डिप्लोमेट मुर्ग़
-इब्ने सफ़ी
आम तौर पर किसी हैरतअंगेज़ दास्तान की शुरूआत
इन लफ़्ज़ों से की जाती है कि आज मैं जो कहानी सुनाने जा रहा हूं, इस पर दूसरे तो क्या, मैं खुद भी यक़ीन नहीं करता,
अगर इस कहानी का ताल्लुक़ खुद मेरी ही ज़ात से न होता.
सो, एक
अज़ीज़ने-गिरामी. इस मुआफ़ीनामे को तूल देने से क्या फ़ायदा, क़िस्सा-मुख़्तसर
ये कि वो एक बेहद खुबसूरत और तगड़ा मुर्ग़ था. खूबसूरत न होता तब भी. मुझे कहने में
हिचक नहीं कि मुझे तो उसकी तारीफ़ करनी ही पड़ती, क्योंकि
मुर्ग़ की वजह से मुझे परदेश में सर छुपाने को जगह मिल गयी थी.
यक़ीन कीजिए कि उसी मुर्ग़ की वज़ह से शेख़ साहब
की फ़ेमिली में पेइंग गेस्ट बना लिया गया था, वर्ना इस
ग़द्दार शहर में कौन किसी पर भरोसा करता है. ख़ास तौर से अगर फ़ेमिली साथ न हो,
तो किराये का मकान भी नहीं मिलते. तरक़्क़ी पर तबादला हुआ था, इसीलिए खुशी-खुशी अपने शहर को अलविदा कहना पड़ा.
एक शाम किसी माकूल-से मकान की तलाश में घूम
रहा था कि अचानक उस गुलफ़ाम मुर्ग़ से मुठभेड़ हो गयी. वो भी इस तरह की एक कुत्ता उस
पर झपटा था और वो उछल कर मेरी गोद में आया था. मैंने उसे पकड़ लिया और कुत्ता
झपट-झपट कर मुझ पर हमले करने लगा. मुर्ग़ मेरी गोद में चीख़ रहा था और बदबख़्त कुत्ता
उछल-उछल कर उसे मुझ से झपट ले जाने की जद्दोजहद में लगा हुआ था.
ठीक उसी वक़्त बाईं तरफ़ वाली कोठी से एक बेगम
साहिबा चीख़ती हुई निकलीं, जिनके पीछे एक लठ वाला
मुलाज़िम भी था. कुत्ता उसे देख कर भाग खड़ा हुआ.
इतनी देर में मेरी पतलून का एक पायंचा तार-तार
हो चुका था. लठबाज़ मुलाज़िम कुत्ते के पीछे दौड़ गया और बेगम साहिब ने मुर्ग़ को
मेरी गोद से झपटते हुए कहा, ‘‘आपका बहुत बहुत शुक्रिया
जनाब.’’
फिर मेरी फटी हुई पतलून की तरफ़ तवज्जोह देकर
बोलीं,
‘‘ओह! कुत्ते ने काटा तो नहीं? चलिए, अंदर चलिए, देखते हैं.’’
यह अधेड़ उम्र की एक भारी-भरकम महिला थीं.
उन्होंने एक बार फिर मुझे घूर कर देखा और गुस्सैल लहजे में बोलीं,
‘‘खड़े मुंह क्या देख रहे हैं, चलिए अंदर,
कहीं दांत न लग गए हों.’’
‘‘चच् चलिए’’, मैं
हकलाया और उनके पीछे चलने लगा.
टांग महफूज़ थी. कुत्ते के दांत नहीं लगने पाए
थे.
अपने घर फ़ोन करके दूसरी पतलून मंगवा लीजिए,
‘‘बेगम साहिब मुर्ग़ को सहलाती हुई बोलीं.’’
तब मैंने उन्हें अपने हालात से आगाह करते हुए
कहा,
‘‘फ़िलहाल रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में रातें बसर करता हूं.’’
‘‘किसी होटल में ठहर जाते.’’
‘‘होटल का माहौल मुझे पसंद नहीं है’’,
मैंने शरमा कर जवाब दिया.
‘‘खूब!’’ वो मुझे
घूरती हुई बोलीं, मुर्ग़ अब भी उनकी गोद में था. इतने में एक
लडक़ी ड्राइंग रूम में दाख़िल हुई जो उन्हीं की तरह मोटी थी. अगर भैंगी न होती तो
किसी क़दर दिलकश भी मालूम होती.
‘‘बेबी. इनसे मिलो’’, अचानक
बेगम साहिब उससे बोलीं, ‘‘इन्होंने इस वक़्त अपनी जान पर खेल
कर मेरे मुर्ग़ की जान बचायी है.’’
लडक़ी ने मुस्करा कर सर को हल्की-सी जुंबिश दी, लेकिन मैं यक़ीन के साथ नहीं कह सकता कि वो मुझे देख रही थी या मुर्ग़ को.
‘‘और मैंने फ़ैसला कर लिया है’’, उन्होंने सारी बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘कि ये पेइंग
गेस्ट की हैसियत से हमारे साथ ही रहेंगे.’’
