आदरणीय अग्रज और ‘समकालीन जनमत’ के सम्पादक रामजी राय ने
यह बेहतरीन लेख अपनी फेसबुक दीवार पर लगाया है. वहीं से साझा कर रहा हूँ -
डुमराँव (बिहार) की भिरंग राउत की गली नामक मोहल्ले में
जन्मे, 6 वर्ष की उम्र से ही बनारस में पाले-बढ़े बिस्मिल्लाह
खान पूरे तौर पर बनारसी थे - ठाट बनारसी, राग बनारसी, रंग बनारसी. बनारस से अलग कर उनको, उनके संगीत को नहीं समझा जा सकता. स्वभाव बमभोला, धर्म संगीत और व्यक्तित्व नटराज. उन्हें बात करते, शहनाई बजाते जिसने भी देखा-सुना होगा, उससे उनके पोर-पोर में समाई नाटकीयता अनदेखी नहीं रह गई होगी. बनारस के
बारे में वे कहते - ‘बनारस में कोई राजा और कोई प्रजा नहीं होता, न ही कोई गुरु और कोई चेला. यहाँ सब राजा और सब गुरु होते हैं. इसे जरा
बनारस की बोली में सुनिए जो उसके एक-दूसरे का सम्बोधन है – का रजा तो दूसरा कहेगा हाँ रजा, का गुरु त
हाँ गुरु! देख रहे हैं न आप!! तो यही बनारस का स्वभाव है- अड़भंगई, बराबरी और आज़ाद खयाली.
आज़ाद खयाल और अकुंठ
डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने अपने एक संस्मरण में लिखा है
-"लाल क़िले पर कोई बहुत बड़ा जलसा था. पण्डित नेहरु ने हमें बुलाया. बहुत
मुहब्बत रखते थे वो हमसे. कहा कि इस जलसे में तुम बजाओगे. जलसे की रूपरेखा यह थी
कि आगे-आगे शहनाई बजाते हुए हमें चलना था और हमारे पीछे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री वगैरह तमाम बड़े लोगों को आना था. हम तो उखड़ गए. यह भी कोई बात
हुई! हम खड़े होकर, चलते हुए कैसे बजा सकते हैं? हमने तो साफ मना कर दिया. नेहरु को भी गुस्सा आ गया. बोले - बजाना तो
पड़ेगा! हमने भी उसी तैश में आकर कहा - आज़ादी क्या सिर्फ तुम्हारे ही लिए आई है? क्या हम आज़ाद नहीं हुए हैं? यह हमारी
आज़ादी है कि हम इस तरह बजाने से मना कर रहे हैं. जवाहर लाल ने एकदम बात को सम्भाला.
हंसते हुए बोले- बिस्मिलाह यह भी तो तुम्हारी आज़ादी है कि आगे-आगे तुम चलोगे और
पीछे-पीछे हम सब! और उनकी हंसी में हमारा सारा मलाल, सारी शिकायत बह गई. और हमने बजाया."
इसी सिलसिले की एक-दो बातें जो उनसे सुनीं-
‘एकबार एक संगीत समारोह में मेरा शहनाई वादन था. सुनने जवाहर लाल भी आए थे.
पहली पंक्ति में बैठे. मैंने बजाना शुरू किया और थोड़ी देर में मेरी नजर उनपर गई
देखा सो गए हैं साहब. मैंने सोचा टोकूँ, फिर लगा
बहुत काम करना पड़ता होगा थक गए होंगे. इसे भी तारीफ मानो कि उन्हें मेरी शहनाई
आराम दे रही है.‘
दूसरी बात जिस प्रसंग में सुनाई वह प्रसंग भी बहुत
दिलचस्प है.
पटना. दशहरे का अवसर. स्थल: भारत माता मंदिर लगरटोली.
खान साहब भी आए थे. उनको सुबह 4 बजे बजाने का समय दिया गया था. उससे पहले वंदना
बाजपई गजल गा रही थीं.
नवधानिकों की टोली जो पिये हुए संगीत सुन रही थी, उनसे एक के बाद दूसरी फर्माइश कर रही थी और फिर फिल्मी गीतों की फर्माइश
होने लगी. इस तरह सुबह के 6 बज गए. खान साहब को मंच पर बुलाया गया. मंच पर आते ही
उन्होने कहा- ‘अब आयोजक-संचालक ही बताएं कि मैं क्या बजाऊँ, मैं तो 4 बजे के राग कि तैयारी करके आया था. अब मैंने आप के दर्शन कर लिए
अब मैं नहीं बजाऊँगा. संचालक सिराज दानापुरी जो कम फोहस न थे बोले- ‘खाँ साहब फिल्मी संगीत भी तो संगीत ही है आपने भी तो फिल्म में बजाया है.‘ खान ने जवाब में तपाक कहा- भाई आप हमें एक हजार गाली दीजिये सुन लूँगा
लेकिन सुर में तो दीजिये.‘ समूचा
पंडाल ठहाकों से गूंज उठा. फिर खान साहब ने माहौल को अनुकूल बनाने के लिए वह
प्रसंग सुनाया-
‘राजीव प्रधान मंत्री थे. बनारस आए थे. गंगा सफाई अभियान का उदघाटन करने.
दशाश्वमेध घाट पहुंचे. सारी तैयारी पूरी थी लेकिन पूछा- बिस्मिल्लाह खान नहीं आए
हैं? मुझे न्योता यानि बुलावा नहीं था. उन्होने कहा – जब तक खान साहब नहीं आते और अपनी शहनाई नहीं बजाते, मैं उदघाटन नहीं करूंगा.‘ अब लोग
भागे आए. मुझसे माफी मांगते हुए यह सब कहा. मैंने सोचा लड़का है, दरवाजे आया है और छेरिया-नधिया गया है, जाना तो पढ़ेगा. तो जो वहाँ बजाया वही सुनाता हूँ. मैंने वहाँ बधाई बजाई.
