महेंद्र भल्ला, मणि मधुकर, राजा दुबे और अहमद हमेश के हैदराबाद आने, काफी समय तक रहने और लगातार मेरी हौसलाअफजाई करने से मेरा हीनभाव ज़रूर किसी हद तक कम हुआ लेकिन एक अबूझ प्यास भी बढ़ी कि हिन्दीप्रदेश के उन रचनाकारों में से चंद को कम से कम देखूं तो सही और अगर वे घास डालें तो मेल-मुलाक़ात भी करुँ, जिनके नाम और रचनाओं का प्रशंसक-पाठक रहने से ही साहित्यजगत में मेरी घुसपैठ मुमकिन हुई थी.
जब इस प्यास ने जूनून की शक्ल ले ली तो हिन्दी प्रचारसभा की छः महीने से चली आती जमी-जमाई नौकरी से पल्ला झाड़ निकल पड़ा. लगभग ख़ाली जेब! मेरा हमेशा से ही यह भरोसा रहा है और आज भी है कि दुनिया बेहद अच्छी है और भले लोग हर कहीं हैं, जो परिवार के बुजुर्गों के मानिंद संभाल लेते हैं, परदेस में भी.
सिर्फ भोपाल तक का टिकट और ख़र्च के लिए पाँच-सात रुपये. कम से कम भोपाल में तो मजे में रह लूंगा क्योंकि वहाँ मेरे पचपन का सहपाठी दोस्त सांवलदास नेमा रहा करता था. आज भी रहता है.
भोपाल पहुँचने के दूसरे दिन ही दिन साउथ टीटी नगर में ढूँढते-ढूँढते शरद जी के घर पहुँच गया. उनका नाम भोपाल के रचनाकारों की मेरी निजी सूची में सबसे ऊपर था. 'धर्मयुग' की कथादशक योजना में उनकी 'प्रेमकथा प्रपत्र शैली' नामक कहानी और उनका वक्तव्य मुझे इतना पसंद आया था कि ख़ुद तो आधा दर्ज़न बार पढ़ा ही था, सारे मित्रों और आत्मीयों को भी कई-कई बार पढ़कर सुनाया था.
दरवाजा इरफाना जी ने खोला. उन्हीं दिनों उनकी कहानी 'धर्मयुग' में मय-फोटो छपी थी, इसलिए पहचानने में कोई मुश्किल पेश नहीं आयी. उनके कुछ भी पूछने से पहले ही मैंने कहा- 'मैं हैदराबाद से आया हूँ. मेरा नाम वेणुगोपाल है. मैं आप दोनों की रचनाओं का पाठक हूँ और प्रशंसक भी हूँ. इसीलिए मिलने चला आया. अभी-अभी आपकी कहानी जो 'धर्मयुग' में छपी है, अच्छी लगी.' मेरा ख़याल था कि अपनी कहानी की तारीफ़ सुनकर इरफाना जी प्रमुदित-प्रफुल्लित आदि हो जायेंगी लेकिन उन्होंने एक ठंडे किस्म का 'अच्छा' कहा और बोलीं- 'शरद जी तो ज़रा न्यू मार्केट तक गए हैं, पाँच-दस मिनट में आ जायेंगे.'
जिस 'अच्छा' को मैंने ठंडे किस्म का समझा था और बुझ गया था, बाद के दिनों में नजदीकी होने और नाटकों में साथ-साथ काम करने के दौरान पाया कि वह तो इरफाना जी की स्वभावगत अतिरिक्त गंभीरता थी. वह किसी भी तरह की नुमाइश पसंद नहीं करती थीं. न ख़ुशी की, न नाख़ुशी की.
उनके व्यवहार में कोई स्वागती गर्मजोशी न पाकर मैंने वहाँ ठहरना ठीक नहीं समझा- 'मैं भी दस-पन्द्रह मिनट में एकआध काम निबटा कर आता हूँ' , कहकर निकल पड़ा. सोचा नुक्कड़ की दूकान से एक सिगरेट लूंगा, सुलगाऊंगा और एक चक्कर लगाकर लौट आऊँगा. तब तक तो शरद जी आ ही जायेंगे.
