किशोर चौधरी के
सद्यःप्रकाशित संग्रह 'चौराहे पर सीढियां' से एक
कहानी. इस कहानी की प्रस्तावना के बतौर किशोर चौधरी ने
कबाड़खाने के लिए यह एक्सक्लूसिव टिप्पणी भेजी है –
जीवन एक दीर्ध स्वप्न
है. अनिश्चित आवृति में टकराती हुई स्मृतियों से बना हुआ स्वप्न. एक बड़े वाला गोल कंचा है, इसके साथ
वाले खो गए कंचों की छुअन से भरा हुआ. इसके भीतर भरे हुये पानी की जटिल संरचना के
पार देखते हुये रंगों के बिम्ब से सजे अनगढ़ दृश्यों की कामना सरीखा जीवन साथ चलता
रहता है. अंधेरे और उजाले के बीच का समय चीज़ों को जिस नए अर्थ से परिभाषित करता है,
उसी के सम्मोहन में खोया हुआ. एक बचपन है, जो
अपने ही कक्षा के घूर्णन में लगा है. वह समय की छीजत से उम्र को बुन रहा है लेकिन
प्रेम के गोदनों का रंग और चुभन गहरी है. एक अबोलापन है, उसी
से बनी हुई उदास तस्वीर के व्यापक वितान पर आर्द्र और हठी स्मृतियों का समुच्चय है.
यहाँ प्रेम, अभिमन्यु के विपरीत घेरे के भीतर ही लड़ते जाने
वाले योद्धा के रूप में है जो कभी बाहर नहीं आना चाहता है. अनेक कुंडलियों के फरेब
में एक आदमी है, आग जैसी एक उम्मीद है. जीवन, एक स्त्री के बाजूबंद में बंधी हुई आग है. इसी में प्रेम की पूर्णता है कि
वह खोकर और अधिक हृदयस्पर्शी होता जाता है.
कहानी प्रस्तुत है-
एक
अरसे से - १
जहाँ
भी जाता, उसे लगता कि मैं यहाँ पहले भी आया हूँ. वह
चंद किताबें पढ़ कर पगला गया था. वह सारे दोष किताबों के सर मढ़ कर सो जाना चाहता. किताबों में लिखा था कि
पहलू बदल बदल कर सोना, मोर पंखों को चुनते हुए उदास
रहना, मुसाफ़िरखानों में बेवजह बैठना, नए दरख्तों की भीनी छाँव को ओढ़ना, पराई औरतों
को एकटुक देखना और ओक से पानी पीते हुए गुलाबी गर्दनों में नीली नसों को चूम लेने
की ख्वाहिश रखना अपराध है. तुझे दोज़ख मिलेगा.
उसे एक सुस्त ठहरा हुआ शहर याद आता. पेंटिंग के लिए टंगे हुए केनवास पर जैसे
बहुत सारा खाली छूटा हुआ हो. एक लंबा रास्ता जो कहीं खत्म होता हुआ दिखने की जगह
विलोप होता हुआ जान पड़े. एक - दो मुसाफ़िर, कोई
भूल से गुज़रा तिपहिये वाला या फिर किसी सूखे हुए से दरख़्त की छाँव में बैठा हुआ
कोई साया. वह अक्सर छत की मुंडेर पर बैठे हुए पश्चिम को
तकते हुए शाम बुझा देता था. कभी तय करता कि आज वह डूबते हुए सूरज को आँखों से ओझल
होने तक देखेगा मगर कोई ख़याल आता और उसे अपने साथ लेकर चला जाता था.
माँ
कहती थी. ऐसे शाम होने के वक़्त अकेले चुपचाप
नहीं बैठना चाहिए. वह प्यार से बुला कर ले जाती. माँ की आँखों में एक डर करवट लेने
लगता था. ऐसे अकेले बैठा रहना उदास करता होगा न? या
उदास होने की वजह से वह अकेला बैठा रहता है. ये दोनों बातें बिलकुल गलत थी. वह
किसी सूरत उदास न था. बस उसे अच्छा लगता था इस तरह सूरज को डूबते हुए देखना और साँझ के झुटपुटे
का इंतज़ार करना.
चलते-चलते जिस वक्त रास्ता मुड़ जाता है. अपना ही अक्स
कहीं खो जाता है, वही दोज़ख है. उसी पल बीते लम्हे का वुजूद खोने लगता है. विस्मृत होती गंध हवाओं में
बिखर जाती है. स्पर्श के छींटें आहिस्ता से छूटते जाते हैं. सुबह, खिली नई कोंपलों को बेसबब देखते हुए किसी को सोचते हैं मगर कोई सूरत ओस के
मोतियों से बन कर नहीं खिलती. याद के धुंधले चश्मों पर आलिंगनों की केंचुलियाँ, समय की कतरनों को चूमती हुई चमकती रहती है.