खान साहब ने वह बधाई ‘हे गंगा द्वारे बधइया बाजे’ सुनाया. उसके बाद उन्होने विद्यापति का गीत ‘पिया मोरे बालक मैं तरुनी रे, कइसे रहब
घर सोच परी रे’ सुनाया, जबकि
संचालक मांग कर रहे थे ‘दिल का
खिलौना मेरा टूट गया’ बजाने की. मैं आज भी सोचता हूँ कि खान साहब ने बधाई के
बाद यह गीत क्यों बजाया. क्या यह राजीव पर टिप्पणी थी?
एकाध बातें और
संगीत, समय और समय
का राग
मैं और हमारे साथी, सहकर्मी इरफान बिस्मिल्लाह खाँ का समकालीन जनमत के लिए इंटरव्यू लेने गए थे.
हमें मिलने का जो समय उन्होने दिया था, हमलोग
किन्हीं कारणों से उससे कुछ देर बाद पहुंचे थे. खाँ साहब जीने से उतरते आए और
बैठते ही देर से आने की बाबत बात करने लगे. कहा मैं इस वक्त अपना रियाज़ करता हूँ
फिर भी मैंने आपको वक्त दिया था और आपलोग उस वक्त के पाबंद नहीं रहे. वे वक्त पर
बोलते रहे और हम शरमाये से सुनते रहे. कुछ देर बाद इरफान ने कहा खाँ साहब हम दुखी
और शर्मिंदा हैं पर अब इंटरव्यू शुरू किया जाय. खाँ साहब ने तपाक से कहा मैं
इंटरव्यू ही तो दे रहा हूँ साहब. समय का संगीत में बेहद महत्व है. और मैं समय के
उसी महत्व पर तो बोल रहा हूँ और ज़ोर से खिलखिला पड़े. आप कोई राग बजा रहे है और
उसमें एक समय पर आपको सुरती लगाना है उसमें, और आप चूक गए तो सारा का सारा ठाट बेकार हो जाएगा, जो प्रभाव आप पैदा करना चाहते हैं, वह नहीं पैदा होगा. आप जानते ही होंगे हमारे यहाँ सारे राग समय के हिसाब से
हैं, घड़ी, प्रहर तक
के हिसाब से. मौसमों के हिसाब से हैं जिनका भी समय से आना-जाना होता है. कहिए तो
सारी कायनात समय से चलती है. आप समय के हिसाब से नहीं बाजा रहे हैं तो सुर भी
बेसुरा लगेगा. है की नहीं! हमने कहा ये तो है लेकिन खाँ साहब यह तो घड़ी-प्रहर और
मौसम के समय के राग की बात हुई, हम जानना
चाहते हैं कि ‘समय’ का अपना
राग होता है या नहीं जो समय हमेशा एक-सा नहीं रहता, बदलता रहता है, देश-काल-परिस्थिति के हिसाब से? बेशक समय का अपना राग होता है और हम उसे उसी राग में बजाते हैं जो
शास्त्रीय संगीत ने निर्धारित किए हैं, हम उसे
नहीं बदलते, उसके भीतर समय के राग को हम पकड़ते हैं, जिस समय की ओर आप इशारा कर रहे हैं. इसलिए जो लोग कहते हैं कि समय बादल गया
है और शास्त्रीय वाले वही राग रेत रहे हैं, सो बात नहीं है, वे गलत
कहते हैं. शास्त्रीय संगीत हमेशा जीवित रहेगा बदलते समय के राग और मिजाज को समेटते
हुए लेकिन जो बदलते के हिसाब से संगीत बदलते रहते हैं उन्हें चक्कर आ रहा है वे
चकरघिन्नी खा के गिर रहे हैं लेकिन हमें चक्कर नहीं आ रहा.
जाते-जाते लिखना सिखा गए खाँ साहब!
और भी बहुत सारी बातें हुईं. चलते समय खाँ साहब ने कहा –‘लिख कर छपने से पहले हमें दिखा दीजिएगा.‘ इरफान ने कहा पत्रिका निकालने का समय हो गया है और ऐसा करने से देर हो
जाएगी. खाँ साहब ने कहा –‘मेरे कहने
का मतलब यह है कि यह तो बात-चीत है, जैसे हम
संगीत बजाते समय ध्यान में रखते हैं आरोह-अवरोह, सुरती लगाने आदि का ताकि सही प्रभाव पड़े, आप भी लिखते समय ध्यान रखिएगा कौन सी बात पहले, कौन किसके बाद, कौन सी बात किस वजन में ताकि उसका प्रभाव सही पड़े, अगर इसे पढ़ एकाध भी संगीत के दीवाने पैदा हो जांय तो समझूँगा कुछ बात हुई
थी. जाते-जाते हमें लिखने का सलीका सीखा गए खाँ साहब!
अंततः
लोकसभा चुनाव में बनारस से नामांकन करते वक्त
प्रस्तावकों में बिस्मिल्लाह खाँ के परिवार से भी किसी को प्रस्तावक बन जाने का ‘अनुरोध’ मोदी जी ने किया था लेकिन बिस्मिल्लाह खाँ के परिवार ने
इस प्रस्ताव से सहज ही इंकार कर दिया. यह भी समय का राग था शायद जो उस परिवार में
बज रहा था.
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