Monday, August 3, 2009

मुझे अचानक दिखाई दिये कहीं खिले हुए कुछ फूल

कल की सीरीज़ को जारी रखते हुए आज पढ़वा रहा हूं आपको अनीता वर्मा जी के दूसरे संग्रह 'रोशनी के रास्ते पर' से एक और कविता.

अनिंदो दा के साथ

कल शाम अनिंदो दा आये थे
उनके साथ हमने बीते दिनों को याद किया
कैसे निवारणपुर का नाम पड़ा था निवारणचंद्र दासगुप्ता के नाम पर
जिन्होंने आजीवन स्कूल में ही पढ़ाने का व्रत लिया था
और उनकी बेटी बासंती देवीके पिता और भाई विभूतिभूषण के जेल जाने पर
उनके धर्मपिता बने थे राजेन्द्रप्रसाद और मां बनीं कस्तूरबा
वे वर्धा में रहीं 'बा' के पास, उन्हीं से सब कुछ सीखा
अभी कुछ समय पहले तक रहती थीं चांडिल के पास निमडी में
समाज सेवा करती थीं और उन्हें इस बुरे समय से कोई लेना-देना नहीं था
अनिंदो दा ने बताया, उनके नाना ने कभी पढ़ाया था इंदिरा गांधी को
एक बार जब उनकी चिट्ठी आई थी
तभी सबने इस बात पर विश्वास किया था
और उनके नाना ने तीस रुपये माहवार पाते हुए
अपने आश्रम में पढ़ाया था सात आदिवासी लड़कों को
वे सभी अनिंदो दा के मामा थे
और उनमें से एक उपेन किस्कू अभी हाल में मिले थे उनसे
पहचाना था उसी पुराने आत्मीय रिश्ते से

गांव में चार महीने पहले से होता था जात्रा का अभ्यास
दूर-दूर से इकट्ठे होते छोते-बड़े सभी दालान पर
अलग-अलग रिहर्सल होती, कहीं बकासुर वध
कहीं छोटे बच्चों का नाच गान
दोपहर होते ही घंटी बजती और सभी एक पांत में बैठकर खाते
मोटे चावल का दाल-भात और आलू-पोस्ते की सब्ज़ी
अगले इतवार फिर सब तैयार
तब तक कोई ब्रांड नहीं था
सभी सस्ता पहनते मामूली खाना खाते
एक दूसरे का संग-साथ निभाते ख़ुश रहते

एक लड़का था सुब्रतो बागची जिसके पिता छोटे अधिकारी थे
अब वह प्रबंधन का बड़ा अधिकारी है
उसने बताया प्रबंधन पास किये लड़कों को
कि उसने अपने पिता से कुछ बातें सीखी थीं
जिनमें एक था सबसे उम्र के अनुसार रिश्ते बनाना
चाहे वह घर में काम करने वाला नौकर हो या ड्राइवर
दूसरा, जिस घर में जाना वहां साफ़-सफ़ाई के बाद
द्वार पर मिट्टी ठीक कर उसमें फूल-पौधे लगाना
जैसे ही साल-भर में फूलों के खिलने का मौसम आता
पिताजी का तबादला हो जाता
अंततः सुब्रतो ने एक दिन कर दिया इन्कार
कहा क्या फ़ायदा इससे, हमें तो अब चले ही जाना है यहां से
तब पिता ने कहा, तुम अगर नयी जगह में दूसरे घर में जाओगे
और पाओगे उसे साफ़ और फूलों से भरा तो कैसा लगेगा तुम्हें

शाम गहरी हो गई थी जब हमारी बातें ख़त्म हुईं
मुझे अचानक दिखाई दिये कहीं खिले हुए कुछ फूल
और तभॊ कोई लालटेन का शीशा साफ़ कर
उसे जला कर रख गया था.

(कबाड़ख़ाने में अनीता जी की कविताएं यहां भी:

प्रभु मेरी दिव्यता में सुबह-सबेरे ठंड में कांपते रिक्शेवाले की फटी कमीज़ ख़लल डालती है
प्रार्थना
वान गॉग के अन्तिम आत्मचित्र से बातचीत
सभ्यता के साथ अजीब नाता है बर्बरता का)

13 comments:

प्रीतीश बारहठ said...

हैरत है! इस कविता पर कोई टिप्पणी नहीं है।
यही निष्कपटता हर तरह की बौद्धिकता पर भारी है।

मुनीश ( munish ) said...

This is not first time Pritish. People want sensation and they get it from bashing/supporting religions, bashing/supporting ideologies of political kind, references of sexual kind & chutkulebaazi etc.
This poem has none SO why should they comment?
Some posts ago a nice poem from Meet was also similarly ignored deliberately.

मुनीश ( munish ) said...