‘‘इट इज़ वेरी जनरस ऑफ़ यू मम्मी’’, लडक़ी चहकी. बिल्कुल ऐसा ही लगा था जैसे किसी दूधपीते ने क़िलक़ारी लगायी हो.
‘‘मम् मगर...’’ मैं
हकलाया.
‘‘कुछ कहने सुनने की ज़रूरत नहीं’’, बेगम साहिबा हाथ उठा कर बोलीं, ‘‘बहादूर लोग शरीफ़ भी
होते हैं. मैं मुतमईन हूं. अपना सामान यहीं ले आइये. शेख़ साहब आपकी फ़र्म के
मालिकों से बखूबी वाक़िफ़ हैं.’’
तो जनाब, इस तरह खड़े
घाट सर छुपाने की जगह हाथ आ गयी थी. दो तीन दिन बाद मालूम हुआ कि बेगम साहिबा
इंटलेक्चुअल हैं और शेख़ साहब सियासी लीडर कहलाते हैं. बेगम साहिबा कुत्ते के बजाए
मुर्ग़ पालती थीं और उसको उसी तरह गोद में उठाए फिरती थीं जैसे यूरोप में महिलाएं
कुत्ते उठाए फिरती हैं.
बेबी का नाम नोशाबा था और वो तीन साल से
मैट्रिक में फ़ेल हो रही थी. खाने-पीने के अलावा उसे और किसी चीज़ से दिलचस्पी नहीं
थी. ये कुन्बा सि$र्फ तीन लोगों का था. शेख़ साहब,
बेगम साहिबा और नोशाबा. कोठी बहुत बड़ी थी. शायद इसीलिए पांच नौकर
भी वहां पाये जाते थे कि कोठी भरीपूरी मालूम हो.
दो कमरे मेरे हिस्से में आए थे. एक बेडरूम था
आरै दूसरे को सिटिंग रूम बना दिया गया था.
खाने की मेज़ पर हम सब इकट्ठे होते, लेकिन इतनी ख़ामोशी रहती जैसे किसी मय्यत की हाज़िरी खा रहे हों. शेख साहब
का ज़ेहन सियासत में उलझा रहता. बेगम साहिबा हयात व कायनात (जिसमें मुर्ग़ भी शामिल
था) की समस्याओं पर ग़ौर फ़रमाती रहतीं और नौशाबा सि$र्फ
प्लेटों और रक़ाबियों पर नज़र रखती.
वो गर्मियों की एक दोपहर थी और इतवार था जब
मुझे एक हैरत अंगेज़ तजरबे से दो-चार होना पड़ा. कोठी में मेरे अलावा और कोई नहीं
था. इतवार को नौकर आधे दिन की छुट्टी मनाया करते थे. शेख़ साहब फ़ेमिली समेत किसी
दावत में शिरकत के लिए तशरीफ़ ले गए थे. मैंने सोचा, कुछ
देर सो ही लिया जाए.
लिहाज़ा बेडरूम की तरफ़ चल पड़ा. अचानक पीछे से
आवाज़ आयी,
अस्सलामो अलैयकुम.’’
चौंक कर मुड़ा, लेकिन
वहां तो कोई भी नहीं था और मेनगेट खुद मैंने बंद किया था. भ्रम समझ कर आगे बढऩे ही
वाला था कि फिर आवाज़ आयी, ‘‘सलाम का जवाब न देना बदतमीज़ी है.’’
मैं फुर्ती से मुड़ा और फिर मेरी घिग्घी बंद
गयी. बेगम साहिब का मुर्ग़ आदमियों की तरह मुझ से संबोधित था. सारे जिस्म से
ठंडा-ठंडा पसीना छूट पड़ा.
‘‘सलाम का जवाब दो’’, इस
बार वो कड़क कर बोला.
मुझे याद नहीं कि मैंने सलाम का जवाब दिया था
या नहीं,
लेकिन बेडरूम में घुस कर दरवाज़ा बंद कर लेने की नाकाम कोशिश आज भी
तस्वीर की तरह आंखों में फिरती है. मुझ से पहले वो बेडरूम में पहुंचा था.
हल्के से क़हक़हें के साथ उसने कहा,
‘‘बड़े डरपोक मालूम होते हो?’’
मैं धम्म से बिस्तर पर गिर गया, लेकिन इससे पहले कि बेहोश हो जाता, उसने मज़ाक़ उड़ाने
के अंदाज़ में कहा, ‘‘तुम्हारी अलमारी मुख़्तलिफ़ क़िस्म के
डाइजेस्टों से अटी पड़ी है, लेकिन तुम निरे चुग़द के चुग़द ही
रहे.’’
‘‘बत्तमीज़ी नहीं’’, मैंने
जी कड़ा करके उसे डांट पिलाने की कोशिश की थी.
‘‘जब डाइजेस्ट पढऩे वाले जहालत पर उतर आएं
तो बत्तमीज़ी करनी ही पड़ती है.’’
‘‘तु.... तुम कौन हो?’’
‘‘एक सेहतमंद मुर्ग़.’’ जवाब मिला.
‘‘लल्... लेकिन....’’
‘‘लेकिन क्या. डाइजेस्टों में शेषनाग क़िस्म
के ऊलज़ुलूल सांपों की कहानियां पढ़ कर आनंद लेने वाले अगर मुझे हैरत से देखें तो
उन पर तुफ़्र है.’’
