Thursday, April 10, 2008

एक बेरोज़गार की कविताएं

सुन्दर चन्द ठाकुर हिन्दी के नामी कवि हैं और कबाड़ख़ाने के कबाड़ियों में शुमार है उनका. यह अलग बात है कि आज तक उन्होंने अपने आलस्य के कारण यहां एक भी पोस्ट नहीं लगाई है. ख़ैर! अभी अभी नया ज्ञानोदय में उनकी कुछ कविताएं आई हैं. इन अच्छी कविताओं के शुरुआती पाठकों में मैं रहा हूं सो उनके आलस्य के बावजूद उनकी कविताएं यहां लगा रहा हूं. आशा है वे जल्द ही ख़ुद अपनी तरफ़ से कबाड़ख़ाने को नवाज़ेंगे.

एक बेरोज़गार की कविताएं

चांद हमारी ओर बढ़ता रहे

अंधेरा भर ले आग़ोश में

तुम्हारी आंखों में तारों की टिमटिमाहट के सिवाय

सारी दुनिया फ़रेब है

नींद में बने रहें पेड़ों में दुबके पक्षी

मैं किसी की ज़िन्दगी में ख़लल नहीं डालना चाहता

यह पहाड़ों की रात है

रात जो मुझसे कोई सवाल नहीं करती

इसे बेख़ुदी की रात बनने दो

सुबह

एक और नाकाम दिन लेकर आयेगी.

कोई दोस्त नहीं मेरा

वे बचपन की तरह अतीत में रह गए

मेरे पिता मेरे दोस्त हो सकते हैं

मगर बुरे दिन नहीं होने देते ऐसा

पुश्तैनी घर की नींव हिलने लगी है दीवारों पर दरारें उभर आई हैं

रात में उनसे पुरखों का रुदन बहता है

मां मुझे सीने से लगाती है उसकी हड्डियों से भी बहता है रुदन

पिता रोते हैं, मां रोती है फ़ोन पर बहनें रोती हैं

कैसा हतभाग्य पुत्र हूं, असफल भाई

मैं पत्नी की देह में खोजता हूं शरण

उसके ठंडे स्तन और बेबस होंठ

क़ायनात जब एक विस्मृति में बदलने को होती है

मुझे सुनाई पड़ती हैं उसकी सिसकियां

पिता मुझे बचाना चाहते हैं मां मुझे बचाना चाहती है

बहनें मुझे बचाना चाहती हैं धूप, हवा और पानी मुझे बचाना चाहते हैं

एक दोस्त की तरह चांद बचाना चाहता है मुझे

कि हम यूं ही रातों को घूमते रहें

कितने लोग बचाना चाहते हैं मुझे

यही मेरी ताक़त है यही डर है मेरा.

इस तरह आधी रात

कभी न बैठा था खुले आंगन में

पहाड़ों के साये दिखाई दे रहे हैं नदी का शोर सुनाई पड़ रहा है

मेरी आंखों में आत्मा तक नींद नहीं

देखता हूं एक टूटा तारा

कहते हैं उसका दिखना मुरादें पूरी करता है

क्या मांगूं इस तारे से

नौकरी!

दुनिया में क्या इस से दुर्लभ कुछ नहीं

मैं पिता के लिये आरोग्य मांगता हूं

मां के लिये सीने में थोड़ी ठंडक

बहनों के लिये मांगता हूं सुखी गृहस्थी

दुनिया में कोई दूसरा हो मेरे जैसा

ओ टूटे तारे

उसे बख़्श देना तू

नौकरी!

सितारो

मुझे माफ़ कर देना

तुम्हारी झिलमिलाहट में सिहर न सका

पहाड़ो

माफ़ करना

मुझे सिर उठा कर जीना न आया

पुरखो

मुझ पर ख़त्म होता है तुम्हारा वंश

मेरे जाने का वक़्त हुआ जाता है

मैं खुश हूं कि कोई दुश्मन नहीं मेरा

मुझ नाकारा के पास हैं उदार माता-पिता

इस उम्र में भी पालते-पोसते मुझे

मेरी चिन्ता में ख़ाक होते हुए

वे मर चुके होते तो

ज़िन्दगी कुछ आसान होती.

