मां पर नहीं लिख सकता कविता
मां के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊंटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
मां वहां हर रोज़ चुटकी - दो- चुटकी आटा डाल जाती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूं
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़
मुझे घेरने बैठ जाती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूं
जब भी कोई मां छिलके उतारकर
चने, मूंगफली या मटर के दाने
नन्हीं हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर
थरथराने लगते हैं
मां ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिये
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
मां पर नहीं लिख सकता कविता
-चन्द्रकान्त देवताले जी की यह कविता मांओं पर लिखी गई श्रेष्ठतम कविताओं में से एक है : इस पूरे विश्व के साहित्य में: कहीं भी, कभी भी
9 comments:
Adbhut! Poora subconscious jaise saakshaat saamne khada ho gaya. Waah!
मां ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिये
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया
बहुत अच्छी कविता पोस्ट की है. आभार.
मां एक नि:शब्द कविता है. शब्दों से लिखी गई सारी कविताओं से बड़ी. बच्चे को पालने में वह जो-जो जतन करती है, उस वक़्त वह अपने तरीक़े से शायरी ही तो कर रही होती है.
अशोक - बहुत अलग कविता है - शायद अन्दर एक और है - वैसे जैसे तने में पानी शायद, सम्मान, मान, तृप्ति वगैरह - अच्छी लगी - धन्यवाद - मनीष
कमाल की कविता. अविस्मरणीय!
श्रेष्ठतम !
माँ के आगे हर शब्द बौना !
अद्भुत !
माँ के नज़रिये को समझ पाना, तत्पश्चात शब्दों में ढालना कोई आसान बात नहीं. बहुत खूब अभिव्यक्त किया है आपने...
maa par likhi yeh kavita ek mahakaavya hai jise baar baar padaa jaayega baar baar iski punarrachana main samaarth yeh ek amar kavita kee shrenee main aati hai..kavi ko prannam..Hareram Sameep
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