‘‘यक़ीनन, यक़ीनन लेकिन
मैंने क्या कुसूर किया है?’’
‘‘तुम्हारा कुसूर ये है कि डाइजेस्ट में
छपने वाली पौराणिक कहानियां भी तुम्हें उदार न बना सकीं.’’
‘‘मम्...मैं नहीं समझा.’’
‘‘इसी माह के ‘‘सरपट
डाइजेस्ट’’ में तुमने एक ऐसी भैंस की कहानी पढ़ी है जो
हक़ीक़तन नीलम परी थी.’’
‘‘पप्... पढ़ी तो है.’’
‘‘तो फिर मुझ में कौन-से कीड़े पड़े हुए हैं
कि तुम मुझे शहन्शाहे-जिन्नात के फ़र्ज़न्दे-रशीद तस्लीम कर लेने से गुरेज़ कर रहे
हो!’’
‘‘नन्... नहीं’’, मैं
बौखला कर उठ खड़ा हुआ.
‘‘सुनो भोले दोस्त! मैं तुम से दोस्ती करना
चाहता था, वर्ना क्या मजाल थी उस कुत्ते की, टांगें चीर कर फेंक देता.’’
‘‘सवाल तो यह है...’’
‘‘तुम्हें यक़ीन नहीं आया कि जिन्नों का
शहज़ादा हूं.’’
मैंने इन्कार में सर हिलाया.
‘‘किस तरह यक़ीन आएगा?’’ मुर्ग़ के लहजे में झल्लाहट थी.
‘‘गोल्ड लीफ़ सिगरेट का पैकेट उसी क़ीमत पर ला
कर दिखाओ जो उस पर दर्ज होती है, तो मैं तुम्हारी बात पर
यक़ीन कर लूंगा.’’
मुर्ग़ फ़ौरन जवाब देने के बजाय एक टांग उठा कर
समाधि में चला गया. फिर पूरे एक मिनट बाद उसने आंखें खोली थीं और भर्रायी हुई आवाज़
में बोला था, ‘‘कोई और काम बताओ, ये
नामुमकिन है.’’
‘‘क्यों नामुमकिन है?’’
‘‘यहां के सरमायादारों का शहन्शाह जिन्नात
भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते.’’
‘‘सरमायादारों से क्या मतलब?’’
‘‘तो फिर ये दुकानदारों की भी बदमाशी नहीं
है.’’
‘‘बस बस, ख़त्म करो.
मुझ से ये फ्रॉड नहीं चलेगा’’, मैंने बेज़ारी से कहा.
‘‘एक बदनसीब शख़्स.’’ वो
भन्ना कर बोला, ‘‘तू ने मुझ से नौलक्खा हार की फ़रमाइश क्यों
नहीं की? दो चार डॉलर ही मांग लेते.’’
‘‘नहीं, मुझे सिर्फ
गोल्ड लीफ़ सिगरेट का पैकेट ही तीन रुपये साठ पैसे में चाहिए. नक़द क़ीमत भी अदा करने
को तैयार हूं.’’
‘‘बस, तो फिर क़यामत का
इंतिज़ार करो.’’
‘‘अच्छा चलो, यही बता
दो कि तुम मुर्ग़ा क्यों बन गए हो?’’
‘‘सियासत के चक्कर में पड़ कर मुर्ग़ा बना
हूं.’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘शेख़ साहब की सियासी सूझबूझ मुझे यहां खींच
लायी है.’’
‘‘मैं नहीं समझा’’
‘‘बात ये है कि हमारे मुल्क में भी
जम्हूरीयत की बातें होने लगी हैं.’’
‘‘यानी जिन्नात में?’’
‘‘हां हां, क्यों नहीं.
लिहाज़ा जिन्नात के शहन्शाह यानी मेरे वालिद हुजूर चाहते हैं कि अवामी लीडर भी शाही
ख़ानदान ही के किसी व्यक्ति को बनना चाहिए.’’
‘‘खुदा की बनाह.’’ मैं
कानों पर हाथ रखकर बोला, ‘‘जिन्नातों में भी डिप्लोमेसी
पहुंच गयी है?’’
इस पर मुर्ग़ ने एक उपहासास्पद क़हक़हा लगाया.
देर तक हंसता रहा, फिर बोला, ‘‘ए बेवकूफ़ आदमज़ाद. क्या तू ये समझता है कि डिप्लोमेसी आदमियों ने पैदा की
है?’’
‘‘यक़ीनन’’ मैंने सीना
तान कर कहा.
‘‘तुम्हारा ये यक़ीन जहालत पर आधारित है.’’
‘‘तुम बक़वास कर रहे हो’’, मुझे भी गुस्सा आ गया.
‘‘अच्छा, अब अपने इल्म
में इज़ाफ़ा करो’’, वो नर्मी से बोला, ‘‘डिप्लोमेसी
का संस्थापक मेरी क्रौम का एक जिन्न था और उसने डिप्लोमेसी की बुनियाद उस वक़्त
डाली थी जब आदम के ख़ाकी पुतले में जान भी नहीं पड़ी थी.’’
