"ड्यूक एलिंग्टन अपने जीवन के
अन्त तक लगातार नयी-नयी
रचनाएं, नये-नये राग पेश करते रहे. संगीत-कला सचमुच उनकी प्रेयसी
थी"
ड्यूक एलिंगटन |
इसमें कोई शक नहीं कि 1935-36
से 1942-43 के बीच चाहे गोरे संगीतकारों की
कुछ मण्डलियाँ बड़ी दक्षता से जैज़ बजाती रहीं, मगर जैज़ को
महानता के शिखर पर पहुँचाने का काम इन्हीं नीग्रो संगीतकारों ने किया और इसमें भी
दो रायें नहीं हैं कि इस दौर के सर्वश्रेष्ठ रिकॉर्डों में से एक ड्यूक एलिंग्टन
ने तैयार किया था. वर्ष था 1940 और रिकॉर्ड का शीर्षक था - ‘को-को’.
(को को)
मगर ड्यूक एलिंग्टन का सही जायज़ा लेने के लिए तो एक अलग लेख ही दरकार होगा.
उनकी बहुमुखी प्रतिभा और बेशकीमती योगदान का मूल्यांकन आसान नहीं है. ख़ास तौर पर
इसलिए भी कि उनके कृतित्व के कई पहलू हैं और वह कई दशकों को नापता है. लुई
आर्मस्ट्रौंग बुनियादी तौर पर वादक थे, परफ़ॉर्मर थे, उनकी प्रतिभा संगीत के
व्यवहार में व्यक्त हुई थी, जबकि ड्यूक एलिंग्टन शास्त्री और
चिन्तक थे; कम्पोज़र थे और स्रष्टा थे. संगीत के प्रति इन
दोनों महान कलाकारों के रवैये में भी बहुत फ़र्क़ था. लुई आर्मस्ट्रौंग मण्डली में
शिरकत करते हुए भी लगातार अपनी निजी दक्षता और कौशल पर ज़ोर देने, ‘मुखर’ होने के हामी थे, मगर
ड्यूक एलिंग्टन अपने अपूर्व कला-कौशल को रचना और पूरी मण्डली के हित में लीन कर
देने में विश्वास रखते थे. इन्हीं विशेषताओं के चलते अपनी बहुमुखी प्रतिभा से
ड्यूक एलिंग्टन ने जैज़-संगीत को उसका संस्कार दिया, उसे
परिष्कृत किया, श्रम और अमरीकी नीग्रो समुदाय की जातीय
स्मृति में विद्यमान गहरी भावनाओं से जुड़े इस संगीत की सामूहिकता बरकरार रखी.
शायद इसीलिए उन्होंने अपने निजी वाद्य के तौर पर पियानो पियानो को चुना था,
मगर वे सिर्फ़ संगत नहीं करते थे, वे धुनें भी
रचते थे. ऐसे में कई बार लोगों का ध्यान इस बात की ओर नहीं जाता कि ड्यूक एलिंग्टन
के उन रिकॉर्डों में, जो उन्होंने अपनी मण्डली के साथ तैयार
किये, पियानो के सुर इतने मद्धम क्यों हैं - ‘सुनाई’ क्यों नहीं देते? कारण
यह था कि ऐसे रिकॉर्डों में ड्यूक अपने अप्रतिम वादन से पूरे दल को बाँधे रखते थे.
उनकी रचनाओं में पियानो के सुर अन्य वाद्यों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करते थे,
उसी तरह जैसे माला का धागा अलग-अलग मनकों को जोड़े रखता है. लेकिन
जब-जब ड्यूक एलिंग्टन ने अपने पियानो की एकल प्रस्तुतियाँ पेश कीं, उनकी अद्भुत क्षमता चकित करती रही. मिसाल के तौर पर ‘इन अ सेण्टीमेण्टल मूड’ (भावुकता के क्षण) नामक उनकी
प्रसिद्ध रचना, जिसे उन्होंने सन पैंतीस में तैयार किया था
और जो उनकी श्रेष्ठतम रचनाओं में शुमार की जाती है.
