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बसंत ऋतु के आते ही प्रकृति का यौवन खिल उठता है. प्रकृति रंग-बिरंगी
हो जाती है. प्रकृति के साथ पूरा देश बसंतोत्सव के रंग में डूब जाता है. भारत के हरेक
हिस्से में राग-रंग के त्यौहार होली की धूम मच जाती है. भारत के अलग-अलग हिस्सों के
लोग, देश के इस प्राचीन त्यौहार होली को अपने खास
अंदाज में मनाते हैं. होली पूरे देश में मनाई जाती है. पर स्थानीय इतिहास और पंरपरा
के अनुसार समय और क्षेत्र के आधार पर होली का स्वरूप बदल जाता है.
होली की इस विविधता को उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र में बखूबी
महसूस किया जा सकता है. देश के और हिस्सों में होनी वाली होलियों में कुमाऊँ की होली
का रंग कुछ निराला है. यहॉ होली एक दिन का त्यौहार नहीं बल्कि महीनों चलने वाला उत्सव
है. कुमाऊँ की होली का मतलब हुडदंग नहीं राग-रागनियों के मधुर सुर हैं. यहॉ की होली
में हरेक कालखण्ड का सामाजिक इतिहास, परंपरा, धर्म और संस्कृति के गहरे रंग दिखाई देते हैं.
कुमाऊँ की होली के गीतों में भक्ति, रस, कला, माधुर्य, आमोद-प्रमोद और हंसी-ठिठोली
का अनोखा समावेश है. होली के पदों के भावों की सामूहिक अभिव्यक्ति और संगीत,
कुमाऊँ की होली को देश की दूसरी होलियों से अलग करती है. कुमाऊँनी होली
के गीतों में ब्रज और उर्दू का गहरा प्रभाव है. वाबजूद इसके यहॉ की होली में इस अंचल
की विशिष्ठ सांस्कृतिक पहचान झलकती है.
कुमाऊँनी होली, देश के दूसरे हिस्सों में प्रचलित होलियों से मिलती-जुलती होते हुए भी कई मामलों
में अलग है. भारत के दूसरे हिस्सों में होली राग-रंग और उल्लास का पर्व है. लेकिन कुमाऊँनी
होली में राग-रंग, उल्लास के साथ गीत,संगीत
और नृत्य पक्ष भी जुडा़ है. कुमाऊँ में होली के तीन रूप प्रचलित है- बैठ या बैठकी होली,
खडी़ होली और महिलाओं की होली. बैठ होली का आगाज यहॉ पूस के महीने के
पहले इतवार से हो जाता है. पूस के इतवार से बंसत पंचमी तक भक्ति परख होलियां गाई जाती
है. इन्हें ‘निर्वाण’ की होली कहा जाता है. निर्वाण की होलियों की शुरुआत आमतौर पर
मंदिरों के प्रांगण से होती है. इन होलियों में शिव, कृष्ण,
राम आदि देवताओं की स्तुति की जाती है. देवताओं की दार्शनिकता और रहस्यात्मकता
का वर्णन होता है. इसमें आध्यात्मिकता और धार्मिक भावों की प्रधानता होती है.
बैठ होली में हारमोनियम, तबला और दूसरे वाद्य यंत्रों के साथ बैठ कर एक अलग अंदाज में होली गाई जाती
है. बैठ होली की विशेषता यह है कि इसमें शास्त्रीय गायन की अनुशासनात्कता है. बैठ
होलियां चार कालखण्डों में अलग-अलग राग-रागनियों के आधार पर बंटी है. जैसे - दिन में
पीलू, भीमपलासी और सारंग गाए जाते है. शाम को कल्याण,
श्याम कल्याण, यमन कल्याण और रात में काफी,
जंगला काफी, झिझोरी, खमाज,
देश, विहाग, विहागड़ा,
शहना, कान्हडा़, जैजैवन्ती,
परज और सुबह के वक्त जोगिया व भैरवी गाई जाती है. खास बात यह है कि इन
होलियों को गाने वाले सभी लोग संगीत के जानकार नहीं होते हैं. यह गायन शैली श्रवण परंपरा
से पीढी़-दर-पीढी़ चलती आ रही है. बैठ होली में राग की शुद्धता से ज्यादा भावाभिव्यक्ति
और जन-रंजनता को वरीयता दी जाती है. राग-रागनियों पर आधारित होने के बावजूद बैठ होली
एक किस्म से सामूहिक गायन जैसी होती है. बैठ होली में कुछ विशिष्ठ लोग ही हिस्सा लेते
है. जबकि खडी़ होली में आम लोगों की भागीदारी होती है.
बसंत पंचमी के रोज से होली का रंग बदल जाता है. “आयो नवल बसंत
सखी ऋतु राज कहावे. आयो नवल बसंत” शिवरात्रि से खडी़ होली शुरू हो जाती है. इसका प्रचलन
ग्रामीण इलाकों में कुछ ज्यादा है. खडी़ होली, ढोलक, मंजीरे या नगाड़े की लय पर सामूहिक रूप से गाए जाने
वाली होली है. शिवरात्रि को खड़ी होली की शुरुआत शिव जी की होली से होती है - “अरे हॉ-हॉ
रे शम्भू. आपूं विराजे झाड़िन में. नाम लियो रधुनाथ शम्भू. आपूं विराजे झाड़िन में.”
