Saturday, November 8, 2014

ज्ञानरंजन का इलाहाबाद – ५


(पिछली क़िस्त से आगे) 

वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे
इलाहाबाद के पथ पर

इसी समय निराला की बहन लिखा करती थीं “बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ.” शुरू में हमने अपने युवा दिनों में निराला की इस कविता को एक परचम की तरह लहराया. जब परचम लहराता है तो एक उत्तेजक वाह्याडंबर तरंग की तरह छा जाता है. कुछ समय से इस कविता पर मैं विचार कर रहा हूँ. इस कविता की पृष्ठभूमि या रचना-तत्व किस तरह खोजा जा सकता है, यह सवाल उत्पन्न हो रहा है. किसी भी रचनाकार की रचना के अर्थ का दावा अनर्थ भी उत्पन्न कर सकता है. कभी-कभी बहुत, अपनी सारी प्रतिभा झोंककर भी हम अर्थ या सार के कहीं आसपास रह जाते हैं. फिर भी हम इस कविता को भीतरी परतों में देखना चाहते हैं. यह कोशिश बहुत उत्तेजक, नई प्रीतिकर और राहों के अन्वेषण की तरह धूम मचाती है भीतर-ही-भीतर.

अगर इस कविता से इलाहाबाद शब्द हटा दिया जाए और हिन्दुस्तान के किसी भी शहर को वहां रख दिया जाए तो कविता में क्या फर्क पड़ेगा? क्योंकि यह दृश्य, यह यथार्थ तो हर शहर का एक ही है. निराला ने कविता में इलाहाबाद का आग्रह क्यों किया? हमारी समझ यह है कि इलाहाबाद हटाकर दूसरा नाम रख देने पर कविता बदल जाएगी और समाप्त भी हो जाएगी.

इलाहाबाद, देश की राजनीति और खासतौर पर उत्तर भारत की सक्रिय राजनीति और उससे जुड़ी हलचलों का एक जलजलेवाला शहर था. वह इन सबका केंद्र था. बाद में आज़ादी प्राप्त होने पर देश की सर्वोच्च सत्ता का केंद्र भी रहा. देश में इलाहाबाद ध्रुव तारे की तरह चमक रहा था. यहाँ कांग्रेस की नीतियों के निर्धारण को लेकर गहमागहमी थी, आंतरिक बहसें थीं और तूफ़ान भी उठते थे. लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के किन्हीं भी प्रारम्भिक अधिवेशनों में श्रमिक और असंगठित मजदूर प्रस्तावों के एजेंडे में नहीं था.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना के बीच बहुत मामूली सालों का अंतराल था. शायद दो या तीन साल का. मद्रास, बंबई और कलकत्ता के बाद यह विश्वविद्यालय बना. इलाहाबाद विश्वविद्यालय अंग्रेज़ी तहजीब के दबदबे और वातावरण का केंद्र था. उसके भीतरी और बाहरी स्थापत्य में अँगरेज़ कला और अँगरेज़ साम्राज्य की गहरी छाप है. बाद में हाईकोर्ट भी इसी ब्रिटिश न्याय की परम्परा का हिस्सा बना. इलाहाबाद नौकरशाह उत्पन्न करता रहा और कलफदार न्यायविदों के तनतने कल्चर का हिस्सा बना. विश्वविद्यालय और हाईकोर्ट की शिक्षा-प्रणाली और न्याय-व्यवस्था में कहीं भी मजदूर नहीं था.

सचिवालय को छोड़कर सभी शासकीय कार्यालय इलाहाबाद में थे और हैं. राजस्व, न्याय, पुलिस, शिक्षा, लेखा, रेलवे और लोक सेवा आयोग और राजकीय प्रेस सभी इलाहाबाद में थे और अंग्रेजों के लिए इलाहाबाद में सभी सत्ता-सूत्र मौजूद थे. अंग्रेजों के जाने के बाद इन सत्ता संस्थानों की पुरानी केंचुल जब उतरी, तब तक नक़्शे गहरे हो चुके थे और विलम्ब बहुत हो चुका था.

इलाहाबाद के बहुतेरे हिस्से संगम के सिरे पर या गंगा यमुना नदियों के पेट में बसे हैं. बीच से रेल लाइन ही चीरती है शहर को. ये विशाल नदियाँ हैं. नेहरू की वसीयत के हिसाब से उनके निधन के बाद गंगा-यमुना के ऊपर उनकी भस्म भी बिखेरी गयी थी. यह धर्म-स्थान और अखाड़ों का केंद्र है. पंडों का गहरा दबदबा है और सरगुजा, छत्तीसगढ़, बस्तर और मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचलों के भोले यात्री इन पंडों के पशु-जबड़ों में समाते रहे हैं. पंडों ने शताब्दियों में इन किसान मजदूरों के बल पर अपार संपत्ति और माफ़िया तत्व अर्जित किया. ये आग लगा देन, हत्या कर देन, टेंट खोल लें. निराला का स्थान दारागंज तो इसका अड्डा था. निराला बाद के दिनों में अक्सर दारागंज से संगम, बाँध के रास्ते जाते थे सैर को. निराला जब इलाहाबाद आए तो उनकी तेजस्वी ज्वाला-आँख और तीक्ष्ण मेधा और अपार संवेदन को किसी भी तरह का मूर्त-अमूर्त झांसा धूमिल नहीं कर सकता था. वे विलक्षण और नितांत मौलिक रूप में प्रकट हुए और चले गए.


(जारी)     

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