मासिक-पत्र, मेरे ही सम्पादकत्व में निकला. उसको छपवाने के लिये मैं पहले पहल कलकत्ता
गया. इसके बाद धनी मारवाड़ियों से सहायता लेने के लिये हाथरस,
दिल्ली, इंदौर, जयपुर, बम्बई आदि अनेक
बड़े नगरों में महीनों घूमता फिरा. किसी तरह दो साल ‘मारवाड़ी
सुधार’ निकला. इसकी बड़ी लम्बी कहानी है.
‘मारवाड़ी सुधार’ का अंतिम अंक जब छप रहा था, तब मैं कलकत्ता में था. उस समय ‘बालकृष्ण प्रेस’
शंकरघोष लेन के मकान नं. 23 में था. वहीं मैं रहता था. प्रेस के
मालिक बाबू महादेव प्रसाद सेठ और मुंशी नवजादिकलालजी श्रीवास्तव प्रेस में ही रहते
थे. ऊपर वाले खंड मॆं रामकृष्ण मिशन के सन्यासी लोग थे, जिनके
साथ पण्डित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भी थे. ‘निराला’ जी रामकृष्ण
कथामृत का अनुवाद और ‘समन्वय’ का
सम्पादन करते थे. ‘समन्वय’ के संचालक
स्वामी माधवानंद आचार्य द्विवेदीजी से मांगकर ‘निराला’
जी को वहां ले गये थे. और मुंशी नवजादिकलालजी श्रीवास्तव उस समय ‘भूतनाथ तैल’ वाले प्रसिद्ध किशोरीलाल चौधरी की कोठी
में मैनेजर थे. इसलिये अधिकतर चौधरीजी का ही काम प्रेस में होता था.
एक
दिन मुन्शीजी बाज़ार से बंगला साप्ताहिक ‘अवतार’
खरीद लाये. वह हास्य-रस का पत्र था. शायद एक ही पैसा दाम था और शायद
पहला ही अंक भी था ; किंतु उसी पर छपा था –
Guaranteed
Circulation .0000000000001. मसाला भी मज़ेदार था. खूब पढ़ा गया.
सोचावट होने लगी – इसी ढंग का एक पत्र हिन्दी में निकाला
जाय. रोज़ हर घड़ी चर्चा छिड़ी ही रहती थी. कितने ही हवाई किले बने और कितने ही उड़
गये. बहुत मंथन के बाद विचारों में स्तम्भन आया. उसी दम बात तय हो गई. बीजारोपण हो
गया. ता. 20 अगस्त 1923 रविवार को सिर्फ बात पक्की हुई. ता. 21 को मुंशीजी ने ही
पत्र का नामकरण किया – ‘मतवाला’. मुन्शीजी
को दिन-रात इसी की धुन थी. नाम को सबने पसन्द किया. अब कमिटी बैठी. विचार होने लगा
– कौन क्या लिखेगा – पत्र में क्या
रहेगा, इत्यादि. ‘निराला’ जी ने कविता और समालोचना का भार लिया. मुंशीजी ने व्यंग-विनोद लिखना
स्वीकार किया. मैं चुप था. मुझमें आत्मविश्वास नहीं था. बैठा-बैठा सब सुन रहा था.
सेठजी भंग का गोला जमाये सटक गुड़गुड़ा रहे थे. मुझसे बार-बार पूछ गया. डरते-डरते
मैने कहा – मैं भी यथाशक्ति चेष्टा करूंगा. सेठजी ने कहा –
आप लीडर (अग्रलेख) लिखियेगा, प्रूफ देखियेगा,
जो कुछ घटेगा सो भरियेगा.
मैं
दहल गया. दिल धड़कता था. मेरी अल्पज्ञता थरथराती थी. ईश्वर का भरोसा भी डगमगा रहा
था. हड़कम्प समा गया. अथाह मंझधार में पड़ गया.
मुंशीजी
और सेठजी तैयारी में लग गये. स्तम्भों के शीर्षक चुने गये. डिज़ाईन,
ब्लाक, कागज, धड़ाधड़
प्रेस में आने लगे. चारू बाबू चित्रकार ने मुखपृष्ठ के लिये ‘नटराज’ का चित्र बनाया. देखकर सबकी तबीयत फड़क उठी. ‘निराला’ जी ने कविता तैयार कर ली, समालोचना भी लिख डाली. मुंशीजी भी रोज़ कुछ लिखते जाते थे. मैं हतबुद्धि-सा
हो गया. कुछ सूझता ही न था. श्रावण की पूर्णिमा ता. 26 शनिवार को पड़ती थी. उस दिन ‘मतवाला’ का निकलना सर्वथा निश्चित था. युवती दुलहिन
के बालक पति की तरह मेरा कलेजा धुकधुका रहा था.
ता.
23 बुधवार की रात को मैं लिखने बैठा. कई बार कई तरह से लिखा और फाड़ डाला. बहुत रात
बीत गई. नींद भी नहीं आती थी. दिमाग चक्कर काट रहा था. मन,
जहाज़ का पक्षी हो रहा था. यकायक एक शैली सूझ पड़ी. लिखने लगा. भाव
टपकने लगे. धारा चली. मन तृप्त हो गया. अग्रलेख पूरा करके सो रहा. सुबह उठते ही
सेठजी ने मांगा. तब डरते-डरते ही दिया ; किंतु ईश्वर ने लाज
रख ली. सब ने पसन्द किया. शीर्षक था – ‘आत्म-परिचय’.
कुल
मैटर प्रेस में जा चुका हा. उसका प्रूफ भी मैं देख चुका था. अब उत्साह बड़ने पर
मैने भी कुछ ‘बहक’ और ‘चलती चक्की’ लिखी. श्रावणी संवत 1980 शनिवार (23
अगस्त 1923) को ‘मतवाला’ का पहला अंक
निकल गया. था तो साप्ताहिक, मगर मासिक पत्र की तरह शुद्ध और स्वच्छ
निकला. बाज़ार में आते ही, पहले ही दिन, धूम मच गई.
वहां
सब लोग यू.पी. के निवासी थे, केवल मैं ही
बिहारी था. इसलिये मेरी भाषा का संशोधन ‘निराला’ जी कर दिया करते थे. ‘मतवाला’ मण्डल
में वही भाषा के आचार्य थे; किंतु मुंशीजी अपनी लिखी किसी
चीज़ में किसी को कलम लगाने नहीं देते थे. मुंशीजी पुराने अनुभवी थे, कई अखबारों में रह चुके थे, उर्दू-फारसी के अच्छे
जानकार थे, हाथ मंजा हुआ था. सिर्फ मैं ही बुद्धू था. अनाड़ी
था. नौ सिखुआ था. ‘निराला’ जी बड़े
स्नेह के साथ मेरी लिखी चीज़ें देखते. संशोधन करते और परामर्श देते थे.उनसे मैने
बहुत कुछ सीखा है. उनकी योग्यता का मैं कायल हूं. मुंशी जी का तो कहना ही क्या !
वह तो ‘मतवाला’ मण्डल के प्राण ही थे.
उनकी बहक का मज़ा मैं प्रूफ में लेता था. उनकी मुहावरेदार चुलबुली भाषा ने ‘मतवाला’ का रंग जमा दिया. ‘निराला’
जी की कविताओं और समालोचनाओं ने भी हिन्दी-संसार में हलचल मचा दी.
वह भी एक युग था. यदि उस युग की कथा विस्तार से कहूं, तो ‘बाढ़े कथा पार नहिं लहऊं’.
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