‘‘शायद तुम सियासत के साथ ही चरस पीना भी
सीख रहे हो?’’ मैंने हंस कर कहा.
‘‘मैं जाहिलों की बातों का बुरा नहीं मानता’’,
वो संजीदगी से बोला, ‘‘इस तरह समझने की कोशिश
करो. फ़रिश्तों का उस्ताद इज़राइल जिन्नात की क़ौम का ही फ़र्द था जो आदम को सदा न
करने की बिना पर शैतान-उर-रजीम क़रार पाया था.’’
‘‘चलो तस्लीम... अच्छा तो फिर?’’
‘‘डिप्लोमेसी की शुरूआत करने वाला वही शैतान
था. सज्दे से इन्कार इसलिए किया था कि ख़ाक के पुतले को हक़ीर समझता था, लेकिन अलाह पाक को ये विश्वास दिलाने की कोशिश की कि वो सबसे बड़ा है,
उसके अलावा और किसी को सज्दा नहीं कर सकता.’’
मैं उछल पड़ा और हैरत से उसे देखने लगा.
डिप्लोमेसी का सही अर्थ ही उसी वक़्त समझ में आया था.
‘‘अब बताओ, क्या मैं
ग़लत कह रहा हूं?’’ वो हंस कर बोला.
‘‘नन्... नहीं.’’
‘‘डिप्लोमेसी का आविष्कारक वही था, लेकिन इसमें भी शुबहा नहीं कि तुम लोगों ने इस फ़न को इतनी तरक़्क़ी दी है कि
अब शैतान भी चकरा कर रह जाता है.’’
मैंने चुप्पी साधी. अब इसके अलावा और कोई चारा
नहीं था. वो कुछ देर ख़ामोश रह कर बोला, ‘‘तुम मेरी
बातों से उदास तो नहीं हुए?’’
‘‘शर्मिन्दा हूं अपनी कमइल्मी पर!’’
‘‘नहीं, दिल छोटा न
करो. ये कमइल्मी नहीं, समझ का फेर है. शेख़ साहब की सोहबत
नसीब होने से पहले मैं भी तुम्हारी ही तरह चुग़द था.
‘‘मगर तुम तो ज़्यादातर बेगम साहिबा की सोहबत
में रहते हो?’’
‘‘कान ज़्यादातर शेख़ साहब ही की तरफ़ लगे रहते
हैं.’’
‘‘वाक़ई तुम से मिल कर बड़ी खुशी हुई,
दोस्ती का हाथ तुम्हारी तरफ़ बढ़ाता हूं’’, मैंने
सचमुच बेहद खुश होकर कहा.
‘‘लेकिन दूसरों की नज़रों में तुम मुझे मुर्ग़
ही रहने दोगे.’’
‘‘मन्जूर.’’ मैंने हाथ
उठा कर कहा.
कुछ देर ख़ामोश रह कर बोला,
‘‘दरअस्ल मेरी एक प्रॉब्लम है, इसलिए मैंने
तुम से क़रीब होने की कोशिश की थी.’’
‘‘कहो कहो मेरे दोस्त, मैं तुम्हारी क्या ख़िदमत कर सकता हूं?’’
वो ठंडी सांस लेकर बोला,
‘‘मुझे नोशाबा से मुहब्बत हो गयी है.’’
‘‘नोशाबा से?’’ मैं
उछल पड़ा.
‘‘कक्... क्यों?’’ वो
बौखला कर हकलाया, ‘‘कक् क्या तुम भी?’’
‘‘लाहौलवला कुव्वत!’’ मैं
बुरा-सा मुंह बना कर बोला, ‘‘इतने महान मुर्ग़ होकर भी इतना
घटिया टेस्ट रखते हो?’’
‘‘ए आदमज़ाद! ये दिल के मुआमले हैं’’,
वो रुआंसा होकर बोला.
‘‘मुझे तुम से हमदर्दी है’’, मैं संजीदा हो गया.
वो भर्रायी आवाज़ में बोला,
‘‘हमदर्दी ही तो फ़साद की जड़ है. पहले मुझे उससे हमदर्दी ही हुई थी
कि बदसूरती की वजह से उसका कहीं से रिश्ता नहीं आता. कुढ़ते-कुढ़ते आख़िरकार खुद ही
मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गया.’’
‘‘तो फिर प्रॉब्लम क्या है?’’
‘‘उसे भी मुहब्बत करने पर किस तरह आमादा
किया जाए, क्योंकि उसे तो सिवाय खाने-पीने के और किसी चीज़ से
दिलचस्पी नहीं. अरे! मुझ पर भी दांत रखती है. एक दिन अपनी सहेली से कह रही थी कि
इस मुर्ग़ का गोश्त बेहद लज़ीज़ होगा. मम्मी इसे चिलग़ोज़े खिलाती है. तुम किसी तरह
अपने घर पार कर ले जाओ, वहीं काट कर पकाएंगे.’’ उसका लहजा दर्दनाक था, लेकिन मुझे हंसी आ गयी.
‘‘मेरा मज़ाक़ न उड़ाओ मेरे दोस्त.’’
‘‘मुझे अफ़सोस है’’, मैं
फिर जल्दी से संजीदा हो गया.
