Friday, January 6, 2017

ओम पुरी का एक पुराना इंटरव्यू

ओम पुरी नहीं रहे. दिल का दौरा पड़ने से आज उनकी मृत्यु हो गयी. सत्तर के दशक में भारतीय सिनेमा ने जो कलात्मक ऊंचाइयां देखीं, वहां तक पहुंचाने वाले सबसे बड़े अभिनेताओं को याद किया जाएगा तो खुरदरे चेचक के दागों से भरे बेहद मामूली सूरत वाले इस बेहतरीन अदाकार का नाम संबसे अगली पांत में आएगा. उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मैंने अभी-अभी पल्लवी जोशी द्वारा आज 'फ़र्स्ट पोस्ट' में कही गयी एक बात को फेसबुक पर पोस्ट किया था. उसी सन्दर्भ में मेरा ध्यान उनके 2011 के इस इंटरव्यू पर गया. 


फेसबुक की पोस्ट यह रही:

इस पूरे दरम्यान मेरा दिमाग धीमा पड़ता जा रहा था और सारे विचार बस एक ही जगह पर जाकर ठहर जा रहे थे - ओम जी के साथ मेरी पहली फिल्म सुष्मन की आंध्र प्रदेश के पोचमपल्ली में शूटिंग. श्याम बेनेगल ने इस फिल्म में मुझे ओम पुरी और शबाना आज़मी की समय से पहले वयस्क हो जाने वाली बेटी के रोल में कास्ट किया था. मैं सोलह की थी तब. हम सब हैदराबाद के एक होटल में रह रहे थे लेकिन ओम जी - जिन्होंने फिल्म में हथकरघा बुनकर की भूमिका निभाई थी - बुनकरों के साथ उनके गाँव पोचमपल्ली में ही रहे.

वहां ठीकठाक बाथरूम और गर्म पानी जैसी साधारण सुविधाएं भी नहीं थीं लेकिन ओम जी को एक बार भी वापस हैदराबाद लौटने का लालच नहीं आया. वे इस छोटे से गाँव में इसलिए रह रहे थे कि हथकरघे पर अभ्यास कर सकें - सुबह नौ बजे शूटिंग शुरू करने से पहले दो-तीन घंटे और हमारे पैकअप करने के बाद दो घंटे. फिल्म के समाप्त होते होते हर कोई ओम जी को चिढ़ाने लगा था. लोग उनसे कहते थे वे हथकरघे पर बुनकर बनने को अपना वैकल्पिक पेशा बना सकते थे - वे इसमें इस कदर पारंगत हो चुके थे! उन्होंने काले-सफ़ेद का एक डिज़ाइन बुनना शुरू किया था और फिल्म के समाप्त होने तक वे काफी बन चुके थे. उन्होंने अभिनेताओं की पूरी कास्ट को अपने हाथों से बुने कपड़े का एक-एक टुकड़ा तोहफे में दिया.

और अब यह इंटरव्यू:


फिल्म खापकरने का मकसद?
यही कि प्रेम करने वालों को मौत की सज़ा देने का हक किसी को नहीं है, चाहे मां-बाप ही क्यों न हों खापों का इतिहास रक्तरंजित नहीं रहा यह संख्या गौरवशाली अतीत व सामाजिक सरोकारों से जुड़ी रही है

क्या किसी राजनीतिक दल को कठघरे में खड़ा करती है फिल्म?
एक दल नहीं, दो नहीं, चार नहीं और पांच भी नहीं हम सभी राजनीतिक दलों पर सवाल खड़े करते हैं जो ऐसी घटनाओं पर चुप्पी साध लेते हैं और इन घटनाक्रमों को अपरोक्ष रूप से बढ़ावा देते हैं क्योंकि ये बहुत बड़ा वोट बैंक है कमोबेश यही स्थिति पुलिस प्रशासन की उदासीनता की भी है, जिनकी आंखों के सामने ये हत्याएं हो जाती हैं

क्या फिल्म समस्या का हल देती है?
यह जिम्मेदारी हमारी नहीं है सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दे दिया है यहां तक कहा है कि दोषियों को मौत की सज़ा मिले इसे रोकना सरकार की जिम्मेदारी है पुलिस-प्रशासन को कानून का पालन करवाना है हम तो ये बताना चाहते हैं कि यह गलत है, इसके विरुद्ध जनमत बने

क्या पचास साल पहले भी ऐसी खबरें आती थीं?
अखबार वाले जानते हैं कि पहले ऐसी घटनाएं नहीं होती थीं तो ऐसी खबरें भी नहीं आती थीं पहले खापों का स्वरूप लोकतांत्रिक व सामाजिक सरोकारों से जुड़ा था खापें मुगलों व विदेशी आक्रांताओं के खिलाफ उठ खड़े होकर संघर्ष करती थीं लोगों को सुरक्षा देती थीं

