मुझे दस मार्च की याद थी क्योंकि इस तारीख का ज़िक्र उसने अपनी एक कविता में किया था. साल १९५९ को इसी दिन निहत्थे और शांतिप्रिय तिब्बतियों ने अपने देश पर हुए चीनी कब्ज़े और अत्याचार के खिलाफ पहला सामूहिक प्रतिरोध किया था.
मैं धर्मशाला में एक होटल में रुका हुआ था. सुबह से ही ऊपर मैक्लोडगंज की दिशा से नारों की आवाज़ आ रही थी. दस बजे के आसपास जब ये आवाजें नज़दीक आना शुरू हुईं तो मैं बाहर निकल आया.
बहुत जल्दी बहुत बड़ी संख्या में नारे लगाता विशाल हुजूम धर्मशाला में मुख्य चौराहे की तरफ बढ़ रहा था. स्कूली लड़के, लड़कियां, बच्चे, बूढ़े, नौजवान, दुधमुंहे बच्चों को छाती से लगाए महिलाएं सब से सब बेहद अनुशासित तरीके से प्रदर्शन कर रहे थे. हर दिशा से लोग आकर उससे जुड़ रहे थे. तभी मुझे तेनज़िन दिख गया.
तेनज़िन को पहचान सकना मुश्किल नहीं था. मैंने उसकी तस्वीरें देखी थीं. वह एक खुले ट्रक के ऊपर माइक थामे लगातार इस पूरे हुजूम को नियंत्रित कर रहा था.
हज़ारों की भीड़ को इस तरह सम्पूर्ण अनुशासन में रख सकने वाले और उनके संघर्ष की अन्तर्राष्ट्रीय आवाज़ बन जाने वाले तेनज़िन से हुई वह पहली मुलाक़ात अब एक आत्मीय मित्रता में तब्दील हो चुकी है. मैं मैक्लोडगंज में उसके साथ रहने वाले उसके तमाम मित्रों को अच्छे से जानता हूँ और खुद वह पिछले साल अक्टूबर में यहाँ मेरे घर आकर रह गया है. मेरी माँ और मेरे सबसे अच्छे दोस्त उसे जानते हैं और प्यार करते हैं.
तिब्बत की आज़ादी के संघर्ष की मशाल को जलाए रखने की ज़िद तेनज़िन के जीवन की आग है. वही उसकी कविताओं की आत्मा भी है.
आज के कवि को ऐसा ही होने की ज़रुरत है.
सलाम तेनज़िन.
आज दस मार्च को मैं तुम्हारे मिशन को भी सलाम करता हूँ. आज दिन भर तेनज़िन की रचनाएं पढ़िए कबाड़खाने पर.
ल्हासा, 10 मार्च 1959 |
देखिये 10 मार्च 2014 की कुछ तस्वीरें:
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