(पिछली क़िस्त से आगे)
मजाज़
उर्दू का कीट्स कहा गया. लेकिन हक़ीक़त यह है कि मजाज़ कीट्स की रूमानियत से बहुत आगे
इंसानियत और मोहब्बत का पेरोकार बनकर उभरा था. ग़रीबों और लाचारों की आवाज़ बनकर
उभरा था. तभी तो महात्मा गांधी जैसी शख़ि्सयत भी मजाज़ के हुनर पर फिदा हो गई.
फ़िदा
तो उन पर अलीगढ़ की लड़कियां भी थीं, जो बकौल
इस्मत चुग़तई मजाज़ के नाम के कुर्रे निकालकर उसके साथ जीने-मरने के सपने देखती थीं.
मगर जब हक़ीक़त की धरातल पर बात आई तो मजाज़ की शायरी को ही अपना ईमान मानने वाली एक
लड़की ने उसका दिल यूं तोड़ा कि फिर न जुड़ सका. वो एक बा-ज़र और बा-असर इंसान ने
शादी करके उसकी हो गई और मजाज़ की शराफ़त ने उसे महज़ 'ज़ुहरा
जबीं' बनाकर अपनी यादों में संजो लिया.
अक्सर
मजाज़ की बात होती है तो वह दर्दो-ग़म और अफसोस के लहजे में की जाती है. लेकिन ख़ुद
मजाज़ ने अपने अंदाज़ में इन बातों पर यह कहकर धूल डालने की कोशिश की : मेरी
बरबादियों का हमनशीनों / तुम्हे क्या, ख़ुद मुझे ग़म
नहीं है. लेकिन फिर भी उनके अज़ीज़ों, उनसे मुहब्बत करने वालों
को इस बात का बहुत ग़म था.
...मजाज़
की ज़िंदगी एक अधूरी ग़ज़ल थी. उसकी शायरी का सारा हुस्न उसके अधूरेपन में है. सन
1930 के आसपास शायरी के उफ़क पर एक सितारा जगमगाया लोगों ने हैरत और मसर्रत से उसकी
तरफ़ देखा. लेकिन देखते ही देखते वो आसमान पर चांदी की एक लकीर बनाता हुआ गुज़र गया.
मजाज़ तमाम उम्र अपने ज़ख़्मों से खेलता रहा. अपने ग़मों को शायरी में ढालता रहा.
ये
अल्फ़ाज़ हैं मशहूर शायर सरदार जाफ़री के. सरदार जाफ़री आख़िर किन ज़ख़्मों की बात करते
हैं जिनसे मजाज़ खेलता था. यह ज़ख़्म ज़माने के थे और ख़ासकर उस मुहब्बत के जिसके बिना
मजाज़ को सारी ज़िंदगी बेमानी लगने लगी थी. एक नाकाम मुहब्बत के ज़ख़्म. लेकिन इस
नाकाम मुहब्बत से भी ज़्यादा एक और जज़्बा था जो उसकी ज़िंदगी का एक बेहद अहम
हिस्सा था. वह था समाजी जि़म्मेदारी और उसकी बेहतरी. उनमे समाज में फैली
ग़ैर-बराबरी को लेकर ग़ज़ब की बेचैनी थी. इसी जज़्बे ने उन्हें एक इंक़लाबी बना डाला
था. उन्होने जहां एक तरफ मज़दूरों और मज़लूमों की लड़ाई का परचम उठाया तो दूसरी तरफ
अपनी कलम से वो नारे बुलंद किए कि जिनकी आवाज़ से बड़े-बड़े मज़बूत किलों की दीवारों
में दरक आ जाती थी.
बोल! अरी ओ धरती बोल!
राज सिंहासन डांवा डोल
बादल, बिजली, रैन अंधियारी , दुख की
मारी परजा सारी
बूढ़े-बच्चे सब दुखिया
हैं, दुखिया नर है, दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है,
सब बनिये हैं, सब व्योपारी
बोल! अरी ओ धरती बोल!,
राज सिंहासन डांवां डोल
शायरे
इंक़लाब जोश मलीहाबादी 'यादों की बारात' में लिखते हैं; यह कोई मुझसे पूछे कि मजाज़ क्या था
और क्या हो सकता था. मरते वक़्त तक उसका फ़क़त एक चौथाई दिमाग़ ही खुलने पाया था और
उसका यह सारा कलाम उस एक चौथाई खुलावट का करिश्मा है. अगर वह अपने बुढ़ापे की तरफ
आता तो अपने ज़माने का सबसे बड़ा शायर होता.
