हाँ
जी, आधी रात को छुपते छिपाते मैंने भी देख ही लिया AIB (उम्मीद है आप सब को इसका फुल फॉर्म पता होगा) का वह अतिचर्चित कार्यक्रम
जिसके बारे में हमारा सचेत मीडिया दबे-ढंके शब्दों में सबको सूचित कर चुकने के बाद
पुनः मूषको भव की रजाई में घुस चुका है.
इस
घटिया कार्यक्रम में न तो किसी तरह का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर था न ही कोई क्लास.
...
खैर छोड़िये, अभी मैं आपको अपनी बातों से बोर करने नहीं जा रहा. इस मामले में श्री विष्णु
खरे के इस ज़रूरी हस्तक्षेप को मैंने कल रात पहली बार अपने प्रिय कवि श्री कुमार अम्बुज के ब्लॉग पर पढ़ा. थोड़ा देर से ही सही लेकिन मैं इस आलेख तक पहुँच सका. इसका
इत्मीनान है. वहीं से इसे साभार ले रहा हूँ.
हमेशा
की तरह विष्णु जी अपनी बातों में उन विषयों को उठा रहे हैं जिनसे हमारी गऊपट्टी के
बौद्धिकजन सदा बचते रहे हैं. इसी वजह से मैं उनके सबसे बड़े प्रशंसकों में हूँ और इस
बात को बार-बार रेखांकित करता रहा हूँ. वे हमारी हिन्दी के उँगलियों पर गिने जा
सकने वाले लेखकों में हैं जिनके साथ बात करने के लिए आपके भीतर वह होना ज़रूरी है
जिसे अंग्रेज़ी में ग्रे मैटर कहा जाता है.
सलाम विष्णु जी!
विष्णु खरे |
गालियाँ
खा के बेमज़ा न हुआ
-विष्णु
खरे
‘सभ्य’,’शरीफ़’,’कल्चर्ड’,’बूर्ज्वा’ बैठकख़ानों और घरों में तो उस अतिचर्चित
प्रोग्राम का पूरा ‘हिंग्लिश’ नाम तक
नहीं लिया जा सकता ; शायद पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका भी
अपने एकांत में उसे दुहराना न चाहें.उसका ‘केन्द्रीय’
शब्द भले ही यूपी-बिहार का लोकप्रिय आविष्कार हो,उसे पूरे परिवार में पढ़े जाने
वाले किसी हिंदी अखबार में ज्यों-का-त्यों छापा भी नहीं जा सकता – सिर्फ़ ‘चवर्ग’ को लुप्त कर ‘’आल इंडिया बकओद’’ से संकेत दिया जा सकता है. यों ‘बकओद’ का खुलासा यह है कि जो मौक़े पर खड़ा रहकर
कार्यरूप से कुछ भी ‘परफॉर्म’ न कर सके, सिर्फ़ बकबक और शेख़ी से काम चलाए.
मुंबई
के महँगे,
प्रतिष्ठित नैशनल स्पोर्ट्स क्लब में कथित उच्चवर्ग (कृपया ‘सिने-वर्ग’ पढ़ें )
के ऐसे दर्शकों के सामने, जो 4000 रुपये प्रति
व्यक्ति-टिकट पर निजी और गुप्त रूप से आमंत्रित किए गए थे, आयोजित
और शूट किया गया यह कार्यक्रम अमेरिकी टेलीविज़न के अतिशय ‘रिअलिटी’,
’इन्सल्ट’ और ‘रोस्टिंग’
शो की श्रेणी में आता है. इसमें उन शब्दों, गालियों
और टिप्पणियों से, जिन्हें आप चाहें तो अश्लील, फ़ोह्श, पोर्नोग्राफ़िक कह लें, स्टेज पर बैठाले गए विशिष्ट अतिथिओं का बेइंतिहा बेइज़्ज़ती से तिक्का-बोटी,
कीमा, तंदूरी या सीख-कबाब किया जाता है और ‘’वी आइ
पी’’ दर्शकों और अनुपस्थितों के साथ भी कभी-भी वही सुलूक
किया जा सकता है. लोकप्रिय मुहावरे में
कहा जाए तो सबकी सिर्फ़ माँ-बहन ही नहीं, हर दूसरे रिश्तेदार
और नज़दीकी भी एक कर दिए जाते हैं. बल्कि यह नया ‘स्टेटस
सिंबल’ बन गया है – यदि आप को इस
प्रोग्राम में देसी हिंदी या हार्लमी अमरीकी में ‘योनि’, ’लिंग’, ’गुदा’, ‘कुटुंबसंभोगी’, ‘अजाचारी’ वगैरह से संबोधित नहीं किया गया तो साफ़ है कि आप एक मामूली आदमी, ‘नॉन-एंटिटी’ हैं और यूँ ही आमंत्रित या घुस आए
हैं. दरअसल एकमात्र और सबसे गंदी अनकही फब्ती यही मानी जाती है.