‘‘मैं उसे आमादा कर सकता था लेकिन....’’
‘‘लेकिन... क्या...’’
‘‘उर्दू बोल सकता हूं, लिख नहीं सकता.’’
‘‘मैं नहीं समझा...’’
‘‘उर्दू लिख सकता तो उसे गुमनाम इश्क़िया ख़त
लिख कर उसके दिल पर मुहब्बत जगाने की कोशिश करता. अंग्रेज़ी ही में तो तीन साल से
फ़ेल हो रही है’’, उसके लहजे में मायूसी थी.
‘‘तो फिर मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?’’
मैंने उकता कर पूछा.
‘‘मेरी तरफ़ से उसे एक ख़त लिख दो.’’
इस फ़रमाइश पर मैं सकते में आ गया.
‘‘क्या सोचने लगे?’’ उसने
मेरे बाजू पर ठोंग मार कर कहा,
‘‘ज़रा मुश्किल काम है’’, मैं चौंक कर बोला.
‘‘क्यों?’’
‘‘मैंने कभी किसी को इश्क़िया ख़त नहीं लिखे.’’
‘‘अपने लिए तो नहीं लिख रहे.’’
‘‘मैं लिख ही नहीं सकता. इश्क़ किये बग़ैर
कैसे लिखे जा सकते हैं?’’
‘‘मियां! अक़्ल के नाखून लो, मज़मून मेरा होगा और सिर्फ तहरीर तुम्हारी.’’
‘‘मेरी तहरीर? यार,
क्यों मेरी गर्दन कटवाओगे. तुम तो मुर्ग़ रह कर भी महफूज़ होगी,
लेकिन मैं ज़िब्ह कर दिया जाऊँगा.’’
‘‘इसका ज़िम्मा मैं लेता हूं कि किसी गड़बड़
की सूरत में तुम पर आंच न आने दूंगा.’’
‘‘ज़रा... देखो... इधर मेरी तरफ.’’
मैं उसकी तरफ़ मुड़ा और एक बार फिर बौखला कर
खड़ा हो गया. मुर्ग़ के बजाये मेरे सामने एक जवान खड़ा था. ‘‘खूब! खूब!!’’ मैंने नारा लगाया.
‘‘शुक्रिया. आज लड़कियां ऐसे ही हुस्न की
शैदाई हैं. पचास साल पहले का मर्दाना हुस्न रखने वाले उन्हें जंगली लगते हैं.’’
‘‘अच्छा तो फिर बताओ, मैं
क्या लिखूं?’’
फिर मुझे उसकी आशिक़ाना सलाहियतों को मानना
पड़ा था. क्या ख़त लिखवाया था ज़ालिम ने और अख़ीर में लिखवाया था,
‘‘ए पुरशबाब नोशाबा, शब बख़ैर.’’ नीचे किसी का नाम दर्ज नहीं किया गया था. तह किया हुआ ख़त चोंच में दबा कर
वो ग़ायब हो गया.
दूसरी सुबह नाश्ते की मेज़ पर नोशाबा अपने डैडी
को बार-बार शर्मीली नज़रों से देख रही थी. नाश्ते के बाद मैं अपने ऑफ़िस की तैयारी
में मशगूल था कि मुर्ग़ फिर आ धमका, ‘‘तुमने
देखा’’, उसकी आवाज़ कांप रही थी.
‘‘क्या देखा?’’
‘‘तुम्हें कैसी शर्मीली नज़रों से देख रही थी.’’
‘‘तुम्हारा दिमाग़ तो नहीं चल गया, शेख़ साहब को देख रही थी.’’
‘‘नहीं, तुम्हें देख
रही थी’’, वो ग़मगीन लहजे में बोला, ‘‘ख़ैर
शादी हो जाने के बाद मैं उसका भैंगापन ठीक कर लूंगा.’’
‘‘तो क्या सचमुच मुझे ही इस तरह देख रही थी?’’
मैंने कांप कर पूछा.
‘‘हां हां, तुम उसके
दिल में प्यार की तड़प पैदा करने में कामयाब हो गए हो.’’
‘‘ए मुर्ग़ भाई!’’ मैं
गिड़गिड़ाया, ‘‘कहीं मुझे किसी मुसीबत में न फंसा देना.’’
‘‘तुम बेफ़िक्र रहो प्यारे दोस्त. मैं एहसान
फ़रामोश नहीं हूं.’’
दफ्तर से वापसी पर शाम को उसने फिर मुझ से एक
ख़त लिखवाया और दूसरी सुबह जब मैं दफ्तर जाने के लिए कोठी से निकल रहा था, नोशाबा गेट के पास खड़ी नज़र आयी. जैसे ही गेट के क़रीब पहुंचा, आहिस्ता से बोली, ‘‘शाम को मेरे लिए भर रसमलाई लेते
आना, लेकिन मम्मी को न मालूम होने पाए.’’
बौखलाहट में सर को हिलाते हुए मैं वहां से
सरपट भाग निकला. बाद में मालूम हुआ कि रसमलाई तौल के हिसाब से नहीं, बल्कि दर्जनों में उसका हिसाब होता है.
