Tuesday, March 3, 2009

मृत दल की शोभायात्रा से कैसी आशा



एस बी सिंहः
ऐसा नहीं की जान बूझ कर सब माफिया उम्मीदवारों को चुनते हैं। जहाँ एक और जाति, धर्म, क्षेत्र और भाई भतीजा, अशिक्षा, गरीबी वोट को प्रभावित करते हैं वहीं एक स्थायी प्रकार की निराशा भी इसको बहुत दूर तक प्रभावित करती है- जीहाँ केवल अनपढों में नहीं हम पढ़े लिखों में भी है यह निराशा और भ्रमभंग। ऐसा नहीं है की देश और जनता को सिर्फ़ माफिया ही लूट रहे हैं। माफिया के लिए तो सिर्फ़ यह परिवर्तन हुआ है की पहले वे परदे के पीछे रहकर सहायक कलाकार की भुमिका निभाते थे अब मुख्या भुमिका में आ गए हैं। देश की लूट में तो गांधीवादी, समाजवादी, साम्यवादी, मंडलवादी, कमंडलवादी और अवसरवादियों की बराबर और बढ़ चढ़ कर भूमिका रही है। तथाकथित महाबुद्धिमान सिविल सेवक और टेक्नोक्रेट ने भी इस लूट के नए प्रतिमान बनाने में महती भूमिका निभायी है। पिछले साथ से अधिक सालों में जनता ने सब को खूब करीब से देखा है। उसी का नतीजा है यह भ्रमभंग।

हम और जनता भी कोई दूध के धुले नहीं हैं बात बस इतनी है की मौका नहीं मिला है। जमीनी हकीकत प्रधानों के चुनाव में दिख जाती है। और सोचिये तो भला अभी भी हर माँ-बाप का सपना बेटे को आई ए एस बनाने का क्यों रहता है- देश और जनता की सेवा वाला जवाब कम्पटीशन मैगजींस में से रटा जाता है वैसे ही जैसे हर विश्व-सुंदरी गरीबों, अनाथों, बीमारों और अन्याय के विरुद्ध कार्य करने का धिसा पिटा उत्तर दोहराती है। वरना सबकी नज़र खजाने की लूट पर ही होती है। सही बात यह है की हम जिसके योग्य हैं वह हमें मिल रहा है।जैसा समाज हमने रचा है वैसे राजनेता पैदा हो रहे हैं। नेता बदलने के लिए जनता को और राजनीति बदलने के लिए समाज को स्वयं को बदलना होगा। रही बात पंकज भाई की पोस्ट पर टिप्पडी न करने की तो भाई दुखते फोडे को और मसलने से क्या फायदा।

अनिल यादवः

ये आशा जी किधर से किधर को चलती हैं। ये चलतीं जरूर हैं। कोलम्बस से रमैया मांझी की तरफ या रमैया से कोलंबस की तरफ। जो किसी भी तरह के ज्ञान की कुतुबनुमा लेकर नई दिशा में जाता है उसकी तरफ से उसके गांव, घर, समाज या कहिए जाति, मजहब, दरिद्रता के कारण आपा खो बैठे लोगों की तरफ चलतीं हैं।

कभी ऐसा होता रहा होगा कि किसी विग्यान पढे लौंडे ने अपने हैजा के मारे गांव को पानी उबाल कर पीना सिखाया होगा। अब गंडा ताबीज से लैस फिजिक्स का प्रोफेसर सरफेस टेंन्शन मेडइजी से जम्हाई लेते, पैंट की जिप सहलाते हुए पढाता है लेकिन सपरिवार जाकर सबसे पहले गणेश जी को मिल्क पिलाता है। अध्यात्म में सहिष्णुता और करूणा पढाने वाला धर्म विज्ञान संकाय का मास्टर बाबरी गिरने पर थाली बजाता है। डाक्टर, रात में ड्रिप बदलने की मांग करने वाले खैराती लाल भोला मरीज को छम्मकछल्लो नर्स के उकसावे पर सखासमेत कूटता है फिर मंत्री के पिल्ले को स्टेथो लगाकर कहता है पुअर पेंशेन्ट भेरी नॉटी डूइंग नौटंकी टू इम्प्रेस यू सार। सुप्रीम कोर्ट का जज आरटीआई कानून के तहत अपनी संपत्ति का ब्यौरा देने से मना करते हुए कहता है कि हम कानून एबभ हूं कैसे तुमरा हीमत हुआ जी प्रोपर्टी का हिसाब मांगने का यह अलग बात है कि पानी पोंछने के लिए नोएडा के अंदर तौलिया भी पेशकार से खरीदवाता है। संपादक, कारपोरेटिया मैनेजर और कलावंत का पूछना ही क्या। सब सत्यम हैं और बिल्कुल राजू के माफिक जेंटलमैन है।

यह निराशा जो पढे लिखों में है उसको स्थायी प्रकार की निराशा किसने बनाया। मतलब जवाहिर लाल की कांस्टुएंसी को अतीक चकिया की घुड़साल में बदलने का काम किसने किया। सवाल यह भी इस गरीबी, निरक्षरता, क्षेत्रवाद को किसने पिश्ता-बादाम पिलाकर पाला। ये सब कोलंबस थे जिसका अंत रतिज-रोगों के मरीज के रूप में हुआ था।

सवाल यह है कि क्या पढ़ा-लिखा आदमी क्या ज्यादा अवसरवादी, कमीना, जातिवादी, तिकड़मी और कायर होता है या वह गरीब जिस पर तरस खाते हुए बुद्धिजीवी अगला पेग बना लेते हैं।

