Friday, May 23, 2008

आखिर मट्टी में मिल जाना: पं. भीमसेन जोशी


कबाड़ख़ाने पर आपने पंडित कुमार गन्धर्व जी को कबीरवाणी गाते हुए सुना है। कुमार जी के दिव्य स्वर में कौन ठगवा नगरिया लूटल हो, निरभय नुरगुन गुन रे गाऊंगा, झीनी चदरिया और अवधूत गगन घटा गहरानी जैसी रचनाओं के बाद आज मैं आपको सुनवाता हूं एक और महागायक पंडित भीमसेन जोशी की आवाज़ में कबीर।



(यह अलबम अमेरिका से चलकर हरी मिर्ची वाले मनीष जोशी जी के मार्फ़त मुझ तक पहुंचा है। जल्द ही आप को इस से कुछ और भी सुनाया जाएगा).

5 comments:

VIMAL VERMA said...

क्या बात है कबाड़खाने में आप जो कुछ सुना रहे हैं वो अद्भुत है और आप पसन्द भी खूब पसन्द आ रही है हमें....बहुत अच्छा लगा...भीमसेन जोशी जी को सुनना सुखद है...किस गले से गाते हैं?अद्भुत है भाई...बहुत बहुत शुक्रिया

Yunus Khan said...

आजकल वैसे भी भोर कुमार गंधर्व के साथ ही हो रही है । रचना जो रोज सुन रहे हैं वो है उड़ जायेगा हंस अकेला जग दर्शन का है मेला ।
सुंदर अति सुंदर ।
धन्‍यवाद

मुनीश ( munish ) said...

Dhanyavaad! adbhut rasvarsha!

अजित वडनेरकर said...

बहुत खूब। पंडित जी को आमने सामने बैठकर सुनने का सौभाग्य कई बार मिला है। उनके चरणस्पर्श का और सिर पर हाथ फिरवाने का सौभाग्य भी हासिल हुआ है। तर गए अशोक भाई। मनीष भाई को भी शुक्रिया....

Unknown said...

सही है न - आख़िर मट्टी में ही मिल जाना है !!!!