‘‘क्या करूं?... कितनी
लूं?’’ मैं उकताहट के साथ बड़बड़ाया.
‘‘तीन दर्ज़न’’, किसी
ने आहिस्ता से कान में कहा.
‘‘कक्.... कौन?’’ मैं
उछल पड़ा.
‘‘शहज़ादा कुकडूं कूं.’’
‘‘कहां हो?’’
‘‘तुम्हारे दाहिने कान में... नहीं नहीं,
कान झाडऩे की कोशिश की तो मैं ज़ाया हो जाऊंगा.’’
दाहिने कान की तरफ़ उठा हुआ हाथ नीचे गिर गया. ‘‘अकेली खाएगी तीन दर्जन?’’ मैंने हैरत से पूछा.
‘‘हां हां, उसकी यही
अदा तो मुझे भा गयी है. खाती है तो खाती चली जाती है. तुम फ़िक्र मत करो. उसकी
फ़रमाइशों की क़ीमत अदा करूंगा.’’ और हक़ीक़त यह है कि तीन दर्ज़न
रसमलाईयों की क़ीमत मुझे अपने कोट की जेब में मिल गयी थी.
आठवें ख़त पर उसने भैंस के पाये और तंदूरी
रोटियों की फ़रमाइश की थी, लेकिन इसका इंतिज़ाम कोठी में
नहीं हो सकता था लिहाज़ा पिकनिक पार्टी तरतीब दी गयी थी. उस रात शहज़ादा कुकडूं कूं
ने मेरी पीठ पर इस क़दर ठोंगें मारीं कि मैं बिलबिला उठा.
‘‘अरे मैं तो पीठ ठोंक रहा हूं, शाबाशी दे रहा हूं’’, वो हंस कर बोला.
‘‘यार! तुमने बड़ी मुसीबत में फंसवा दिया है.
आज ही उसने कलेजी की भी फ़रमाइश जड़ दी है. कहां पकवाता फिरूंगा?’’
‘‘वहीं, जहां भैंस के
पाये पकवाये थे.’’
‘‘देखना! तुम भी पछताओगे’’, मैंने दांत पीस कर कहा.
‘‘तुम मुझ पर एहसान कर रहे हो, इसके एवज़ में तुम्हें इस सड़ीबुसी ज़िंदगी से निजात दिलाऊंगा.’’
‘‘जिन्न बना दोगे?’’ मैंने
ख़ौफ़ज़दा लहजे में पूछा.
‘‘नहीं, अपनी अवामी
हुकूमत में तुम्हें मानव संसाधन मंत्रालय अता करूंगा.’’
‘‘मुझे उल्लू न बनाओ.’’
‘‘यक़ीन करो. हमारे यहां भी एक शहन्शाहियत का
ख़ात्मा होना है. इसलिए अब्बा हुजूर चाहते हैं कि अवामी लीडरशिप शाही ख़ानदान ही से
उभरे, वर्ना हम सब टोकरे ढोते नज़र आएंगे.’’
‘‘मत बोर करो.’’
‘‘अच्छा अच्छा, उस दिन
तुम्हें यक़ीन आएगा जब तुम्हें अपनी सड़ीबुसी फ़र्म की असिस्टेंट मैनेजरी से निजात
मिलेगी और तुम मेरी हुकूमत के एक वज़ीर होंगे.’’
‘‘हूं... जिन्नों की हुकूमत में मुझे वज़ारत
मिलेगी?’’ मैं बेएतबारी से बोला.
‘‘देख लेना.’’
‘‘तुम लोगों को मानव संसाधन से क्या सरोकार?’’
‘‘मेरी अवामी हुकूमत सरोकार रखेगी. मुझे ज़रा
अच्छा नहीं लगता जब तुम्हारे बूढ़े लोगों की जवान और हसीन बीवियों पर जिन्न आने
लगते हैं. तुम्हारा मंत्रालय ऐसे ही मुआमलों की देखभाल करेगा.’’
‘‘जहन्नुम में जाए. मैं फ़िलहाल क्या करूं?
अब तो वो मुझ से लगावट की बातें भी करने लगी है.’’
‘‘तुम क्या कहते हो?’’
‘‘कुछ भी नहीं, दम
साधे रहता हूं.’’
‘‘तुम एक वफ़ादार दोस्त हो’’, मुर्ग़ ने संजीदगी से कहा, ‘‘तुम्हारी जगह और कोई
होता तो खुद ही उस पर क़ब्ज़ा जमा बैठता.’’
‘‘अंधा या काना होता खुद ही क़ब्ज़ा जमा बैठने
वाला. तुम आख़िर मुझे समझते क्या हो? मैंने फ़िल्म स्टार
माहलक़ा तक को घास नहीं डाली.’’
‘‘मैं जानता हूं, तुम
बहुत पारसा हो और इसी पारसाई का सिला तुम्हें जल्द ही मिलने वाला है.’’
मैं बुरी तरह उकताया हुआ था, इसलिए उससे पीछा छुड़ाने को एक किताब खोल ली. मैं नोशाबा से भागा-भागा
फिरता था. एक दिन उसने मुझे घेर ही लिया. घर में हम दोनों के अलावा और कोई नहीं था.