यह
नहीं है कि अपने यहाँ कभी-कभी ऐसा न होता हो. होली के दिन,जो अब दूर नहीं, कपड़ों पर अपठनीय शब्दों के
आलू-ठप्पे लगाए जाते हैं, भाँग (की पकौड़ी) और दारू के नशे की आड़ में औरतों-बच्चों की
आमोदित उपस्थिति में किस-किस को सार्वजनिक रूप से क्या-क्या नहीं कहा जाता, नंगे-से-नंगा नाच-गाना-छूना-जुलूस आदि होता है, आचार्य
मस्तराम से होड़ लेनेवाली लुग्दी-पुस्तिकाएँ लिखी-छापी-बाँटी जाती हैं. उधर आंचलिक
ब्याह-शादियों में ‘’लेडिस’’ वयस्कोचित
अपशब्द गाती हैं, आपस में सुहागरात का अतियथार्थ अभिनय करती
हैं और घराती-बराती सभी कुलपूज्य बहुत आड़ किन्तु बड़े लाड़ से यह सब सुनते-देखते
हैं.
लेकिन
होली-सम्ध्याने का यह विरेचन कुछ घंटों का ही होता है, संयुक्त हिन्दू परिवार अपनी‘जैसी हैं जहाँ हैं’
‘’महान नैतिक परम्पराओं’’ में फिर लौट जाता
है. ‘आल इंडिया बकओद’ जैसे भूमंडलीकृत,
उदारचरित, बहुराष्ट्रीय, अरबडॉलरी, कॉर्पोरेट ’फ़्रेन्चाइज़्ड’ शो
तो बेचारे बच्चनजी की मासूम मधुशाला की तरह ‘दिन होली और रात
दिवाली’ रोज़ मनाते हैं.
बात
आई-गई हो जाती यदि अपनी जाहिल मग़रूरी में करण जौहर, रणवीर सिंह, अर्जुन कपूर, दीपिका
पदुकोणे, आलिया भट्ट, गुरसिमरन खम्बा, तन्मय भट्ट, रोहण जोशी, अदिति
मित्तल, आशीष शाक्य, राजीव मसंद और
क्लब के क्रमशः अध्यक्ष और सचिव जयंतीलाल शाह तथा रवीन्द्र अग्रवाल ने यह तय न कर
लिया होता कि हम इतने नामचीन रसूखी लोग
हैं, देखें हम पर कौन हाथ डालता है. इस तरह इन बंदरों ने अपने
राजाओं सलमान खान और आमिर खान की ‘’भावनाओं’’ पर अनायास अनजाने उस्तरा चला दिया.
यह
बात अलग है कि सलमान खान की हर फिल्म में कम बाज़ारू और फ़ोह्श सीन,डांस,डायलॉग और गाने नहीं होते और आमिर खान भी
बोसडीके को भगा चुके हैं लेकिन बॉक्स ऑफिस कारणों से आज दोनों मुक़द्दस मवेशी बन
चुके हैं और अल्लामियाँ ने तो भाई को साक्षात गऊमाता जैसे दिमाग़ से भी नवाज़ रखा
है. इन दो जोड़ी सींगों को अपनी जानिब
दौड़ते देखकर जौहर-गिरोह को ठंढा पसीना आ गया, मुआफ़ी
की भीख माँगना शुरू हो गया और
हिन्दुस्तानी इन्टरनैट पर जहाँ-जहाँ इनकी ‘अखिल भारतीय बकओद’
मुहय्या थी उसे हटाना शुरू हो गया. लेकिन आज नैट से कुछ-भी
नेस्तनाबूद कर पाना नामुमकिन है. उल्टे यह हुआ है कि सलमान खान के हत्या और शिकार
के मुक़द्दमों को लेकर हज़ारों बहुत मज़ाहिया और नुकसानदेह जुमले नैट की फ़ास्ट-ट्रैक
जन-अदालतों द्वारा लिखे-पढ़े जा रहे हैं.शायद आमिर ‘पी के’
खान को भी निपटाया जा रहा हो.
लेकिन
मूल मामला अब इतना तूल पकड़ चुका है कि प्रशासनिक इन्क्वारियाँ शुरू कर दी गई हैं, हाइकोर्ट नेमुल्ज़िमों को नोटिस जारी कर दिए हैं, केन्द्रीय
सरकार से पूछा जा रहा है कि सोशल मीडिया पर इस तरह की हरकतों के खिलाफ कार्रवाई का
क्या मैकेनिज़्म है या हो, उधर बहती गटर-गंगा में हाथ धोने के
लिए नए मामले दर्ज़ होने की दैनिक रिपोर्टें आ रहीं हैं. लेकिन यह भी है कि पुरानी
फ़िल्मों के बकवादी ‘’हैम’’ भाजपाई
शत्रुघ्न सिन्हा की लाडली बिटिया सोनाक्षी ने खुद को बकोदुओं के पक्ष में झोंक
दिया है. नौ मन तेल का इन्तेज़ाम हो चुका हो तो राधा नाचेगी ही.
