असद जैदी की यह कविता अचानक मुझे अपने बड़े काम की लगने लगी है. क्या मालूम
आपको भी लगे. अनिल यादव के लफ़्ज़ों में कहूं – “चचा सलाम!”
व्याख्या का काम
क्या करूं व्याख्या का काम इतना आन पड़ा है
हकलाने के अलावा मैं और कर भी क्या सकता हूँ
इतनी ही मेरी मनुष्यता है बस कि
एकाध और मनुष्य के बैठने की जगह साफ कर दूं
मरखनी गाय के पास मंडराते शैतान
बच्चे का कान खींच दूं
कहूं : अबे मुर्गी के, क्या घर से फालतू है ?
भतीजे से कहूं बंबई न जाए -- वोह बड़ी
भयानक जगह है
समाज से खिसक कर परिवार मे छुप जाऊं
कहला दूं घर पर नहीं हूँ
कब आएंगे पता नहीं
बतला कर नहीं गए
क्या करूं व्याख्या का काम इतना आन पड़ा है
हकलाने के अलावा मैं और कर भी क्या सकता हूँ
इतनी ही मेरी मनुष्यता है बस कि
एकाध और मनुष्य के बैठने की जगह साफ कर दूं
मरखनी गाय के पास मंडराते शैतान
बच्चे का कान खींच दूं
कहूं : अबे मुर्गी के, क्या घर से फालतू है ?
भतीजे से कहूं बंबई न जाए -- वोह बड़ी
भयानक जगह है
समाज से खिसक कर परिवार मे छुप जाऊं
कहला दूं घर पर नहीं हूँ
कब आएंगे पता नहीं
बतला कर नहीं गए
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