नुक्कड़ तक पहुँच भी न पाया था कि देखा सामने से शरद जी आ रहे हैं. उनकी तस्वीर इतनी बार देखी थी कि दूर से ही पहचान गया. अपने प्रिय लेखक को सामने पाकर मेरा गला रुंध आया. किसी तरह स्वयं को संभालकर पास पहुँचा. नमस्ते की. परिचय दिया और बोला- 'इरफाना जी ने बतलाया है कि आप न्यू मार्केट गए हैं और बस लौटने ही वाले हैं.' शरद जी तपाक से बोले- 'अरे तो फिर बैठना था घर में.' ऐसा लगा जैसे मैं उनका बड़े दिनों का बिछड़ा भाई होऊँ. हाथ में हाथ लिए ही लौटे. जो कुछ मैंने इरफाना जी से कहा था, वही उनसे भी कहा; हाँ, यह जरूर जोड़ा- 'मैंने आपकी 'परिक्रमा' पुस्तक पढ़ी है.'
शरद जी ने उल्लसित आवाज में इरफाना जी को बुलाया. वह आयीं तो -'यह वेणुगोपाल जी. इन्होने मेरी 'परिक्रमा' पढ़ी है.' फिर मेरी ओर मुड़कर- 'मैंने नया-नया लिखना ही शुरू किया उन दिनों. नई दुनिया में लिखना था तो एक दोस्त को प्रकाशक बनने का शौक चर्राया तो छाप दी. तुम्हें कहाँ से मिल गयी?'
'लायब्रेरी से', मैंने बताया.
'भई इस ख़ुशी में एक-एक प्याला चाय हो जाए. इरफाना, इन्होंने तुमको भी पढ़ा है. वह अभी 'धर्मयुग' वाली कहानी की बात कर रहे थे.' जिस तरह का स्वागत भाव शरद जी के शब्दों से छलका पड़ रहा था, वह मेरे लिए किसी बेशकीमती खज़ाने के मिल जाने से कम नहीं था. इतने बड़े लेखक और मुझ जैसे नौसिखिया छोकरे से इस क़दर ललक कर मिले- इसकी तो मैंने कल्पना ही नहीं की थी.
इसीलिए जब वर्षों बाद सोम (दत्त) ने शरद जी की नकारात्मकताओं के प्रसंग में कहा- 'मेरा दोस्त विनोद कुमार शुक्ल- पढ़ी होगी तुमने उसकी कहानी 'भीड़ का फालतू वक्त', धर्मयुग' में- तो वह आया ओर मैं उसे शरद जी से मिलवाने ले गया. जब शरद जी से मैंने कहा- यह विनोद कुमार शुक्ल. मेरे दोस्त, कहानी कविता लिखते हैं, तो शरद जी ने विनोद की 'नमस्ते' का जवाब तक नहीं दिया. मुझसे बोले - 'लिखने को तो ठीक से वक्त मिल नहीं पाता, और कोई भी ऐरा-गैरा, क़लम पकड़ी नहीं ठीक से कि चला आता है कि साहब मिलना है.' तो सोम को बुरा लगा ही. विनोद कुमार शुक्ल भी इतने आहत हुए कि सोम के शब्दों में- 'उसे नींद नहीं आ रही थी, वेणु. करवटें बदलता रहा. फिर आधी रात के करीब उठकर बैठ गया ओर बोला- 'सोम, मैं शरद को अभी पीटूंगा. उसने मेरा अपमान किया है.'
-वेणुगोपाल
'पहल' से साभार. (अगली कड़ी में जारी...)
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4 comments:
साऊथ टी.टी. नगर में शरद जी और नॊर्थ टी.टी.नगर में दुष्यंत जी, हिन्दी साहित्य की दोनो धूरियां वहीं भोपाल में बसती थी. बीच में था हमारा स्कूल, और हमारी टीचरजी हुआ करती थी दुष्यंत जी की जीवन की हमसफ़र.शरद जी पिताश्री के मित्र.आना जाना था मगर उनके कद के बारे में खयाल तक नही था.
हम बेचारे नासमझ उन्हे कागज़ ,कलम ,स्याही लाने को टालमटोल करते थे, पता नही था किस पाये के थे वे लोग. शरद्जी से उनकी रामायण की एक कविता पर अक्सर झगड लिया करते थे, वशिष्ठ और विश्वामित्र के एक कंफ़्युज़न को ले कर, जो बाद तक चला.फ़िर वही यादें ताज़ा हो गयी.
sansmaran men dushyant ji bhee hain. kripaya prateekshaa keejiye.
पहल के कबाड़खाने से अच्छा खजाना निकल कर दे रहे हैं। साधुवाद।
अगली कड़ी का इन्तज़ार है. बहुत सुन्दर प्रस्तुति है आपकी विजय जी.
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