मुझे
हैरत इस बात की है कि सनी लिओने के मामले की तरह इस पर भी हिंदी के ब्लॉग, अख़बार, कथित बुद्धिजीवी और विशेषतः अग्निवर्षक
नारीवादी/वादिनियाँ, जो यूँ तो खुद काफ़ी बकोदू-लिखोदू हैं,
इस क़दर सनाके में क्यों हैं ? लगता है आज ‘हिंदी’-व्याकरण
में एक ही लिंग बचा है – नपुंसकलिंग. जबकि करण जौहर
की बकोदू-मंडली के पक्ष में फिर वही महेश भट्ट, प्रीतीश नंदी
और शोभा डे जैसे थर्ड-पेजी ‘रोग्ज़ गैलरी’ वाले ख़सलती मशक़ूक़,जो नाम लेने लायक़ भी नहीं हैं,
उसी तरह बकोदने पहुँच गए हैं जैसे किसी घर में बच्चा पैदा होने पर
बृहन्नलाएँ पहुँच जाती हैं.
संक्षेप
में ऐसे लोग यही मानते हैं कि दूसरे धर्मों को छोड़कर शेष सारे विश्व को किसी के
बारे में कुछ भी कहने और बलात्कार को छोड़कर किसी के भी साथ कुछ भी करने का अधिकार
है. हालाँकि मुझे यह लगता है कि यह मार्की द साद के मुरीद हैं और इनकी अंतरात्मा, यदि ऐसी कोई फालतू चीज़ इनके पास है तो, शायद हर तरह
की हत्या और बलात्कार को भी अपनी सहिष्णुता, उदारता, प्रबुद्धता, आधुनिकता, ’सैंस ऑफ़ ह्यूमर’ आदि का अंग मानती होगी. ऐसे
परिवारों के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि किस तरह से हर शाम
डाइनिंग-टेबल पर इनके हर छोटे-बड़े एक-दूसरे को देशज हिंदी याझोपड़पट्टी
अंग्रेज़ी में प्यार से ‘योनि’, ‘लिंग’, ‘गुदा’, ‘स्तन’, ‘नितम्ब’
आदि कहकर पुकारते होंगे, बात-बात में ‘सम्भोग-सम्भोग’ (‘फ़’ ‘फ़’) का रिवायती हॉलीवुडी तकियाकलाम वापरते होंगे और
डिनर के बाद सामूहिक रूप से सनी आंटी की ही एकाध क्लासिक फिल्म देख कर आपस में
क्या करते होंगे.
अब
मामला अदालत में है और हम नहीं जानते कि फ़ैसला क्या होगा लेकिन खजुराहो,’कामसूत्र’ आदि की दुहाई देना धूर्ततापूर्ण है.1947
तक की सहस्रवर्षीय अल्पसंख्यक शासकीय शामी संस्कृति की अन्य चीज़ों के अलावा
प्रतिक्रियावादी यौन-नैतिकता की बहुसंख्यक ग़ुलामी ने इस मुल्क में बेहद बौद्धिक
नुकसान किया है. आज हम एक सड़े-गले ‘सुपरस्ट्रक्चर’ के सामने ऐसी पतनोन्मुख ‘’अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’’ से ‘बेस’
को प्रबुद्ध और आधुनिक नहीं बना सकते. वैसे भी आज भारत को जैसा
समतावादी समाज चाहिए उसमें ऐसे शो को जगह और स्वीकृति मिल ही नहीं सकती. और आज
क्या मुस्लिम-सिख-जैन-ईसाई सरीखे अल्पसंख्यक भी ऐसे शो को गले लगा लेंगे? देखते नहीं हैं उस उर्दू अखबार की
बेचारी संपादिका और उसके परिवार पर कितना भयानक असली खतरा मँडरा रहा है? क्या
बकओद में भाग लेने वाले ‘गे’ ‘मर्दों’
और महेश भट्ट, प्रीतीश नंदी और शोभा डे आदि ‘अनस्पीकेबिलों’ में इतनी हिम्मत है कि अगला
कार्यक्रम ‘’शार्ली एब्दो’’ पर
रखें-रखवाएँ और उसमें मंच पर जाएँ? एक पतित, खाते-पीते-अघाए, पूयपूरित ‘’उच्च’’
वर्ग के सामने क्या यह पूँजीपतियों, बिल्डरों, माफ़ियाओं, अखबारों-चैनलों के मालिकों, आइ.ए.ऐसों, आइ.पी.ऐसों, नेताओं
और आगे बढ़कर जजों, प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों
के बारे में बकओद सकते हैं? तो फिर आप हम कमोबेश
लिखोदुओं-पढ़ोदुओं को काहे बकओदना सिखा रहे हैं ?
2 comments:
इसका दूसरा पहलू इस लिंक पर है -
http://raviratlami.blogspot.in/2015/02/blog-post_16.html
वह शो नहीं देखा लेकिन तथाकथित लोग जिस तरह का जहर फैला रहे है उससे शायद कोई अनभिज्ञ नहीं है .यह बात अलग है कि ऐसा प्रतिरोध करने वाले विचार बहुत कम पढने मिलते हैं . अश्लील फूहडपन के विरुद्ध आवाज उठनी ही चाहिए .
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