फिल्म रिलीज होने पर कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है इसका विरोध हो रहा है?
ये जिम्मेदारी सरकार की है सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है उसका अनुपालन होना चाहिए जब राजा राममोहनराय ने सती-प्रथा के खिलाफ आंदोलन किया तब भी कुछ लोगों ने इसे अपनी परंपरा, प्रथा, विश्वास, संस्कार बताकर विरोध किया होगा लेकिन बाद में कानून बना और प्रथा खत्म हुई कितनी शर्म की बात है कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में खबर छपती है कि खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताने वाले देश में प्रेम करने वालों को मौत की सज़ा मिलती है ऐसा अंधाकानून तो नहीं चलेगा

फिल्म केवल उत्तर भारत में रिलीज होगी या दक्षिण में भी?
यह फिल्म सारे देश में रिलीज होगी जैसे अन्य फिल्में दक्षिण में रिलीज होती हैं यदि जरूरत पड़ी तो इसे डब किया जाएगा


इसमें ओमकार चौधरी की पगड़ी हरे रंग की है, जो एक राजनीतिक दल की पहचान है?
यह हरा रंग मुसलमानों का है हमारी ड्रेस डिजाइनर मुस्लिम थी, उसकी पसंद है

आपने इस किरदार को निभाने के लिए कोई शोध किया?
किरदार को निभाने के लिए शोध की जरूरत नहीं होती यह काम डायरेक्टर का है हमें तो स्क्रिप्ट मिल जाती है उसमें इतिहास होता है अरे भाई! 35 साल हो गये फिल्में में काम करते हुए तकरीबन 250 फिल्में कर चुका हूं हर बार नया किरदार होता है कभी कोई ऐसा क्रॉफ्ट होता है तो उसके लिए सीखने की जरूरत होती है श्याम बेनेगल की फिल्म सुष्मनके लिए बुनकर का किरदार निभाना था मुझे बुनाई नहीं आती थी मैंने एक सप्ताह बुनना सीखा फिर मुझे करघे पर काम करने में मजा आया जब भी शूटिंग से फ्री होता हूं, बुनने बैठ जाता मैंने डेढ़ महीने में 40 मीटर कपड़ा बुना अर्धसत्यमें मैंने मोटरसाइकिल चलानी सीखी, मुझे नहीं आती थी लेकिन जहां तक पुलिस वाले का किरदार है तो हम उन्हें आम देखते हैं वे कैसे बैठते हैं, चलते हैं ढीला पुलिस वाला ढीला चलेगा, कड़क पुलिस वाला तनकर चलेगा

ऑनर किलिंग के पीछे गोत्र विवाद भी तो है?
हमें उससे कोई लेना-देना नहीं है लेकिन एक बात साफ है कि प्यार की सज़ा मौत नहीं हो सकती कसाब के बारे में सबको पता है वह अपराधी है संसद के हमलावरों को मौत की सज़ा मिली, मामला राष्ट्रपति के पास है उन्हें हम जान से नहीं मार सकते जब तक कानून न  कहे शादी करने पर आप कहो मार दो, जला दो, नदी में डाल दो, उन पर ट्रैक्टर चला दो. क्या जंगलराज है? शादी हो जाए, बच्चा हो जाए, फिर कहो राखी बांध लो? यह तो अन्याय है?

फिर समाधान क्या है?
बच्चों को पढ़ाओ-लिखाओ. उन्हें संस्कार दो. उन्हें समझाओ कि यह हमारी परंपरा में नहीं है यूं ही. बच्चों की जान ले लोगे?

अपने किरदार के बारे में बताएं?
वह रौबीला, दमदार और ऑनर किलिंग का समर्थक है कालांतर में उसका एनजीओ में काम करने वाला बेटा गांव आता है वह पढ़ा-लिखा और प्रगतिशील सोच का है उसका पिता से टकराव होता है बाद में उसकी इन्हीं रूढिय़ों के चलते हत्या हो जाती है इससे सरपंच को गहरा आघात लगता है लेकिन अपने को खोने के बाद उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है फिर वह ऐसी हत्याओं का मुखर विरोध करता है

फिल्म से कैसी उम्मीदे हैं?
मेरा मानना है कि फिल्म को देखे बिना कोई राय नहीं बनानी चाहिए जर्मनी में अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव में इसे अच्छा प्रतिसाद मिला है और पुरस्कार के लिए नामांकित हुई है हमारा मकसद एक बुराई के खिलाफ सशक्त जनमत बनाना है ताकि पुलिस-प्रशासन-पॉलिटीशियन की खतरनाक खामोशी विचलित न करे.

(अरुण नैथानी द्वारा लिया गया यह इंटरव्यू दैनिक ट्रिब्यून से साभार)


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