जिन
लोगों ने मजाज़ की शायरी पढ़ी है, वो तमाम लोग जोश साहब की
इस बात को ख़ुद भी इसी तरह महसूस करते होंगे. आप ज़रा देखिए तो सही यह इंसान कितनी
तहों वाले नाज़ुक अहसासात और जज़्बात का मुजस्समा था जो एक लम्हे की किसी एक जुंबिश
से न जाने कब और कैसे मोम की तरह बह निकलता था. और तब उस पिघले मोम से न जाने
कितनी ख़ूबसूरत नज़्में और न जाने कितनी हसीन ग़ज़लें शक्ल इख्तियार कर लेती थीं.
मजाज़
की शायरी के जादू से तो महात्मा गांधी भी न बच पाए. मजाज़ की एक निहायत दिल छूने
वाली नज़्म है 'नन्ही पुजारिन' (नौजवान ख़ातून). 1936 में लिखी
गई इस नज़्म को एक बार उन्हें महात्मा गांधी की मौजूदगी में पढऩे का मौका मिला. उस
वक़्त पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरोजिनी नायडू भी वहां मौजूद थे.
इक नन्ही मुन्नी सी
पुजारन, पतली बाहें, पतली गर्दन
भोर भये मंदर आई है,
आई नहीं है मां लाई है
वक्त से पहले जाग उठी
है, नींद भी आंखों में भरी है
ठोड़ी तक लट आयी हुई है,
यूंही सी लहराई हुई है
आँखों में तारों की चमक
है, मुखड़े पे चांदी की झलक है
कैसी सुन्दर है क्या
कहिए, नन्ही सी इक सीता कहिए
धूप चढ़े तारा चमका है,
पत्थर पर एक फूल खिला है
चांद का टुकड़ा,
फूल की डाली, कमसिन सीधी भोली-भाली
कान में चांदी की बाली
है, हाथ में पीतल की थाली है
दिल में लेकिन ध्यान
नहीं है, पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
कैसी भोली और सीधी है,
मंदर की छत देख रही है
मां बढ़कर चुटकी लेती
है, चुपके-चुपके हंस देती है
हंसना रोना उसका मज़हब,
उसको पूजा से क्या मतलब
खुद तो आई है मंदर में,
मन उसका है गुडिय़ा घर में.
इस
घटना का बयान मजाज़ की तब की महबूबा और बाद को 'ज़ुहरा जबीं',
के अल्फ़ाज़ में इस तरह मिलता है. आज मजाज़ बहुत ख़ुश है. महात्मा गांधी
के सामने नज़्म सुनाने का मौका मिल गया. गांधी जी को 'नन्ही
पुजारन' पसंद आई. जब मजाज़ ने नज़्म शुरू की - 'एक नन्ही सी पुजारन, पतली बाहें, पतली गर्दन' तो गांधी जी ने मजाज़ की तरफ़ देखा. इससे
पहले वो (गांधी जी) ऐसे बैठे थे जैसे कुछ सोच रहे हों.
जब
ये शेर सुना 'भोर भए मंदर में आई है, आई नहीं मां लाई है / तो मुस्कराए. और आख़िरी शेर पर तो बहुत ख़ुश हुए 'ख़ुद तो आई है मंदर में, मन है उसका गुडिय़ा घर में.'
मजाज़
के अंदर एक ऐसी बेचैनी, एक ऐसी बेताबी ने घर कर लिया
था कि उसे किसी एक जगह चैन नहीं मिलता था. सो बस भटकन बनी ही रहती. लगातार नौकरी
की कोशिशें नाकाम हुईं तो उस दौर के अनेक नामचीन शायरों की तरह फ़िल्मों में किस्मत
आज़माने की सोची. वह भी अपने दोस्त साहिर लुधियानवी के साथ.
इस
वक़्त इस हक़ीक़त को इस जगह दर्ज कर देना बेहद ज़रूरी हुआ जाता है कि साहिर मजाज़ के
बाद वाली पीढ़ी के शायर थे और उनकी शायरी पर मजाज़ का रंग था. प्रसिद्ध शायर-फिल्म
गीतकार हसन कमाल ने बरसों पहले एक इंटरव्यू में इस बात का ज़िक्र किया था कि साहिर
साहब कहते थे कि 'मैंने जो शायरी की है, उसकी जड़ें फ़ैज़ और मजाज़ के यहां हैं.'
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