Wednesday, January 28, 2015

उन्होंने कितनी ही बार सिर्फ़ अपने सब्र से, दुखती कमर में, चढ़ते बुखार में खाना बनाया

कुमार अम्बुज मेरे प्रिय कवियों में हैं और उनकी कई रचनाएं इस ब्लॉग पर समय-समय पर लगाई जाती रही हैं. आज फेसबुक पर अंजू शर्मा ने इस कविता का ज़िक्र किया तो अच्छा लगा. अलबत्ता यह बात रेखांकित की जानी चाहिए कि हमारे समाज को आईना दिखाती यह कविता अब भी चौराहों पर पढ़ी जाने की दरकार रखती है.

दोबारा पोस्ट कर रहा हूँ-


खाना बनाती स्त्रियां

-कुमार अम्बुज

जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हीरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ़ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूंधा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर रस मिलाया
लेकिन आख़िर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज़

आपने उन्हें सुन्दर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर खाना बनाया
फिए बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ़ एक आलू एक प्याज़ से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ़ अपने सब्र से
दुखती कमर में, चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफ़ान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमग कर खाना बनाया

आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आंखें दिखाकर
कई बार लात लगा कर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे - उफ़, इतना नमक
और भूल गए उन आंसुओं को
जो ज़मीन पर गिरने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में, कटोरियों में

कभी उनका पूरा सप्ताह इस ख़ुशी में गुज़र गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ़ की

वे क्लर्क हुईं, अफ़सर हुईं
उन्होंने फ़र्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियां
उनके गले से, पीठ से
उनके अन्धेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है


उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुवों में जमा हो गया है ख़ून
झुकने लगी हैं रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया
आपने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालांकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है.

1 comment:

Tanuja Melkani said...

अत्यंत मार्मिक रचना।