(इन अ संटिमेंटल मूड)
हस्ब मामूल इस धुन को भी वे अपने दल-बल के साथ पेश किया करते थे, लेकिन अमरीका के प्रसिद्ध कैपिटल
स्टूडियो के संचालकों के साथ उनका पुराना वादा था कि वे एक पूरा रिकॉर्ड केवल अपने
पियानोवादन पर केन्द्रित रखते हुए तैयार करेंगे. इस वादे को वफ़ा करने में उन्हें
लगभग बीस साल लग गये. फिर एक दिन 13 अप्रैल सन 53 को ड्यूक एलिंग्टन अपने साथियों को ले कर कैपिटल स्टूडियो पहुँचे और उस
रोज़ दोपहर बाद से रिकॉर्डिंग का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह
अगली सुबह तक चलता रहा. इस एक बैठक में उन्होंने कोई बारह धुनें रिकॉर्ड करायीं,
जिनमें से अनेक धुनें बहुत लोकप्रिय हुईं.जैसे "मूड
इण्डिगो" -
(मूड इण्डिगो)
लेकिन ऐसे एकल वादन
के अवसर ड्यूक एलिंग्टन के जीवन में भी अनोखे कहे जा सकते हैं. ज़्यादातर तो वे
अपने समकालीनों और उभरते हुए नये संगीतकारों के साथ मिल कर ही अपनी बनायी धुनों को
पेश करते रहे. उनकी मण्डलियों में जैज़ का एक-न-एक अविस्मरणीय संगीतकार हमेशा रहा -
मिसाल के तौर पर सैक्सोफ़ोन-वादक जॉनी हॉजेस या ट्रम्पेट-वादक कूटी विलियम्स. यही
नहीं, बल्कि ड्यूक एलिंग्टन ने कोलमैन हॉकिन्स और उन जैसे
अन्य अप्रतिम वादकों के साथ बीसियों रिकॉर्ड बनाये और जैज़ को एक तरह से
अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान कर दिया.
(इन ए सेंटिमेण्टल मूड - ड्यूक एलिंग्टन और जौन कोल्ट्रेन)
एड्वर्ड केनेडी "ड्यूक" एलिंग्टन (1899-1974) का जन्म देश की राजधानी
वौशिंग्टन डी.सी. में हुआ था. उनके पिता और माता, दोनों
पियानो बजाते थे और उनकी मां ने सात साल की उमर ही से उन्हें पियानो सीखने के लिए
भेजना शुरू कर दिया था. साथ ही उन्हें इस बात की भी हिदायत दी थी कि वे सभ्य और
सज्जनों जैसे दिखें और वैसा ही व्यवहार करें. एलिंग्टन के तौर-तरीकों को देख कर
उनके दोस्तों ने उन्हें "ड्यूक" कहना शुरू कर दिया. इस प्रसंग पर अपने
स्वाभाविक मज़ाकिया अन्दाज़ में एक बार एलिंग्टन ने इस नामकरण का श्रेय एक दोस्त को
देते हुए टिप्पणी की थी,"मेरे ख़याल में उसे लगा
कि अगर मुझे उसकी दोस्ती के क़ाबिल बनना है तो मेरा कोई विरुद होना चाहिए, सो उसने मुझे ड्यूक कह कर बुलाना शुरू कर दिया." बहरहाल, बचपन की इस तरबियत को तो एलिंग्टन नहीं भूले, लेकिन
जहां तक पियानो का सवाल था, दिलचस्प बात यह थी कि उन्हें
पियानो और संगीत सीखने से ज़्यादा बेसबौल खेलना पसन्द था. बाद में उन्होंने याद
किया,"कभी-कभी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट अपने घोड़े पर बैठे
गुज़रते वक़्त रुक कर हमें खेलते हुए देखने लगते."