‘‘बस ख़त ही लिखते रहोगे, ज़बान से कुछ नहीं कहते?’’
‘‘ज़बान से क्या कहूं?’’ मैं नर्वस हो गया.
‘‘यही कि खाते क्या हो और क्या नहीं खाते?’’
‘‘कक्... क्या... खाता हूं?’’
‘‘हां, हां.’’
‘‘भैंस के पाये.’’
‘‘और...?’’
‘‘बकरी की ओझड़ी.’’
‘‘और...’’ वो खी-खी
करती बोली.
‘‘ऊंट की दुम.’’
हंसी के मारे मुंह में दुपट्टा ठूंस कर दोहरी
हो जाने की कोशिश करने लगी, लेकिन मोटापे की वजह से न हो
सकी.
‘‘अल्लाह क़सम! बहुत मसख़रे हो.’’ वो आख़िर बोली.
मैंने भाग निकलना चाहा, लेकिन वो रास्ता रोक कर खड़ी हो गयी.
‘‘तुम मम्मी और डैडी से क्यों नहीं कहते.’’
उसने आहिस्ता से कहा.
‘‘कक्... क्या कहूं?’’ मुझ पर पूरी तरह बदहवासी का दौरा पड़ गया.
‘‘यही, ख़त वाली बात.’’
‘‘अरे, बाप रे.’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘मतलब ये कि... मम् ...मुझे शर्म आती है.’’
‘‘तब फिर कैसे काम चलेगा?’’
‘‘अच्छा तो क्या तुम मुझ से महज़ फ़्लर्ट करते
रहे?’’ वो आंखें निकाल कर बोली.
‘‘वो... वो... दरअस्ल...’’
‘‘इस ख़याल में न रहना. मैं बहुत बुरी हूं.
मुझे कोई भी धोखा नहीं दे सकता.’’
‘‘सस्... समझने की कोशिश करो.’’
‘‘क्या समझने की कोशिश करूं?’’
‘‘वो ख़त मैंने खुद नहीं लिखे बल्कि मुझ से
लिखवाये गए हैं.’’
‘‘अच्छा अच्छा’’, वो
ज़ोर से हंस कर बोली, ‘‘तो तुम सूफ़ी भी मालूम होते हो.’’
‘‘सूफ़ी-? मैं समझा
नहीं.’’ मैंने हैरत से कहा.
‘‘अरे हां, हमारे नाना
अब्बा भी सूफ़ी थे. रह-रह कर यही मिस्रा पढ़ा करते थे- कोई और बोलता है, मेरी सदा न समझो.’’
मैंने दिल ही दिल में अपना सर पीट लिया. फिर
इसके पहले कि मैं आगे सफ़ाई पेश करने की कोशिश करता, उसने
कहा, ‘‘अच्छी बात है, तुम्हें शर्म आती
है, तो मैं खुद ही मम्मी से बात कर लूंगी.’’
मैं हक्का बक्का खड़ा रह गया और वो चली गयी.
उस रात जैसे ही मुर्ग़ ने मेरे कमरे में क़दम
रखा,
मैं आपे से बाहर हो गया. वो ख़ामोशी से सुनता रहा. जब मैं सब कुछ कह
चुका तो आहिस्ता से बोला, ‘‘बस अब वक़्त आ गया है कि मैं
मामले को ख़त्म ही कर दूं.’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘सुब्ह नाश्ते की मेज़ पर देख लेना.’’
‘‘क्या देख लूंगा?’’
‘‘सब कुछ ठीक हो चुका होगा. तुमने मेरे लिए
बहुत तकलीफ़ें उठायी हैं. तुम्हें इसका इनाम ज़रूर मिलेगा.’’
‘‘मुझे इनाम विनाम की ज़रूरत नहीं है. उस
लडक़ी से मेरा पीछा छुड़ाओ.’’
‘‘अच्छा, अच्छा’’
कहता हुआ वो चला गया.
दूसरी सुब्ह नाश्ते की मेज़ पर नोशाबा नहीं थी.
शेख़ साहब थे और बेगम साहिबा. मुर्ग़ बेगम साहिबा की गोद में बैठा हुआ था.
अचानक शेख़ साहब मुझे मुख़ातिब करके बोले,
‘‘मैं बहुत आज़ाद ख़याल आदमी हूं.’’
‘‘जज्... जी हां, बिल्कुल!’’
मैं जल्दी से बोला.
‘‘खून और हड्डी के बजाय ज़ाती शराफ़त और तालीम
देखता हूं. तुम शरीफ़ भी हो और तालीमयाफ्ता भी.’’
‘‘मम्... मैं नहीं समझा’’, मेरे हवास गुम होने लगे.
‘‘हमें सब कुछ मालूम हो चुका है. बेबी
तुम्हारे साथ खुश रहेगी.’’
‘‘ये आप क्या फरमा रहे हैं?’’ मैं कुर्सी से उठ गया.
‘‘बैठ जाओ, बैठ जाओ’’,
शेख़ साहब हाथ उठाकर बोले, ‘‘बहुत ज़्यादा ख़ुशी
का इज़हार नादानी है.’’
‘‘मगर जनाब... मम् ...मैं इस पर तैयार नहीं
हूं.’’
