Saturday, December 13, 2014

शेफाली फ्रॉस्ट की कविताएँ - 3

शेफ़ाली फ्रॉस्ट की कविताएँ आप दो पोस्ट्स में यहाँ हाल के दिनों में पढ़ चुके हैं. आपने उन्हें पसंद भी किया है. आज उनकी कुछ और कवितायेँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.

टेलीविज़न एडिटिंग और प्रोडक्शन वगैरह से लम्बे समय से जुड़ी शेफाली की कविताएँ ख़ासी “विजुअल” होती हैं जो अकारण नहीं है. वे कहती हैं कि वे किसी पेंटिंग की ही तरह अपनी कविता को रचती हैं. उनमें आने वाले एक-एक शब्द एक-एक ध्वनि का अपना अर्थ होता है और वे वहां होती हैं क्योंकि उनका कोई उद्देश्य होता है.

शेफ़ाली के प्रिय चित्रकार हैं पाब्लो पिकासो.

अभी उनकी और कई कवितायेँ आपको यहाँ देखने को मिलेंगीं और शेफ़ाली के बारे में और जानने को भी. फिलहाल उनकी कुछ कवितायेँ जो ‘पब्लिक एजेंडा’ में शाया हुई थीं –



वो बची हुई जगह

झीनी सी,
उतर रहा है आसमान जहाँ ,
चढ़ती हुई ज़मीन पर,
ढूंढ रहा है काला चींटा 
झुँझलाई टांगों से 
अपने हिस्से का बाल,
सूरज की ढलती तीलियाँ 
कोंच रही हैं धड़ उसका
उड़ा देती हैं 
भाप में काले बादल की
उसका सर,
मैं जलती हुई क़तार में 
एक डरा हुआ कदम उठाती हूँ ...

बहुत होता है 

ध्वस्त शहरों में वजह ढूंढना,
वो समुद्र के किनारे 
क्यों नहीं बसे ?
क्यों बांध दिए गए 
बादलों से ढँके पहाड़ के नीचे
जहाँ सोने को साथ में 
एक सूखा जिस्म मयस्सर नहीं 

बहुत बुरा है 
महीने में एक बार 
सरहद तक आना
धीरे से पूछना 
बुलाया किसीने ?
फिर लौट जाना 

बूढ़ी टांगों वाले घर में 
पलट कर आती हैं 
आसमान से, गीली आँखें
उसने तो कहा था 
पहली बारिश है यह 
मौसम की,
यह तो थमी ही नहीं 
अरसा हुआ ...

बढ़ती लड़की 

भरे हुए पानी को 
फिर-फिर पीती गीली मिट्टी,
अपनी कौंध में फुंकी
अपनी ही रौशनी में बुझी,
खुली ज़ुबान, बंद शब्द
कटकटाते दांत लिए,
फूलती, फटती, फिर बनती
बड़ी होती बच्ची

नुक्कड़ पर मरे जिनावर की गंध जैसी
मंदिर की हर घंटी में बजती है
उसकी आस,
चाह चलती है घुटने तले
रुके तलुवे से चाटती है आसमान
सबकी आँखों में चुभती है
इठला के चलती है सड़क पर 
वो बढ़ती लड़की  

अँधेरे का रास्ता रोकती कीचड़,
कुछ बची-खुची बदनाम रौशनी,  
धुंए की फांक सी
आँखों को चबाती है 
बंजर माँ की छाती की मूंग,
थके बाप की डरी पसलियां
पूरी तरह बिखेर चुकी अपनी लोच,
धौंकते चौराहों की नज़र बचा
सड़कों पर सर धुनती हैं,
छज्जे ही छज्जे हैं 
इस शहर में
हर उबलती खिड़की के नीचे 

निर्जल बाढ़ में फूले हुए जिन्न
एक हाथ में आसमान
एक हाथ में परछाई पकड़े   
बहते हैं,
जमते हैं बहते हैं
जम जम के बहते हैं,
मरने वाली हर मांसपेशी के
अधकच्चे खोखलों पर
रुक रुक के चढ़ती है परवान
उस घर की अकेली ज़िंदा आवाज़ 

अपनी भागती हथेली को 
पत्ती भर डन्डियों के पेड़ तले
देह भर के सूंघती है 
अनायास कभी कभी
वो बड़ी लड़की
जैसे भौंचक्की सी किसी चाह को
अनजाने में  
कोई सपना मिले
दस उँगलियाँ और एक छोटी सी नाक लिए,
अधपक्का सा
अकेला . 

सब सो गए हैं 

लेकिन
वो आदमी
जिसका बुढ़ापा समझ नहीं पा रहा 
उसका बाप,
जिसके कर्रेपन में 
उसकी माँ का आलिंगन शामिल है,
तोड़ता है पत्थर 
हाथ से, पाँव से 

लपेट रहा है पहाड़
ज़बान में अपनी
किर्र किर्र बोलती है धूल
दांतों के बीच,
क्यों नहीं सो पाता
बच्चा उसका  
रात की खरहरी चारपाई पर ?

क्या है जो ज़िंदा रखता है 
उसका ओर छोर
पर मार डालता है 
भीतर ?
वो कौन सा खाना है 
जिसे खा कर 
रो रहा है खाली पेट,
जैसे उसकी आंत 
सपनों पर भारी है
और उसकी छाती पर 
एक खालीपन है,
दिल के गुज़र जाने का.


1 comment:

Ankur Jain said...

बेहद सरल शब्दों में गहरी बात...सुंदर रचना।