Wednesday, September 3, 2008

शरद जोशी के साथ यादों की पगडंडी पर वेणु

आज हम हाल ही में दिवंगत मूर्धन्य कवि वेणुगोपाल की शरद जोशी पर लिखी गयी लेखमाला का अगला भाग प्रस्तुत कर रहे हैं. वेणुगोपाल जी के इस गद्य से आप अंदाजा लगा सकेंगे कि रचनाकार, साहित्य परम्परा और विधा की कितनी बारीक समझ वह रखते थे. प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को तिलिस्म की संस्कृति से जोड़ते हुए व्यंग्य विधा की जैसी बारीक पड़ताल यहाँ की गयी है, आपको अन्यत्र नहीं मिलेगी

जिन लोगों ने चन्द्रकान्ता और भूतनाथ डूबकर नहीं पढ़ा है, वे यह कल्पना तक नहीं कर सकते कि तिलिस्म की भी कोई संस्कृति होती है. ख़ास तौर पर शरद जोशी को याद करते वक्त मैं यह महसूस करता हूँ और ज़ोर देकर कहना भी चाहता हूँ कि उनके रचनाकार व्यक्तित्व और उसी के विस्तार रूपी रचना-जगत के बंद ताले को खोलने की चाबी भी खत्री जी के लेखन से ही मिल सकती है. यह निरा संयोग नहीं है कि शरद जोशी ने 'तिलिस्म' नामक कहानी लिखी थी और उसे वह अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मानते थे; और यह भी कि जब उनके सामने धारावाहिक उपन्यास छापने के लिए लिखने की चुनौती आयी तो उन्होंने कुछ अपना या मौलिक लिखने के बजाये 'हिन्दी एक्सप्रेस' में चन्द्रकान्ता का पुनर्लेखन आरम्भ किया था.

यहाँ एक बात और कि भारतीय उपन्यास की चर्चा के प्रसंग में जब भारतीय संस्कृति की बात आयी तो डॉ. प्रदीप सक्सेना ने चन्द्रकान्ता की सिफारिश की और यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि डॉ. चन्द्रबली सिंह ने भारतीय नवजागरण के ३ प्रमुख लेखक माने- भारतेंदु, प्रेमचंद और देवकीनन्दन खत्री. इसके आगे मैं इतना और जोड़ना चाहूंगा कि विराट जीवन-जगत के सम्मुख आ पड़ने पर अपनी असहायता बोध की प्रामाणिकता के लिए जो यह रिवाज रहा है कि काफ्का से लेकर बैकेट तक के नामों की माला जपी जाए, उसकी अब कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि खत्री जी ने तिलिस्म के कैदी की स्थिति का जैसा बखान किया है, वह किसी भी 'अजनबीपन' को मूर्त करने में पर्याप्त कामयाब है.

तिलिस्म की इसी संस्कृति को जिस शिद्दत के साथ शरद जी ने चित्रित किया है, चन्द्रकान्ता-भूतनाथ को जिस गहराई और लगाव से जिया है, वह बाहर के तिलिस्म का बखान नहीं बल्कि भीतर के तिलिस्म की अभिव्यक्ति है.

शरद जी ने एक बातचीत में गर्व से दिपदिपाते चेहरे के साथ पुलक से लरजती आवाज में मुझे बताया था- 'मोहन राकेश ने जब 'तिलिस्म' कहानी पढ़ी थी तो बोले थे 'यार शरद, मेरा सारा लिखा हुआ ले लो, बस यह कहानी मुझे दे दो.' उनके अंतर्जगत में बनते जाज्वल्यवान लोक में हस्तक्षेप न करते हुए मैं इतना भर बुदबुदा सका- 'राकेश जी को भी तो लौटकर वहीं आ जाने की थीम हांट किया करती थी.'

वास्तव में शरद जी ने चन्द्रकान्ता-भूतनाथ को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया था. वह उनका आन्तरीकीकृत सत्य बन गया था. कहा जा सकता है कि उनका अस्तित्व! कुछ इस प्रकार कि उनकी श्रेष्ठ रचनाओं की व्याख्या और विवेचन भी इस धरातल पर किया जा सकता है. किया जाना चाहिए. फिलहाल इतना ही संकेत पर्याप्त होगा कि प्रायः चेखव के साक्ष्य के सहारे यह माना जाता रहा है कि व्यंग्य का उत्स करुणा होता है लेकिन व्यंग्य का कोई एक प्रकार नहीं होता. और प्रकार भी होते हैं. कई बार आत्मदया भी उत्स हो जाती है और आत्मघृणा भी.

जहाँ ब्रेख्त से परसाई तक की व्यंग्य रचनाएँ करुणा का विस्तार हैं, वहीं विश्व स्तर पर नाज़ी यातनागृहों से उपजी व्यंग्य रचनाएँ आत्मदया का फैलाव भर होती हैं. आत्मघृणा, आत्महीनता और आत्मालोचना का भी अक्सर.
तिलिस्म की संस्कृति को आत्मसात किए हुए रचनाकार की हालत एक प्रकार से यातना-गृहों के अनुभवों से छटपटाते कैदी से अलग नहीं होती. उत्स का अन्तर व्यंग्य लेखन के चरित्र का मूल अन्तर बन जाता है.

फिर भी व्यंगत्व तो रहता ही है. स्पष्ट करने के लिए कहा जा सकता है कि भले ही गंगोत्री से निकलनेवाली नदी गंगा कहलाये और यमुनोत्री से निकलनेवाली नदी यमुना लेकिन में दोनों में नदीत्व होता ही है और उनका अपना-अपना विशिष्ट सांस्कृतिक महत्त्व भी. करुणा से निकली व्यंग्यात्मकता अगर परसाई में है, तो आत्मदया या आत्मघृणा करुणा के साथ मिलकर, यूँ कई बार अलग भी, शरद जोशी के व्यंग्य की उत्स बनी है, लेकिन व्यंगत्व दोनों में है.

उपर्युक्त निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए बड़ी ही ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर चलना पड़ा है मुझे. इनमें शरद जी के साथ के अनुभवों की पगडंडी कुछ ज्यादा ही ऊबड़-खाबड़ रही है. मैं उसी के बारे में कुछ बातें पाठकों से बांटना चाहता हूँ. (जारी )
-- वेणुगोपाल

'पहल' से साभार
(कृपया अगली कड़ी का इंतजार करें)

पिछली कड़ी का लिंक यह रहा- कबाड़खाना

3 comments:

Ashok Pande said...

बहुत शानदार गद्य है इस महाकवि का और क्या पैनी निगाह! शुक्रिया विजय भाई इस पेशकश के लिए. अगली कड़ी का इन्तज़ार है.

ravindra vyas said...

इच्छा तो यह है कि इसे पूरा एक साथ पढ़ा जाए।

नीरज गोस्वामी said...

व्यास जी की बात से सहमत हूँ...कुछ रचनाएँ एक साँस में पढने में ही आनंद आता है...
नीरज