‘‘ए! अब बोलता क्यूं नहीं?’’ मैंने दांत पीस कर मुर्ग़ को मुख़ातिब किया.
बेगम साहिबा कडक़ कर बोलीं,
‘‘तुम्हारा दिमाग़ तो ख़राब नहीं हो गया.’’
‘‘जी नहीं. सब कुछ इसी का किया-धरा है,
अबे बोल.’’
‘‘कुकडू कूं’’, मुर्ग़
बोला.
बेगम साहिबा भी कुछ कहने वाली थीं कि शेख़ साहब
हाथ उठा कर उन्हें चुप कराते हुए मुझ से बोले, ‘‘तो ये बात
है. तुम सि$र्फ मेरी इज़्ज़त से खेलना चाहते थे?’’
‘‘जी नहीं, खुदा की
क़सम! वो ख़त इसी कमीने मुर्ग़ ने लिखवाये थे. ये शहन्शाहे-जिन्नात का बेटा है.’’
‘‘शट अप!’’ शेख़ साहब
दहाड़े, ‘‘पागलपन का ढोंग रचा कर तुम अपनी जान नहीं बचा
सकोगे. शेख़ मदारबख़्श साबिक़ एमएलए की इज़्ज़त को ललकारना आसान नहीं. मैं तुम्हारी खाल
खिंचवा लूंगा.’’
‘‘मुर्ग भाई, ये क्या
हो रहा है?’’ मैं मुर्ग़ के सामने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाया.
‘‘कुकडू कूं’’, जवाब
मिला.
‘‘बेगम साहिबा! इसी ने...’’
‘‘बकवास बंद करो. तुम्हारे सारे ख़त बेबी ने
मुझे दिखाये हैं. क्या तुम्हें इससे इन्कार है कि वो ख़त तुमने लिखे हैं?’’
‘‘मैंने ही लिखे हैं लेकिन इसने लिखवाये हैं’’,
मैंने मुर्ग़ को घूंसा दिखाते हुए कहा.
शेख़ साहब ने फिर बेगम साहिबा को ख़ामोश रहने का
इशारा किया और मुलाज़िमों को आवाज़ें देने लगे. पांचों तगड़े मुलाज़िमों ने मेज़ के
गिर्द घेरा डाल दिया.
‘‘ये शख़्स कोठी से बाहर क़दम न निकालने पाये’’,
शेख़ साहब ने मेरी तरफ़ इशारा करके कहा.
तो, ए
अज़ीज़ाने-गिरामी. बात को तूल देने से फ़ायदा? शेख़ साहब की
इज़्ज़त का मामला था. लिहाज़ा वही हुआ, जो होना था.
बेडरूम में क़दम रखते ही एक लिफ़ाफ़ा मेज़ पर पड़ा
नज़र आया. लिफ़ाफ़े पर मेरा ही नाम तहरीर था. मैं आंखें फाड़-फाड़ कर उसे देखने लगा.
हैरत इस पर थी कि लिखावट भी मेरी ही थी. झपट कर लिफ़ाफ़ा उठाया और उसे चाक करके
पर्चा निकाला उस कमीने मुर्ग़ ने यहां भी मेरे लिए कोई गुंज़ाइश नहीं छोड़ी थी यानी
मेरी ही राइटिंग में लिख मारा था: प्यारे अब्दुल मनान. शादी मुबारक. बात दरअस्ल यह
थी पिछले दो माह से शेख़ साहब बहुत परेशान थे. सियासी बातें तर्क करके शादी-ब्याह
और रस्मो-रिवाज के बारे में गुफ्तगू करते थे. मेरा बड़ा नुक़सान हो रहा था. मैंने
सोचा कि नोशाबा का भार उनके ज़ेहन से हट जाए तो वो फिर पहले ही जैसे हो जाएंगे. और
प्यारे अब्दुल मनान. मुझे भला अभी शादी वग़ैरह से क्या सरोकार? अभी तो मुझे पॉलिटिकल साइंस में एम.ए. भी करना है. तुम अपना दिल छोटा न
करो. अगले इलेक्शन में शेख़ साहब ज़रूर कामयाब होंगे और उन्हें मिनिस्टरी मिलेगी.
तुम मिनिस्टर के दामाद कहलाओगे और हो सकता है उसी फ़र्म के जनरल मैनेजर बना दिये
जाओ जिसमें तुम अस्सिटेंट मैनेजरी कर रहे हो. बहरहाल नोशाबा को बिल्कुल मुफ्त समझो.
ख़त पढ़ कर मैं ढेर हो गया और फिर बुलंद आवाज़
में बांग देने लगा- कुकडूं कूं... कुकडू कूं... कुकडूं कूं...
पागलपन नहीं चलेगा,
‘‘मसहरी पर रखे हुए सुर्ख़ ढेर से आवाज़ आयी... और... और मैं बेहोश हो
गया. अब आगे का हाल मत पूछ ए हमनशीं. वो मरदूद तो पॉलिटिकल साइंस में एम.ए. कर रहा
है और यह ग़रीब यानी अब्दुल मनान मुर्ग़ बना हुआ है.
(पहल १०४ से साभार)
(पहल १०४ से साभार)
No comments:
Post a Comment