कुछ
दिन पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मुंबई में मुकेश अम्बानी के अस्पताल के
उद्घाटन के मौके पर दिए गए भाषण में कहा था कि आधुनिक वैज्ञानिक खोजें भारत ने
अतीत में ही कर ली थीं. उन्होंने कर्ण और गणेश का हवाला देते हुए उन्हें क्रमशः
सरोगेट मदरहुड और प्लास्टिक सर्जरी का उदाहरण बताया था. भारत के अतीत के देखने की
इस दृष्टि पर विख्यात इतिहासकार रोमिला थापर और
भौतिकविद विक्रम सोनी का महत्वपूर्ण आलेख, जो आज (7 नवंबर 2014 को 'द हिंदू'
अखबार में प्रकाशित हुआ है. आशुतोष उपाध्याय का हिन्दी अनुवाद:
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मिथक, विज्ञान और समाज
विक्रम सोनी और रोमिला थापर
कुछ लोग सोचते हैं कि प्राचीन भारतवासियों को आधुनिक
वैज्ञानिक अविष्कारों की जानकारी थी. वे मानते हैं कि सिद्ध करने के लिए भले ही
पर्याप्त वैज्ञानिक प्रमाण न हों, लेकिन ऐसी संभावनाओं को इस आधार पर समझा जा सकता है कि इनके लिए अपेक्षित
ज्ञान पांच हजार साल पहले मौजूद रहा होगा मगर जिसे सुरक्षित नहीं रखा जा सका या यह
कहा जाता है कि ऐसे ज्ञान की मौजूदगी की संभावना को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता
. इसलिए हमने सोचा कि इस नज़रिए का विश्लेषण संभवतः उपयोगी होगा.
जादुई यथार्थवाद
पौराणिक गाथाएं इस अर्थ में जादुई यथार्थवाद हैं कि अलौकिक वस्तुओं व अलौकिक
शक्तियों की कथाओं से बुने गए इनके ताने-बाने में भरपूर जादू और बहुत थोड़ा यथार्थ
होता है. मिथक मानव व्यवहारों, दुविधाओं, प्रवृत्तियों और विरोधाभासों की अतिओं का भी प्रदर्शन करते हैं. कल्पना के
मसाले को हटा कर देखिये, महागाथा मामूली धर्मोपदेश में सिमट
जाएगी.
अब देखिए किस तरह की कपोलकल्पनाएं की जाती हैं: हमारे
पास वायुयानों की भरमार थी, कई सिर और भुजाओं वाले
लोग थे, तमाम तरह के यंत्र, जिन्हें आज
के साई-फाई या वाई-फाई उपकरणों जैसा बताया जा सकता है. इन सब की खोज मिथकीय अतीत
में जड़ जमाई कल्पना की उर्वर जमीन में की गई है. इस मामले में हम प्राचीन अतीत
वाले अन्य समाजों से भिन्न नहीं हैं. क्या इन दलीलों के आधार पर हम कह सकते हैं कि
आधुनिक अविष्कार अतीत में खोजे जा चुके थे? अगर ऐसा है तो
कल्पना की एक और जबरदस्त उड़ान हमें इस मान्यता तक ले जाती है कि समस्त काल्पनिक
वस्तुएं असल में अतीत में हुई वास्तविक खोजें ही थीं. और जब मिथक लोगों के
विश्वासों में उतर जाते हैं तो पौराणिक गाथाएं धर्म का हिस्सा बन जाती हैं.
निसंदेह, कल्पना एक बेहद मजबूत रचनात्मक शक्ति है और आगे भी बनी
रहेगी. और हमारे पास ऐसे मिथक हैं जो हमारी वर्तमान कल्पनाशक्ति को धेरे रखते हैं.
अगर हम जूल्स वरने या आर्थर सी. क्लार्क को पढ़ें तो हम अंतरिक्ष की महायात्राओं
में विचरने लगेंगे, भले ही इन किस्सों का अंतरिक्ष कितना ही
अलग क्यों न हो. या अगर हम जॉर्ज ऑरवेल की 1984 को लें. यह हमें रोबोट और
कंप्यूटरनुमा इंसानों की एक सर्वसत्तावादी व्यवस्था में ले जाता है जो हम पर शासन
करती है. ऐसी कल्पनाएं कई बार भविष्यवाणियों में तब्दील हुई हैं. लेकिन यहां एक
मौलिक अंतर है. ये कल्पनाएं भविष्य के संभावित यथार्थ से संबंध बनाती हैं, जबकि भारत में आज दावे हमारे अतीत के यथार्थ से संबंध के किए जा रहे हैं.
इसलिए समय की रेखा में इसे कहां रखा जाय- भविष्य में या अतीत में?