वेटरन माफिया हरिशंकर तिवारी यूपी के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री भी रहे हैं। जिन दिनों मंत्री थे पार्क रोड के अपने आवास में तख्त पर और विश्विविद्यालयों के कुलपतिगण जमींन पर लाख मनुहार करने के बावजूद सगर्व बैठते थे। पंडिज्जी कहते थे अयें रऊवां सभें होंइंजां बईंठ के पांप जिंन लगाईं। कुलपति जी लोग कहते थे अरे आप के बराबर में बैठने की हमारी औकात कहां। कुलपति जी लोगों के बहत्तर छेद थे, उन्हें अपने धतकरमों पर पर्दा डालकर नया जुगाड़ भिड़ाना था। वे इतने भी नैतिक नहीं बचे थे जितनी नैतिकता हरिशंकर तिवारी में सांस ले रही थी। यह एक प्रत्यक्षदर्शी कह रहा है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि हर पढे़-लिखे आदमी में एक बनैला माफिया बैठा है बस उसमें दुस्साहस का अभाव है।

क्या ऐसा हमेशा से रहा है। यह कविता तो यही कहती लगती है।


ध्वनियों के आवर्त मंडराते पथ पर।
बैण्ड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं से,
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित(?) पत्रकार
इसी नगर के
बड़े-बड़े नाम, अरे कैसे शामिल हो गए इस बैंड दल में।

उनके पीछे चल रहा
संगीन नोकों का चमकता जंगल,
चल रही पदचाप, ताल-बद्ध दीर्घ पांत
टैंक-दल आर्टिलरी सन्नद्ध
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना
सैनिकों के पथराए चेहरे
शायद, मैने उन्हें पहले भी तो कहीं देखा था।
शायद उनमें कई मेरे परिचित।।
उनके पीछे यह क्या।।
कैवेलरी।
काले-काले घोड़ों पर खाकी मिलिट्री ड्रेस
चेहरे का आधा भाग सिंदूरी गेरूआ
आधा भाग कोलतारी भैरव
आबदार।।
कंधे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तौल
रोष-भरी एकाग्र दृष्टि में धार है
कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते
उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे
उनके लेख देखे थे
यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं
भई वाह।
उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कवि-गण
मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान

यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमा जी उस्ताद
बनात है बलबन
हाय। हाय।।
यहां ये दीखेत हैं भूत-पिशाच-काय
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ उभर आया है
छिपे हुए उद्देश्य
यहां निखर आए हैं,
यह शोभा-यात्रा है किसी मृत दल की
विचारों की फिरकी सिर में घूमती है।

7 comments:

Ashok Pande said...

यह शोभा-यात्रा है किसी मृत दल की
विचारों की फिरकी सिर में घूमती है।

... आने वाले चुनावों में पुनः गदहा बनने को अभिशप्त इस गरीब वतन की कसम खा कर सुबह-सुबह कह रहा हूं कि हां "कहीं ऐसा तो नहीं कि हर पढे़-लिखे आदमी में एक बनैला माफिया बैठा है बस उसमें दुस्साहस का अभाव है।"

बहुत जबर!

Anonymous said...

यह हुई न बात भाईलोगों।
कितनी सफाई और कठोरता से अनिल भाई ने अपनी बात को रखा है। यहां जो लिखा वो हकीकत है और लोकतंत्र में हम जो झेल रहे हैं वो भी हकीकत है। अगर मानें तो।

pankaj srivastava said...

का हो अ...नी...ल भाई..

न देखा रहा दुइ दिन तक कंपूटर। फिर देखा..कि तुमका अफसोस है कि हमरे लेख पर कमेंटवै नहीं आयै...धत मरदे...ई का बात हुई...ब्लाग तो ऊ.. का कहत हैं कि आभासी दुनिया है न, इहां ज्यादा बकर-बकर करै मा खतरा ई है कि असल जिनगी कै हिसाब मांगै लगिहैं सब...हम सब्बै तो क्रांति के मोरचा से भागि आए कट्टैबाज हन...ज्यादा न स्वाचौ..नहीं तौ ब्लागो पर लिखब मुसकिल होइ जाई...वा सुनेव नहीं केरल के जज साहिब के एक फइसला.....कहि दिहिन कि बिलाग मा सिव सेना का सांप्रदायिक कहै से मान के हानि होइ गय ...हो...हो...हो...सुन्यो..डेमोकरेसी के मान हवैं सिव सेना वाले.... ऐकरी....

Ek ziddi dhun said...

ये हराखोर पढ़े-लिखे ही हैं जो कहते हैं कि कोई भी साला ऐरा-गैरा विधायक, सांसद, मंत्री बन जाता है, कोई योग्यता होनी चाहिए. करनाल में नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीट्यूशन का डायरेक्टर (तत्कालिन) कोई माथुर एक बार मुझे यही बोला. मैंने कहा, हाँ आप जैसे वैज्ञानिक ही को चुनाव लड़ने का हक़ मिलना चाहिए, भर्ष्टाचार, लुच्चई का रिकॉर्ड तो आपका भी खासा है.... ये तबका ससे बड़ा हरामी है.
डॉक्टर गाँव में पानी उबालकर पिलाता तो है पर रेणू के यहाँ

Ek ziddi dhun said...

वैसे यह माथुर रिटायर होकर एक बाबा के आश्रम में फुलटाइम रिसर्च (सेवा-पानी) कर रहा है..

अनूप शुक्ल said...


कहीं ऐसा तो नहीं कि हर पढे़-लिखे आदमी में एक बनैला माफिया बैठा है बस उसमें दुस्साहस का अभाव है।


जबरदस्त!

Pratyaksha said...

सचमुच तीखा और जबरदस्त ..