मज़े की बात यह थी कि
चाहे ड्यूक एलिंग्टन अपनी पियानो शिक्षिका से जितने सबक लेते, उससे ज़्यादा वे छोड़ देते, तो भी संगीत की कुछ
अन्दरूनी प्रेरणा ज़रूर रही होगी. शायद यही वजह है कि अपने नक्शा-नवीस पिता द्वारा
पेशेवर कलाकार के प्रशिक्षण के लिए एक तकनीकी हाई स्कूल में भेजे जाने के बावजूद,
ड्यूक एलिंग्टन ने अन्तिम परीक्षा से तीन महीने पहले स्कूल छोड़ दिया
और संगीत को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया. इसके पहले महज़ सोलह साल की उमर
में एलिंग्टन अपनी पहली संगीत रचना तैयार कर चुके थे - "सोडा फ़ाउण्टेन
रैग." बहुत बाद में उन्होंने इसे याददाश्त के बल पर बजाया -
(सोडा फ़ाउण्टेन रैग)
इस धुन के पीछे क़िस्सा यह है कि उन दिनों ड्यूक एलिंग्टन "पूडल डौग
कैफ़े" नामक होटल में ठण्डे पेय बेचने का काम कर रहे थे और यहीं एक दिन अचानक
उनके दिमाग़ में यह धुन आयी थी, जिसे वे महज़ कान से सुन कर बजाया करते क्योंकि अभी उन्हें संगीत की
स्वर-लिपि पढ़नी नहीं आयी थी. वे इसे कई शैलियों में पेश करते जिससे सुनने वालों को
लगता कि वे अलग-अलग रचनाएं बजा रहे हैं, कभी जैज़ की तरह तो
कभी रैग टाइम, वौल्ट्ज़, फ़ौ़क्स ट्रौट
और कभी टैंगो की तरह. 1917 से ड्यूक एलिंग्टन अपना खर्च
चलाने के लिए साइनबोर्ड रंगने का काम करने लगे और यह सिलसिला 1919 तक चलता रहा जब वे ड्रम वादक सनी ग्रियर से मिले और सनी के आग्रह पर
उन्होंने अपना पेशेवर बैण्ड कायम करने की तरफ़ कदम बढ़ाया. धीरे-धीरे उन्होंने
वौशिंग्टन में सफल संगीतकार की हैसियत से कामयाबी हासिल कर ली. लेकिन तभी सनी
ग्रियर ने न्यू यौर्क जाने का फ़ैसला किया और ड्यूक एलिंग्टन को भी लगा अगर कुछ
करना है तो फिर वहां चलना चाहिए जहां सचमुच का मैदान है. एक औसत दर्जे के कामयाब
युवक के लिए यह फ़ैसला आसान नहीं था, लेकिन ड्यूक उस मिट्टी
के नहीं बने थे जिससे औसत दर्जे के कामयाब कलाकार बनते हैं. एक बार उन्होंने
वौशिंग्टन के अपने हिफ़ाज़त भरे माहौल को घोड़ा तो फिर मुड़ कर नहीं देखा. और आगे की
कहानी एक ऐसे संगीतकार की सफलता की कहानी है जिसके बारे में कहा गया है -
"ड्यूक एलिंग्टन अपने जीवन के अन्त तक लगातार नयी-नयी रचनाएं, नये-नये राग पेश करते रहे. संगीत-कला सचमुच उनकी प्रेयसी थी. संगीत ही
उनका जीवन था और उसके प्रति उनके समर्पण का कोई मुक़ाबला नहीं था. वे सचमुच महान
लोगों में एक महान कलाकार थे और ऐन मुमकिन है कि एक दिन वे बीसवीं सदी के पांच-छै
महानतम जैज़ संगीतकारों में शुमार किये जायें." यों, ड्यूक एलिंग्टन के लिए जैज़ जैसी कोई अलग शैली नहीं थी, वे ख़ुद को हमेशा ठप्पों से दूर महज़ एक संगीतकार मानते थे और शायद यही वजह
है कि वे जैज़ को उसके दायरे से ऊपर उठा कर अमरीकी संगीत के व्यापक दायरे में ले जा
सके और जैज़ को एक कला रूप बना सके.
(ड्यूक प्लेज़ एलिंग्टन - एकल वादन)
ड्यूक की विनम्रता का हाल यह था कि 1965 में उनका नाम पुलिट्ज़र पुरस्कार के लिए
प्रस्तावित किया गया, मगर चयन समिति ने उसे ख़ारिज कर दिया.
ड्यूक तब तक बड़े पैमाने पर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके थे. पुरस्कार न
मिलने पर उन्होंने बस इतना कहा, " क़िस्मत ने मुझ पर दया
की है. वह नहीं चाहती कि मैं कम उमर में बहुत मशहूर हो जाऊं." यह तब जब
अगले ही साल उन्हें ग्रैमी का लाइफ़टाइम उपलब्धि पुरस्कार दिया गया. इस भूल को
सुधारने का मौक़ा पुलिट्ज़र पुरस्कार की चयन समिति को 1999 में मिला जब ड्यूक की जन्म-शताब्दी के अवसर पर उन्हें विशेष पुलिट्ज़र
पुरस्कार से सम्मानित किया गया. ड्यूक एलिंग्टन का देहान्त 1974 में अपने पचहत्तरवें जन्मदिन के कुछ हे समय बाद हुआ. उनके आख़िरी शब्द थे
"यह संगीत ही है कि मैं कैसे जीता हूं, क्यों जीता हूं
और मैं कैसे याद किया जाऊंगा."
(स्वौम्पी रिवर - 1928 - एकल)
(जारी)
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