ज़िन्दगी
की बसावट की भूल भुलैया में रची बसी चीज़ें क्षण भर के लिए सामने होती हैं लेकिन फिर खो जाती हैं. उसके यादखाने में कुछ बहुत साफ़ साफ बसा था. मोहल्ले की
तीसरी गली के आखिरी घर में रहने वाले अंग्रेजी के माड़साब भी. उनके घर के आगे
शहर खत्म हो जाता था. एक खुला मैदान शुरू होता और फिर दूर दूर बने हुए कुछ घर थे.
उन घरों को देख कर आभास होता था कि यहाँ से कोई गाँव शुरू होता है. अंग्रेजी के
माड़साब लंबे और दुबले थे. वे घर के बाहर सिर्फ शाम को ही दिखाई देते थे. उनके बारे
में मोहल्ले की औरतों का कहना था कि वे दुपहरी के बाद और शाम होने के बीच वाले वक़्त में खाना बना लिया करते थे.
कुछ
ज्यादा सिकी हुई रोटियों की गंध ही उनके खाना बना लिए जाने का संकेत था. यह गंध एक
तरह से माड़साब की उपस्थिति को भी बुना करती थी. बंद कमरे पर पड़ा हुआ एक काले रंग
का ताला या फिर दरवाज़े के आगे बिखरे हुए एक चुल्लू भर पानी के सिवा माड़साब के पास
क्या था? ये किसी को मालूम न था. उनके जीवन के बारे
में कोई एक राय न थी. कुछ का कहना था कि उन्हें एक लड़की से प्रेम हो गया था और
उससे शादी न हो सकी इसलिए अकेले रहते हैं. कई लोगों का ख़याल था कि पत्नी है लेकिन गांव में रहती है. जिस बात पर लोगों को सबसे अधिक
यकीन था, वो यह बात थी कि बहुत अधिक शराब पीने के कारण पत्नी
छोड़ कर चली गयी थी.
लेकिन
इन सब बातों के बीच उसे लगता था कि अंग्रेजी के माड़साब को शाम से प्रेम हो गया था.
दुनिया में शाम से अधिक सम्मोहक चीज़ कोई नहीं है. दर्द और प्रेम से भीगी हुई, बिछड़ने का गाढा रंग लिए, इंतज़ार की पोटली जैसा कुछ सर पर उठाये हुए, आती
हुई शाम.
पिताजी
ने जो घर बनाया वह हमेशा चुप्पियों से गूंजता रहता था. इस घर में जाते हुए मौसम
कुछ करवटें छोड़ गए थे. वे करवटें दीवारों से टकराती हुई आँगन में फिरती रहती थी. लोग कहते थे कि बड़ी गलती की, दरवाज़े के ठीक सामने दरवाज़ा बनाया. भाग, घर के पार हो जायेगा. सौभाग्य को
क़ैद करने के लिए जरुरी था कि आर पार दरवाज़े न हों. इस घर में खिड़कियों के सामने खिड़कियाँ थी, दरवाज़ों के सामने दरवाज़े थे. कई बार लगता था कि घर बनाने वाला ख़ुद को
मुसाफ़िर ही समझता रहा होगा. उसने घड़ी भर की छांव के लिए इस घर को बनाया होगा. आँगन
में चिड़ियाएँ उडती ही आती और उड़ती चली जाया करती थी. जाने किसके भाग का
चुग्गा होता था और जाने कौन चुगता फिरता था. सब तरह से अपशकुनी निर्माण के बाद भी
इस घर में आशाएं नर्म फरों सी नाज़ुक और आसमान से अधिक चौड़ी थी कि जिस सुबह घर की
नीव में पहले पत्थर के नीचे दूब रखी थी तब सही सलामत रही थी, जनेऊ.
घड़ी
की सुइयां घूमती रही और उसकी शक्ल बदलती गई लेकिन स्मृतियों का लोप नहीं हुआ था.
इन स्मृतियों से बाहर आने की छटपटाहट से जो छींटे उछलते उनमे कुछ एक घर, कुछ गलियां और रहस्य भरी उदास शामों की धड़कनें बसी हुई थी.
उन
सालों में खपरैलों के उड़ जाने जितनी आंधियां नहीं आया करती थी. जितने भी साल बीत गए थे, वे सब बेहतर थे. उन
सालों की फितरत में सुकून था, अपनापन था और एक ख़ामोशी
थी. आज कल जाने क्यों लगता है कि कुदरत बेचैन है. आंधियां चलने लगती है, तो डर लगने लगता है. आहटें हमेशा खौफ़ का ही साया बुनती हैं. हर पल लगता है कि निकट ही कुछ अनिष्ट मंडरा रहा है.