'बौद्धिकता'??? Pritish ji ,it simply means U scratch my back , i scratch yours !

siddheshwar singh said...

" हैरत है! इस कविता पर कोई टिप्पणी नहीं है। "

*प्रीतीश और मुनीश भाई , सच पूछिए तो मुझे कोई हैरत नहीं हुई. अक्सर महत्वपूर्ण रचनायें अनदेखी-सी निकल जाती हैं और उन पर बात नहीं होती. ऐसा सिर्फ ब्लाग की दुनिया में ही नहीं छपे / बोले शब्दों की दुनिया में भी खूब हो रहा है.मुझे तो यह लगता है कि हम लोग व्यक्तियों को आगे रखकर रचना को पीछे से देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं. ऐसा कई कई कारणॊं से हो रहा है. फिर भी मैं निराश नहीं हूँ अगर रचना में दम है तो आज नहीं तो कल वह उभर कर आएगी ही.

**अनीता वर्मा की कविताएं मैंने ब्लाग्स और - पत्र - पत्रिकाओं में ही देखी हैं . उनका कोई संग्रह मेरे संग्रह में नहीं है जितना भी पढ़ सका हूँ , यही कहूँगा कि वे वजनी और दमदार हैं . एक बात यह भी तो हो सकती की उनकी ताब / आँच झेल न पाने की वजह भी 'अनदेखा - सा' किए जाने की एक वजह हो.

*** खैर मैं तो यही मानता हूँ कि 'कबाड़खाना' पर आने वाली कविताओं के कारण मेरी कविता की समझ ( जो है / जैसी है)में हलचल जरूर हुई है.

****फिलहाल और क्या कहूँ?
१-शुक्रिया अशोक भैय्ये ! ऐसा ही उम्दा कबाड़ गेरे रैय्ये !
२-शुक्रिया प्रीतीश भाई और मुनीश भाई, देर से कुछ कहने पर इस अदने पाठक को सरम - सी आई!

Unknown said...

why you two gentlemen are putting too much strain on your own poemoscopes. (just jawking...)

It is just a poetry. Almost as norm even humans simple and honest die unoticed.

मुनीश ( munish ) said...

देखिये कविता का 'क ' मैं नहीं जानता लेकिन इस तरेह की जो हिपोक्रेसी है वो भी तो बर्दाश्त नहीं होती ! इस गोबर-बेल्ट में कुछ नहीं बदला आज तलक .

मुनीश ( munish ) said...

I condemn this effort instigated by vested interests to undermine and ignore this poem !

प्रीतीश बारहठ said...

Thanks Munish ji,

दर्ज करें - कविता में सपाट बयानी है जो इसे विधा के स्तर पर हल्का बनाती है।
रही बात बुद्धिजीवी की तो यह एक पदनाम मात्र है विर्तमान में इसका गुण से कोई लेना-देना नहीं बचा है। ठीक वैसे ही जैसे वार्डपंच, सरपंच

क्या एक नई बहस शुरु करें !

Unknown said...

नह....बुद्धिजीवी नॉन-कार्डेटा प्रजाति है। वैसे यह शब्द अवसरवादी और हरामखोर का भी पर्यायवाची है।

(देखें..Roadside encyclopedia, Life University Publication, Volume VII, section- words from mass memory)

प्रीतीश बारहठ said...

बुद्धिजीवी कैसे बनें?

शीघ्र ही मेर ब्लाग पर देखें। शीघ्र अर्थात सप्ताह भर के भीतर।

आशुतोष उपाध्याय said...

भाई लोग फिर 'बुद्धिजीविया' बीमारी के शिकार हो गए क्या! बुद्धिजीवी बिना प्रतिदान पाए कोई काम नहीं करते. उन्हें तारीफ़, नामा या पुरस्कार आदि न मिले तो बेचैन हो जाते है. मगर अच्छे साहित्य के हजारों हजार खामोश पाठक भी तो होते हैं, जो उसे लगातार जिंदा रखने की कोशिश करते हैं. कबाड़खाना के हजारों खामोश पाठक हैं, ताली नहीं बजी तो इसका यह कतई मतलब नहीं कि कविता अनसुनी रह गयी. यह बेहद शांत कविता जरा भी उकसाती नहीं और आत्मचिंतन की प्रेरणा देती है. एक बार फिर इसे पढें, आप रिएक्ट करने के बजाय अपने भीतर कुछ खोजने लगेंगे. क्या गलत कहा?

प्रीतीश बारहठ said...

आशुतोष सर,

क्षमा चाहता हूँ। यह जो बुद्धिजीविया प्रसंग अचानक ही छिड़ गया है इसका कबाड़खाना, इस कविता या इसके पाठकों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है बस बात से बात चल निकली है।

अब उसे खत्म करते हैं।

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर कविता। पढ़वाने के लिये आभार!