सन
२०१३ की गर्मियों में दिल्ली से मेरे घर पहली दफा आये दो अतिथियों में प्रशांत एक
थे. उनकी सहकर्मी बृंदा बोस दूसरी थीं. वे हमारे महादेश के भूमिगत सांस्कृतिक
तहखानों में होनेवाली सार्थक गतिविधियों को रेकॉर्ड करने की एक अनूठी योजना लेकर
आये थे. हमने घर पर माँ के हाथ का बना सादा भोजन किया और दो-चार घंटे की बढ़िया
बातचीत रही.
अगली
मुलाक़ात दिल्ली में हुई. मार्च २०१४ में उनकी संस्था मार्ग-ह्यूमैनिटीज़ के
तत्वावधान में वर्नाक्युलर्स अंडरग्राउंड के सेमीनार में. वह एक यादगार अनुभव रहा.
उसके बारे में अगली पोस्ट में.
देह एक
स्मृतिचिन्ह है
-प्रशांत
चक्रबर्ती
अलग
सी नहीं थीं कोई यात्राएं
क्योंकि
उन्हें करने वाले अलग से आदमी थे ही नहीं
झंखाड़
उगी सड़कों पर फुंफकारती, विस्मृत करती
योद्धा
बिल्ली बनाती है अपना रास्ता
कोई भी
आदमी नहीं जो भाग्यवान हो
क्योंकि
ऐसा कोई भी आदमी नहीं जो वह न हो
चट्टानें
खुद बनी हुई हैं हवा से
कुचल सकने
की उनकी ताकत को नहीं चाहिए कोई गवाह
1 comment:
बहुत ही अच्छी रचना प्रस्तुत की है।
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