आज बड़ा अबूझ है. अगले पल जाने क्या हो?
जाने
कितने ही साल पुरानी पुरानी बात है मगर हर चौमासे के आस पास के दिनों में एक
केसरिया झोली वाला फ़कीर आया करता था. एक कटोरी आटे के बदले बसे रहने की दुआ देता.
बरसात से पहले के एक छोटे
से दिन ड्योढ़ी के आगे छीण पत्थरों से बनी हथाई पर बैठे हुये, उस छोटी काठी वाले बाबा
ने ज़रा सी देर के लिए आँखें बंद की. अपने झोले से गिल्टी का एक कटोरा निकाल कर आगे
बढाया. "बेटा पानी..." मंगते आते थे लेकिन कोई इतने अधिकार से नहीं
बैठता था. उसके माथे के तेज़ से सब खिंचे चले आते.
मोहल्ले
की औरतों को यकीन था कि ये बाबा सच्चा है. इसे जरूर दुनिया-जहान की बातें पता हैं.
सिर के पल्लू को आहिस्ता सरकाते हुए भविष्य के गर्भ में छुपे हुए सुखों की टोह में, वे गोल घेरे में चुप खड़ी हो गयी. किनारों पर सलवटों से सजी आँखों से देखते
हुए सफ़ेद दाढ़ी वाले बाबा ने कहा- "बेटा, कैसे भी
कटो ज़िन्दगी कट ही जाएगी." औरतों ने सुख की सांस ली. अपने हाथों के बीच सर
पर रखे ओढने के पल्लू को पकड़ा और उन्हें आपस में जोड़ कर अभिवादन किया.
उन
औरतों ने घर के कोनों में जाने कितने अहसासों को दबा छुपा रखा था. वे ऐसी धरोहर थी
जिनको किसी खास समय, खास
व्यक्ति के सामने नितांत गहरे एकांत में ही बांटा जा सकता होगा. जैसे किसी लम्हे
में तन्हाई से उपजी कोई पीड़ा, किसी चाहना को मार दिए
जाने का दुःख या फिर पहाड़ जैसी लंबी चौड़ी काली रातों का डर. लेकिन वास्तव में ये
किसी को मालूम न था कि वे दबी छुपी हुई चीज़ें क्या हैं. हर औरत एक दूसरे को खोल कर
पढ़ लेना चाहती थी. उन सबकी एकलौती ख्वाहिश थी कि घर के भीतरखाने में दबी हुई बातों को पढ़ लिया जाये. लेकिन सब औरतें
आपस में आँख के इशारे या हल्की मुस्कान से सारे सवालों को चित्त कर दिया करती.
केसरिया
झोली वाला बाबा जब आया तब तक झाड़ू बुहारी के साथ सुबह चली गई थी. एक अलसाई हुए
दोपहर छपरे के नीचे सो जाने को बाट जोह रही थी. बाबा ने कटोरे में बचे पानी को सर
पर बंधी पगड़ी पर डाला और उठते हुए चार घरों से आई पांच औरतों को कहा "मेरे
बच्चों जब भी दुःख आये, मन उदास हो और पंछी समय से पहले लौटने लगे तो
अपनी रसोई की आग के पास बैठना. उसे तवे से ढकना और गहरे
मन से इस आँगन के पंछियों को बुलाना. सब सही सलामत लौट आयेंगे, कुदरत कृपा
करेगी..." आशीष सुन कर औरतें कर्ज़दार हो गई थी. वे झुक कर अभिवादन करते हुए
कुछ उपकार इसी समय चुका देना चाहती थी.
चाची
हाथ पकड़ कर उसको खींच लाई.
"इसको कुछ कहो बाबा..."
बाबा
ने उसके सर पर हाथ फेरा. बाबा का हाथ एक दम लड्डू जैसा गोल मटोल था.
चाची
ने बोलने में जल्दबाज़ औरत की तरह अपनी सारी बातें इस तरह फैंकनी शुरू की जैसे ज़रा
सी देर में बाबा देवलोक होने वाले हैं और इससे पहले सही रास्ता पूछ लिया जाये. “बाबा ये किसी से
बोलता नहीं है. शाम भर छत की मुंडेर पर बैठा हुआ पश्चिम की ओर देखता रहता है.” चाची ने हड़बड़ी में कहती गयी. "बाबा कुछ बताओ इसके बारे में, कुछ इसको अपना आशीर्वाद दो...”
