"नामदेव ढसाल मराठी कविता के सर्वकालिक बड़े कवियों में
है. आज उसका महत्व अपने समय के तुकाराम से कम नहीं, जबकि तुका ने अंततः ईश्वर-भक्ति के जरिये कुछ सहना ही सिखाया. सवर्णों ने
आज तुका को पूर्णतः को-ऑप्ट कर लिया है. नामदेव ढसाल की क्रांतिकारी दलित कविता ने
सारी भारतीय भाषाओं की आधुनिक दलित कविता को जन्म दिया. उसने सारे दलित ही नहीं, सवर्ण साहित्य को प्रभावित किया और कर रहा है. यह उसका एक अमर योगदान है."
- विष्णु खरे
दिलीप चित्रे (बाएं से पहले) के साथ नामदेव ढसाल (बीच में) |
मेरी प्रिय
कविता
- नामदेव ढसाल
मुझे नहीं बसाना
है अलग से स्वतंत्र द्वीप
मेरी फिर कविता,
तू चलती रह सामान्य ढंग से
आदमी के साथ
उसकी उँगली पकड़कर,
मुट्ठीभर लोगों
के साँस्कृतिक एकाधिपत्य से किया मैंने ज़िन्दगी भर द्वेष
द्वेष किया
मैंने अभिजनों से, त्रिमितिय सघनता पर बल देते हुए,
नहीं रंगे मैंने
चित्र ज़िन्दगी के.
सामान्य
मनुष्यों के साथ, उनके षडविकारों से प्रेम करता रहा,
प्रेम करता रहा
मैं पशुओं से, कीड़ों और चीटियों से भी,
मैंने अनुभव किए
हैं, सभी संक्रामक और छुतही रोग-बीमारियाँ
चकमा देने वाली
हवा को मैंने सहज ही रखा है अपने नियंत्रण में
सत्य-असत्य के
संघर्ष में खो नहीं दिया है मैंने ख़ुद को
मेरी भीतरी
आवाज़, मेरा सचमुच का रंग, मेरे सचमुच
के शब्द
मैंने जीने को
रंगों से नहीं, संवेदनाओं से कैनवस पर रंगा है
मेरी कविता,
तुम ही साक्षात, सुन्दर, सुडौल
पुराणों की
ईश्वरीय स्त्रियों से भी अधिक सुन्दर
वीनस हो अथवा
जूनो
डायना हो या
मैडोना
मैंने उनकी देह
पर चढ़े झिलमिलाते वस्त्रों को खांग दिया है
मेरी प्रिय
कविता, मैं नहीं हूँ छात्र 'एकोल-द-बोर्झात'
का
अनुभव के स्कूल
में सीखा है मैंने जीना, कविता करना
इसके अलावा और
भी मनुष्यों जैसा कुछ-कुछ
शून्य भाव से
आकाश तले घूमना मुझे ठीक नहीं लगता,
बादलों के सुंदर
आकार आकाश में सरकते आगे आते-जाते हुए
देखने से भर
जाता है मेरा अंतरंग .
मैं तरोताज़ा हो
जाता हूँ, सम्भालता हूँ, समकालीन जीवन की
सामाजिकता को .
धमनियों से बहता
रक्त का ज़बरदस्त रेला,
तेज़ी से
फड़फड़ाने वाली धमनी पर उँगली रखना मुझे अच्छा
लगता है .
जिस रोटी ने
मुझे निरंतर सताया,
वह रोटी नहीं कर
पाई मुझे पराजित,
मैंने पैदा की
है जीवन की आस्था
और लिखे हैं
मैंने जीने के शुद्ध-अभंग
मनुष्य क्षण भर
को अपना दुख भूले-बिसार दे
कविता की ऐसी
पंक्ति लिखने की कोशिश की मैंने हमेशा,
भौतिकता की
उँगली पकड़कर मैं चैतन्य के यहाँ गया,
परन्तु वहाँ
रमना संभव नहीं था मेरे लिए, उसकी उँगली पकड़
मैं फिर से
भौतिकता की ओर ही आया,
अस्तित्त्व-अनस्तित्त्व
के बीच स्थित
बाह्य रेखाओं का
अनुभव मैंने किया है,
मैंने अनुभव
किया है साक्षात ब्रह्माण्ड
कविता मेरी,
बताओ
इससे अधिक क्या
हो सकता है
किसी कवि का
चरित्र ?
हे मेरी प्रिय
कविता
नहीं बसाना है
मुझे अलग से कोई द्वीप,
तू चलती रह,
आम से आम आदमी की उँगली पकड़
मेरी प्रिय
कविते,
जहाँ से मैंने
यात्रा शुरू की थी
फिर से वहीं आकर
रुकना मुझे नहीं पसंद,
मैं लाँघना
चाहता हूँ
अपना पुराना
क्षितिज .
(मूल मराठी से
सूर्यनारायण रणसुभे द्वारा अनूदित)
No comments:
Post a Comment