या फिर - “शिव भंजन गुण गाऊॅ, मैं अपने राम को रिझाऊॅ. ना गंगा
नहाऊॅ, ना जमुना नहाऊॅ ना कोई तीरथ जाऊॅ. मैं अपने राम को रिझाऊॅ.”
बाद के दिनों में राम,
कृष्ण और दूसरे देवी-देवताओं से जुडी़ होलियाँ गाई जाती है. - “हूँ तो सूरत धरी चल
बी को दरशन को तेरे, द्वारे अम्बा
धन तेरो. देवी का थान निशान गडो है.” आमलकी एकादशी के दिन से गीला रंग शुरू हो जाता
है. सफेद लिबास में रंग के छिटे डाले जाते है. महिलाओं पर भी रंग छिड़का जाता है. -
“रंग डारि दियौ अलबेलिन में.” इसके बाद शुरू होता है - गोल घेरे में खास पद संचालन
करते हुए सामूहिक होली गायन. नृत्यात्मक स्वरूप की वजह से ही इसे खडी़ होली कहा जाता
है.
खडी़ होलियों में सामूहिक गायन होने की वजह से इसमें सुर, ताल, लय और नृत्य सभी
में एक खास किस्म की सादगी होती है. ज्यादातर खडी़ होलियों में संगीत के स्तर पर अंतरा
नहीं होता है. होली “हॉ” लय से शुरू होती है. धीरे-धीरे तेज होती चली जाती है. खडी़
होली में नृत्य भी हाथों की भावपूर्ण भंगिमा, सहज पद संचालन और
शरीर की लचक और झौंक तक सीमित होता है. सुर, ताल, लय, नृत्य और भाषा-बोली के मामले में भी कुमाऊँ की खडी़
होली देश के दूसरे हिस्सों में प्रचलित होलियों से बिल्कुल अलग है. यहॉ की होली में
राग-रंग के साथ कुमाऊँ अंचल के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक
जीवन के सभी पक्ष जीवंत रूप में झलकते है. - “मेरी नथ गढि दे सुनारा, मेरी नथ गढ़ि दे छैला बे. नथुली गढै को क्या देली यारा, तेरी नथ गढि द्यूंलो छैला बे.”
पूर्णमासी आते ही होली श्रृंगार प्रधान हो जाती
है. - “तू तो गई थी पनिया भरन को, बांही मिलो तेरो यार गोरी.
चादर दाग बहांलागो.” फिर होली का श्रृंगार रस पूरे जोबन में आ जाता है. - “ना बोले
अलबेली छिनार, घुंघट वाली ना बोले. नाक को बेसर अधिक बिराजे,
गालन की छवि न्यारी छिनार, घुंघट वाली ना बोले.”
खडी़ होली का यह रंग होलिका दहन के दूसरे दिन छरड़ी तक जमता है.
इस बीच स्वांग भी खेले जाते है. छरड़ी के दिन होल्यिारों की टोलियॉ होली गाते हुए पूरे
गॉव में घूमती है. विदाई की होली गाई जाती है.-“रंग की गागर सिर पर धरे. आज कन्हैया
रंग हरे. होली खेली-खालि मथुरा को चले, आज कन्हैया रंग हरे.” कुमाऊँ के कई इलाकों में तो रामनवमी तक निर्वाण की होलियॉ
गाई जाती है. - “अरे हाँ-हाँ रे सीता वन में अकेले कैसे रही. कैसे रही दिन-रात,
सीता वन में अकेले कैसे रही.” होली का समापन आशीष की होली से होता है.
- “जुग-जुग जीवें मित्र हमारे. बरस-बरस खेलैं होली. ऐसी होली खेलैं जनाब अली,
हो मुबारक मंजरि फूलों भरी.”
कुमाऊँ मे होली का एक तीसरा रूप भी है. वह है महिला होली. महिलाओं
की होली का रंग-रूप बैठ और खडी़ होलियों से अलग है. महिला होली की बैठकें घर-घर जमती
हैं. खूब धूम मचती हैं. स्वांग होते हैं. महिला होली की खास बात यह है कि इसमें होली
गायन का एक निश्चित क्रम होता है. महिला होली की शुरुआत वंदना से होती है. - “तुम सिद्धि
करो महाराज होलिन के दिन में.“ या फिर “सिद्धि को दाता विघ्न विनासन.” इसके बाद चीर
बंधती है. - “कै लै बांधी चीर जै रधुनंदन राजा.” फिर रंग पड़ता है. - “रंग में होली
कैसे खेलूंगी मैं सावरिया के संग. अबीर उड़ता, गुलाल उड़ता, उड़ते सातों रंग. रंग में होली कैसे खेलूंगी...”
यहॉ मनाए जाने वाले दूसरे लोक पर्वों की तरह कुमाऊँ की होली
युगीन चेतना और सामाजिक सरोकारों से भी जुडी़ है - “मानो सय्याँ हमार मो सो चरखा मगै
दियौ ...” कुमाऊँनी होली के इस अंदाज की खुशबू ही अलग है. लिहाजा-“जो काहू को मिले
श्याम. कह दीजो हमारी राम-राम.”
-यह आलेख आदरणीय अग्रज जनाब प्रयाग पाण्डे का लिखा हुआ है. प्रयाग पाण्डे नैनीताल में रहते हैं और लम्बे अरसे से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. इतना सुन्दर और वस्तुपरक लेख लिखने के लिए उन्हें साधुवाद. और इस ब्लॉग में इस लेख को पोस्ट करने की अनुमति देने का शुक्रिया!
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