बाबा
ने फिर सर पर हाथ फेरा. "एक जगह छलकता हुआ कुआं देखा था, बेटी उसमें से पानी आप बाहर को उछलता था... कुदरत... कुदरत"
इसके
बाद बाबा के जाते कदमों की आवाज़ नहीं सुनाई दी. औरतें अपने-अपने रहस्य का भविष्य
बूझे बिना ही वापस लौटने लगी. गली में एक सन्नाटा फिर से गहराने लगा. उसने अंदाज़
लगाया कि घर पहुँचते ही सब औरतें बरसों से छिपा कर रखे हुए अहसासों के सबसे करीब
होंगी. वे उन अहसासों से बहुत सारी बातें करेंगी. बाबा चला गया और समय की एक फांक
नियम से कट कर एक तरफ गिर गई.
एक
ज़िद में सब छूटता गया.
ज़िन्दगी
को उसी के सलीके पर छोड़ देने का विचार उसका नहीं था लेकिन हर बार उसके चाहे से कुछ
हुआ नहीं. उसने सींची हुई सिसकियों के साथ सब कुछ अपना लिया था. वह कभी अकेला
घूमता हुआ दूर निकल जाता था. सूने रस्तों के पार दूर कहीं गाते हुए लोग खेती काटते
थे. उन बीजों की ढेरियाँ बनती, गाड़ियों में
लादे जाते फिर बोलियाँ लगती और वे एक दिन काम आ जाते. उसने खुद को परिवार का बीज
माना और मुलाजिम हो गया. वह एक घर बना लेना चाहता था. लेकिन घर के नक़्शे में
कुछ एक पुराने घर आकर बैठ जाते.
अंग्रेजी
वाले माड़साब के घर से तीन घर इधर एक और घर था. बाहर छोटी सी कच्ची दीवार. तन्हा
बनी हुई रसोई और उसके आगे थोड़ा दूर बने हुए दो कमरे. उस घर में एक औरत रात
भर सिसकियाँ भरा करती थी. इस आदत के कारण मोहल्ला उससे खफ़ा रहता था. साल भर में एक
बार आने वाली उस औरत के आने और जाने का समय तय रहता था. गर्मियों की छुट्टियों के
शुरू होने के तीसरे दिन आती और छुट्टियों के खत्म होने के ठीक सात दिन पहले किसी
तिपहिया में अपनी दो लड़कियों के साथ वापस जाती हुई दिख जाया करती थी.
साल
भर सूना पड़ा रहने वाला घर एक महीने के लिए खुलता और वह भी लोगों की आशंकाओं के साथ
कि कुछ बहुत अशुभ होने वाला है. जैसे चाची और माँ डरती थी कि ये लड़का शाम को डूबते
हुए देखता है. वैसे ही उस औरत के साल डूबते जा रहे थे. हर शाम, एक साल जितनी लम्बी आती
और सिसकियों के साथ डूब जाती. यह समय की एक बड़ी इकाई थी. इसलिए संभव है कि उसका
दुःख भी बहुत बड़ा रहा होगा.
कई
सालों बाद भी ऐसे बहुत सारे घर, उसके घर
बनाने की समझ के आड़े आते रहे.
ऐसे
घर जिनके गुसलखानों के छत नहीं हुआ करती थी. वे उन दिनों बने थे जब बच्चों को घरों
और पानी के कुओं में झांकना मना था. पल्लू से हाथ मुंह पौंछ कर माएं उनको बाहर
धकेल देती थी. घर से बाहर धकेल दिए गए बच्चों के लिए कई नीम के पेड़ थे. वे हमेशा
बुलाते रहते. पेड़ों से थोड़ा आगे सरकारी गोदाम का बाड़ा उदास खड़ा रहता था. वहां रात
को भूत बीड़ी पिया करते और सुबह होने से पहले बड़े हाल के अँधेरे कोने में छत पर
चमगादड़ बन कर उलटे लटक जाया करते थे.
उस
बाड़े में रखे हुये कोलतार के डिब्बों से आने वाली जादुई गंध बच्चो को और अंदर खींचती
जाती फिर एकाएक शोर करते हुए बच्चे अपने घरों को भाग जाते. अकेले किसी के
लौटने की हिम्मत नहीं होती थी लेकिन मन होता था. मन मुड़-मुड़ कर देखता. उस बाड़े
के सूनेपन को दुआएं देता. बंद मुट्ठी को उल्टा कर के एक फूंक से कोई नाज़ुक बाल
उड़ाते हुए कुछ अर्ज़ियाँ आसमान की ओर जाती थीं कि ऐसी सूनी जगहें हमेशा बची रहें.
ये
रेगिस्तान सूना ही था. यहाँ हज़ार लोग एक रास्ता बनाते और एक धूल भरी आंधी उस
रास्ते को मिटा देती थी.
ऐसी
पल भर में खो जाने वाली जगह पर वह होकर भी कहीं नहीं होता था.
(कहानी का टंकित संस्करण
और टिप्पणी उपलब्ध कराने के लिए भाई संजय व्यास का हार्दिक धन्यवाद. बाकी का हिस्सा कल)