पौराणिक गाथाओं को इनकी समृद्ध एवं विशिष्ट पहचान के
साथ पुराण समझ कर ही पढ़ा जाना चाहिए. मिस्र, यूनान, भारत और अन्य सभ्यताओं के
प्राचीन कल्पनाकारों ने मिथकों को देवताओं व अलौकिक शक्तियों के साथ जोड़कर देखा.
इसलिए समझदारी शायद इसी में होगी कि हम इन्हें इतिहास या विज्ञान के साथ उलझाएं
नहीं. मिथक प्राचीन कथाएं हैं; जबकि इतिहास वह है, जिसे वास्तव में घटा माना जाता है. विज्ञान इसका एक हिस्सा है. इतिहास की
जगह मिथकीय गाथाओं को पेश करना सही नहीं है और कुछ लोग इसे सनकीपन भी कह सकते हैं.
यह प्रवृत्ति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हाल की एक टिप्पणी में प्रदर्शित हुई
जिसमें उन्होंने पौराणिक कल्पनाओं को आधुनिक विज्ञान से जोड़ते हुए दावा किया कि आज
के अविष्कार हमारे अतीत में पहले ही खोजे जा चुके थे.
स्वप्न बनाम यथार्थ
विज्ञान सूचनाओं और संचित ज्ञान पर आधारित है. इसमें
सूचनाओं और ज्ञान का क्रमबद्ध और तार्किक विश्लेषण ज़रूरी है. स्वीकार करने से पहले
प्रमाण की विश्वसनीयता की कठिन परीक्षा ली जाती है. यह शर्त स्वाभाविक रूप से
कपोलकल्पनाओं पर लागू नहीं होती.
अविष्कार कल्पना की क्षणिक छलांग भर नहीं हैं. उन्हें
लंबे प्रसव काल से गुजरना पड़ता है; वायुयान जैसे सक्षम परिणाम तक पहुंचने से पहले उन्हें कई
अलग-अलग स्तरों व दोहरावों से होकर जाना पड़ता है. अतीत की काल्पनिक रचनाओं के बारे
में उनके विकास का कोई संरक्षित प्रमाण नहीं मिलता. यह बात सही है कि विज्ञान और
इसके आविष्कार तथा टेक्नोलॉजी कल्पना व खोजों से रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त करते हैं.
मगर, वे पूरी तरह कल्पनाओं पर आधारित नहीं होते. अगर ऐसा
होता तो वे सपने ही बने रहते, वास्तविकता में नहीं बदलते.
मौजूदा माहौल में यह प्रचार, जो अब सरकारी हो चला है, हमें जॉर्ज बुश और उन अमेरिकियों से एक कदम आगे ले जा रहा है जो विकासवाद
का खंडन करते हुए उसकी जगह 'इंटेलीजेंट डिजाइन' (जो दैवीय सिद्धांत से अलग नहीं है) की वकालत करते थे. यहां तक कि ईश्वर के
करीब माने जाने वाले पोप ने हाल ही में विकासवाद को स्वीकार करने की राय दी है.
लोग अपने विश्वासों के मामले में निष्कपट होते हैं, चूंकि विश्वासों पर उनकी प्रकृति के
कारण अमूमन कोई सवाल नहीं उठाता. ऐसे लोगों की निश्चलता का आसानी से दोहन किया जा
सकता है. इस तरह की घोषणाएं उन पर विश्वास करने वालों को अति-राष्ट्रवादी, अतार्किक, विज्ञान विरोधी और अतीत को एक खास नजरिए
से देखने की प्रवृत्ति की ओर धकेल देंगी. यह विज्ञान की वैधता को ख़ारिज करने का ही
एक ढंग है- यह कहना कि वैज्ञानिक अविष्कार तब भी मौजूद थे जब खोजों के लिए
अनिवार्य वैज्ञानिक ज्ञान का कोई सन्दर्भ नहीं मिलता. मिथकीय कल्पनाएं और धर्म बड़ी
आसानी से घुल-मिल जाते हैं. हर कोई धर्म और राजनीति के विस्फोटक मिश्रण को लेकर
चिंतित है. पौराणिक कल्पनाओं को विज्ञान और धर्म को राजनीति में मिलाकर हम विचारों
का जो विस्फोटक कॉकटेल तैयार कर रहे हैं, वह हमें मोलोतोव से
भी आगे ले जा सकता है. यह वो मंज़िल नहीं जहां हम जाना चाहते हैं.
(विक्रम सोनी जामिया मिल्लिया इस्लामिया
विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में सेंटर
फॉर थेओरेटिकल फिजिक्स से जुड़े हैं; रोमिला थापर जवाहरलाल
नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में प्राचीन इतिहास की मानद
प्रोफ़ेसर हैं. )
(अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)
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