होली आने को है. सप्ताह भर से कम समय नहीं बचा है. सो अब से
कबाड़खाने को होली के रंग में भरने में कोई कमी नहीं की जाएगी. यह अलग बात है कि
देश की वर्तमान परिस्थितियों ने लोगों को इस कदर भयभीत किया हुआ है कि इस साल जैसी
मनहूसियत में अपने मोहल्ले-अपने शहर में होली के इतना नज़दीक होने के बावजूद देख पा
रहा हूँ वैसा कभी नहीं देखा था.
मैं इस मुर्दनी का हामी नहीं हूँ. और कबाड़खाने की परम्परा
के अनुसार नज़ीर अकबराबादी की एक रचना लगाता
हुआ इस उत्सव की शुरुआत करता हूँ.
कबाड़खाने के पाठकों में पिछले साल काफी संख्या में नौजवानों
की लगातार आमद बनी रही है. उनकी जानकारी के लिए बाबा नज़ीर का वही परिचय लगा रहा
हूँ जो मैंने आज से आठ साल पहले इस ब्लॉग पर लगाया था:
नज़ीर अकबराबादी साहब
(१७४०-१८३०) उर्दू में नज़्म लिखने वाले पहले कवि माने जाते हैं. समाज की हर
छोटी-बड़ी ख़ूबी नज़ीर साहब के यहां कविता में तब्दील हो गई. पूरी एक पीढ़ी के तथाकथित
साहित्यालोचकों ने नज़ीर साहब को आम जनता की शायरी करने के कारण उपेक्षित किया -
ककड़ी, जलेबी और तिल के लड्डू जैसी
तुच्छ वस्तुओं पर लिखी गई कविताओं को ये सज्जन कविता मानने से इन्कार करते रहे. वे
उनमें सब्लाइम एलीमेन्ट जैसी कोई चीज़ तलाशते रहे जबकि यह मौला शख़्स सब्लिमिटी की
सारी हदें कब की पार चुका था. बाद में नज़ीर साहब के जीनियस को पहचाना गया और आज वे
उर्दू साहित्य के शिखर पर विराजमान चन्द नामों के साथ बाइज़्ज़त गिने जाते हैं.
जीवन भर नज़ीर आगरे के ताजगंज मोहल्ले में रहे 'लल्लू जगधर का मेला' की टेक में वे कहते भी हैं: "टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर". तमाम मेलों, त्यौहारों, सब्ज़ियों, जीवन-दर्शन, प्रार्थनाओं, पशु-पक्षियों, देवी-देवताओं पर लिखी नज़ीर अकबराबादी की लम्बी नज़्में एक महात्मा कवि से हमारा परिचय कराती हैं - उनके यहां कृष्ण कन्हैया और गणेश जी की स्तुति होती है तो बाबा नानक और हज़रत सलीम चिश्ती की भी, होली, दीवाली, ईद और राखी पर उनकी कलम चली है. "सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा" जैसी महान सूफ़ियाना पंक्तियों से उनका सूफ़ी साहित्य बेहद समृद्ध है.
नज़ीर साहब ने आस पास पाए जाने वाले कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और फूलों पर कई अविस्मरणीय रचनाएं की हैं. मुझे तो इस कोटि की उनकी रचनाएं पढ़कर लगातार ऐसा लगता रहा है कि लोग अब जाकर 'बर्डवॉचिंग' को एक गम्भीर विषय मानने लगे हैं जबकि आज से क़रीब तीन सौ साल पहले जो काम नज़ीर साहब कर गए हैं, उस के आगे बड़े-बड़े सालिम अली पानी भरते नज़र आते हैं. मेरी बात का यक़ीन न हो तो उनकी रचनाओं में आने वाले बेशुमार कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और फूलों के नामों की सूची भर बना के देखिये.
जीवन भर नज़ीर आगरे के ताजगंज मोहल्ले में रहे 'लल्लू जगधर का मेला' की टेक में वे कहते भी हैं: "टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर". तमाम मेलों, त्यौहारों, सब्ज़ियों, जीवन-दर्शन, प्रार्थनाओं, पशु-पक्षियों, देवी-देवताओं पर लिखी नज़ीर अकबराबादी की लम्बी नज़्में एक महात्मा कवि से हमारा परिचय कराती हैं - उनके यहां कृष्ण कन्हैया और गणेश जी की स्तुति होती है तो बाबा नानक और हज़रत सलीम चिश्ती की भी, होली, दीवाली, ईद और राखी पर उनकी कलम चली है. "सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा" जैसी महान सूफ़ियाना पंक्तियों से उनका सूफ़ी साहित्य बेहद समृद्ध है.
नज़ीर साहब ने आस पास पाए जाने वाले कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और फूलों पर कई अविस्मरणीय रचनाएं की हैं. मुझे तो इस कोटि की उनकी रचनाएं पढ़कर लगातार ऐसा लगता रहा है कि लोग अब जाकर 'बर्डवॉचिंग' को एक गम्भीर विषय मानने लगे हैं जबकि आज से क़रीब तीन सौ साल पहले जो काम नज़ीर साहब कर गए हैं, उस के आगे बड़े-बड़े सालिम अली पानी भरते नज़र आते हैं. मेरी बात का यक़ीन न हो तो उनकी रचनाओं में आने वाले बेशुमार कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और फूलों के नामों की सूची भर बना के देखिये.
फिलहाल.
होली उत्सव की शुरुआत की जाए उन्हीं की एक नज़्म से-
हिन्द के गुलशन में
जब आती है होली की बहार।
जांफिशानी चाही कर जाती है
होली की बहार।।
एक तरफ से रंग पड़ता, इक तरफ उड़ता गुलाल।
जिन्दगी की लज्जतें लाती है होली की बहार।।
ज़ाफरानी सजके के चीरा आ मेरे शाकी शिताब।
मुझको तुझ बिन यार तरसाती है होली की बहार।।
तू बगल में हो जो प्यारे रंग में भीगा हुआ।
तब तो मुझको यार खुश आती है होली की बहार।।
और जो हो दूर या कुछ ख़फा हो हमसे मियाँ।
तो, तो काफ़िर हो जिसे भाती है होली की बहार।।
नौ बहारों से तू होली खेलले इस दम 'नज़ीर'।
फिर बरस दिन के ऊपर जाती है होली की बहार।।
एक तरफ से रंग पड़ता, इक तरफ उड़ता गुलाल।
जिन्दगी की लज्जतें लाती है होली की बहार।।
ज़ाफरानी सजके के चीरा आ मेरे शाकी शिताब।
मुझको तुझ बिन यार तरसाती है होली की बहार।।
तू बगल में हो जो प्यारे रंग में भीगा हुआ।
तब तो मुझको यार खुश आती है होली की बहार।।
और जो हो दूर या कुछ ख़फा हो हमसे मियाँ।
तो, तो काफ़िर हो जिसे भाती है होली की बहार।।
नौ बहारों से तू होली खेलले इस दम 'नज़ीर'।
फिर बरस दिन के ऊपर जाती है होली की बहार।।
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