मैं क्यों चाहूंगा इस तरह मरना

राष्ट्रपति की रैली में सरेआम ज़हर पी कर

राष्ट्रपति मेरे पिता नहीं

राष्ट्रपति मेरी मां नहीं

वे मुझे बचाने नहीं आएंगे.

मैं जानता हूं मैं खोखला हो रहा हूं

खोखली मेरी हंसी

मेरा गुस्सा और प्यार

एक रैली में किसी ने कहा मुझे

उठा लें हथियार

मरना ही है तो लड़ कर मरें

मैं किसके ख़िलाफ़ उठाऊं हथियार

सड़क चलते आदमी ने कुछ नहीं बिगाड़ा मेरा

इस देश में कोई एक अत्याचारी नहीं

दूसरॊं का हक़ छीननए वाले कई हैं

मैं माफ़ ही कर सकता हूं सबको

इतना ही ताक़त बची है अब.

इस साल वसन्त में मेरी बेटी दो बरस की हो जाएगी

ख़ुशी आएगी हमारे घर में भी वसन्त में हम मनाएंगे

विवाह की तीसरी सालगिरह

मेरी बहन ने नौकरी के लिए की है किसी से बात

वसन्त तक मिलेगा जवाब

वसन्त आने में

एक जन्म का फ़ासला है.

उम्मीदो

शुक्रिया तुम्हारा तुम्हीं रोटी बनीं तुम्हीं नमक

ग़रीबी

तुमने मुझे रोटी और नमक बांटना सिखाया

आवारा कुत्तो

पूरी दुनिया जब दूसरे छोर पर थी इस छोर पर तुम थे मेरे साथ

बेघर

शाम के धुंधलके में

भोर का स्वागत करते हुए.

१०

मेरे काले घुंघराले बाल सफ़ेद पड़ने लगे हैं

कम हंसता हूं बहुत कम बोलता हूं

मुझे उच्च रक्तचाप की शिकायत रहने लगी है

अकेले में घबरा उठता हूं बेतरह

मेरे पास फट चुके जूते हैं

फटी देह और आत्मा

सूरज बुझ चुका है

गहराता अंधेरा है आंखों में

गहरा और गहरा और गहरा

और गहरा

मैं आसमान में सितारे की तरह चमकना चाहता हूं.

7 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

विनोद दास की कविता 'बेरोजगार' के बाद यह एक और अद्भुत कविता है इस मुद्दे पर. इस कविता में बेरोजगारी का महाकाव्य रच दिया है सुंदर चंद ठाकुर ने. उन्हें मेरी तरफ से अनेकानेक धन्यवाद... और आपको भी इतनी अच्छी कविता पढ़वाने के लिए.

वैसे अशोक जी, 'पहल' के ताज़ा अंक में आपके द्वारा अनूदित कवितायें भी पढ़ीं, हमेशा की तरह अनुभव में कुछ नया जुड़ गया.

-विजयशंकर

अमिताभ मीत said...

अरे कमाल है अशोक भाई. दिल को छूती हुई रचनाएं.. .... शुक्रिया इन्हें हम तक पहुंचाने का. वाह !

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बहुत अच्छी कविता है.

Unknown said...

अब आप डरा रहे हैं - चींटियाँ हर तरफ़ रेंगने लगीं - मनीष

Dinesh Semwal said...

suresh bhai laajaab kavita hai!!!

dinesh semwal

Third Eye said...

bahut dino baad, bahut bahut dino baad kuch kavitayen padhin jinhe vaastav mein kavitayen kahne ka man hua.

Sunder Chand Thakur ki kavitaon se ye mera pehla parichay hai. Aur padhvaaoge?

Unknown said...

kirpya is kabita k pahale likh dijiye
ki ye kabitayen aapko vichlit kar sakti hai jaise news channels programme k pahale likh dete hain ki ye dirsya aapko vichlit kar sakte hain.