ओम पुरी (18 अक्टूबर 1950 - 6 जनवरी 2017) |
फाकाकशी
के दौर का ‘करोड़िया’
- रामगोपाल बजाज
उस
वक्त मैं राष्ट्रीय नाट्य अकादमी की रेपर्टरी का चीफ था. दफ्तर में मेरे पास कई
बार मिनिस्ट्री से फोन आया कि ओम पुरी का नाम पद्म अवार्ड के लिए नामित किया जा
रहा है,
कृपया इनकी कंसर्न ले लीजिए. मैंने जब ओम पुरी से बात की तो
उन्होंने मुझसे पूछा कि ‘क्या आप सबको पद्म अवार्ड बांट रहे
हैं?’ मैंने कहा, ‘अरे भई मैं कहां से
पद्म अवार्ड बांटने लगा. लोग जानते हैं कि हम तुम साथ रहे
हैं, इसलिए मुझसे पूछा और मैं तुमसे पूछ रहा हूं.’ दरअसल वो हमसे दस-ग्यारह साल छोटे थे. मैंने एनएसडी सन 1965 में पास किया और उन्होंने सन 1973 में. लेकिन
मुद्दे की बात यह है कि वह बहुत ब्रिलियंट थे. उनका पूरा बैच ही सुपर ब्रिलियंट था
जिसमें नसीरुद्दीन शाह, ज्योति सुभाष, भानु
भारती आदि थे. भानु भारती के डिप्लोमा प्रॉडक्शन का एक नाटक था जिसका नाम था ‘लेसन’. इसमें उन्होंने जो कमाल का अभिनय किया,
वह याद अभी तक ताजा है. बाद में इब्राहिम अल्काजी ने एक जर्मन
नाटककार का काफी बड़ा प्रॉडक्शन किया था जिसमें मैंने उन्हें देखा. ‘इबारागी’ नाम से एक जापानी नाटक भी उन्होंने किया था
जिसमें उनका और रोहिणी हट्टंगड़ी का मेजर रोल था. उसमें तो उन्होंने जैसे कमाल ही
कर दिया था. उस वक्त हम लोग दिशांतर नाम से संस्था चलाते थे, ओम शिवपुरी उसके प्रधान हुआ करते थे. इस संस्था के जरिए हमने ‘हिरोशिमा’ नाम का एक नाटक किया था. यह बादल सरकार का
नाटक था जिसका अनुवाद मैंने किया था और अल्काजी इसे डायरेक्ट कर रहे थे. एनएसडी की
छुट्टियों में जब नसीर और ओम निकले तो हमें शो रिपीट करना था.
उस
रिपीट शो में इन दोनों ने कमाल का अभिनय किया था. एनएसडी में ओम हैमलेट के लिए भी
जाने जाते रहेंगे. भानु भारती के साथ इन्होंने उस नाटक में हैमलेट की न सिर्फ
भूमिका निभाई, बल्कि एनएसडी के बाहर जाकर इस नाटक को सफल
बनाया. उस वक्त सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने मुझे दिनमान में इस नाटक का रिव्यू
लिखने की जिम्मेदारी दी थी. एनएसडी में कुछ दिनों तक तो ओम ने रेपर्टरी जॉइन की
लेकिन वह बहुत दिन चली नहीं. उसके बाद ओम फिल्म इंस्टिट्यूट चले गए जहां जाने के
बाद उनका काम और मकाम, दोनों बदल गया. एक बार की बात याद आती
है, सन 75 में जब ओम छुट्टी पर आए तो ‘करोड़िया’ नाम से एक नाटक खेला था जिसे मैंने
डायरेक्ट किया था. उन दिनों हमारा फाकाकशी का दौर था. मैं और ओम दिल्ली की पूसा
रोड पर बनी एक बरसाती में रहा करते थे. मैं और ओम बिलकुल साधारण परिवार से थे और
यही हमारा तालमेल था. उनमें बड़ी प्रतिभा और ताकत थी जिसने उन्हें शिखर पर
पहुंचाया. दरअसल वह नैचरल एक्टर थे और बहुत ज्यादा एनालिसिस करने की जगह सीधे
भूमिका की तह तक पहुंच जाते थे. हम लोग बात करते रहते थे और वह उतना ही सुनकर रेडी
हो जाते थे. उनकी पहली फिल्म ‘गोधूलि’ में
मैं और गिरीश कर्नाड को-डायरेक्टर थे और फिल्म में नसीरुद्दीन शाह और कुलभूषण
खरबंदा मुख्य भूमिका में थे. लेकिन मैं उनसे सबसे ज्यादा तब प्रभावित हुआ जब ‘तमस’ में उन्होंने खुद को आत्मसात किया. ‘सिटी ऑफ जॉय’, ‘वेस्ट इज वेस्ट’, ‘जाने भी दो यारों’ में उन्होंने जो शेड्स दिखाए,
वे उन्हें अमर कर गए हैं.
(प्रस्तुति:
अमितेश कुमार. आज के नवभारत टाइम्स से साभार.फेसबुक पर लिंक मुहैय्या करवाने के
लिए राहुल पाण्डेय का शुक्रिया.)
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